Nov 1, 2017

ASHISH KUMAR SHUKLA SENIOR REPORTER BBC KHABAR 

        प्रत्येक भारतीय के लिए राष्ट्रधर्म ही होना चाहिए सर्वोच्च धर्म


Ashish shukla Senior Journalist bbckhabar
एक राष्ट्र तब तक परास्त नहीं हो सकता जबतक वह अपनी सभ्यता और सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा कर पाता है, इतिहास गवाह है कि, जब-जब हमने अपनी संस्कृतिक विरासत को छोड़ा है तब-तब हमारा राष्ट्र खंड-खंड में विभाजित हुआ है। और इसी का लाभ उठाकर तमाम आक्रंताओं ने हमारे राष्ट्र में कइयों बार लूट-खसोट मचाई है। हमने अपने इतिहास से भी सीख न लेते हुए वैदिक काल से चली आ रही वर्ण व्यवस्था को आज भी अपने समाज में स्थान दे रखा है। भले ही हम इक्कीसवीं शताब्दी में रह रहे हों और खुद को आधुनिक मान रहे हों लेकिन, जिस प्रकार आज हमारा राष्ट्र जाति और धर्म के नाम पर खंड-खंड में बंटा हुआ है इससे हमारी आधुनिकता का खूब पता चल रहा है। निश्चित रूप से भारतीय समाज ने विश्व के तमाम क्षेत्रों में जाकर इस समाज के मान को बढ़ाया है, किंतु जब हम धरातल पर आकर किसी निष्कर्ष को निकालते हैं तब हमारे हाथ सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी विचार धारा का खोखला पन ही हाथ आता है।
यह अलग बात है कि हाल ही में केरल राज्य ने समानता का एक नया उदाहारण पेश किया है, केरल के ट्रावनकोर देवास्वामी मंदिर की नियुक्ति समिति ने अपने पुजारियों के रुप में 36 गैर-ब्राह्मणों का चुनाव किया है, जिसमें छ: दलित श्रेणी के हैं, केरल के धार्मिक स्थानों पर जातिगत भेदभाव का एक लंबा इतिहास रहा है, लेकिन जिस प्रकार का यह नया अभूतपू्र्व कदम उठाया गया है इसको देखकर कहा जा सकता है कि देश में समानता की लव जल चुकी है। हलांकि यह देखना होगा कि किस प्रकार गैर-ब्राह्मण पुजारियों को वहां के श्रद्धालु स्वीकार करते हैं।
सदियों से हमारा समाज जातिवाद, असमानता, वह आस्पृश्यता का शिकार रहा है। अगर हम इतिहास पर गौर करें तो वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था को निम्न चार भागों में बांटा गया था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र। जिसमें ब्राह्मण वर्ण का कार्य लोगों को शिक्षा देने का, क्षत्रिय का लोगों की रक्षा करने, वैश्य का व्यापार एवं शूद्र का इन सभी की सेवा करने का कार्य हुआ करता था।
इतिहास के पन्ने में भले ही यह आज से हजारों साल पुरानी बात क्यों न हो गयी हो किंतु, आज भी हमारे समाज में यह व्यवस्था कहीं न कहीं देखने को मिलती है कुछ अपवादों को छोड़कर। सदियों पहले समाज को भले ही चार भागों में बांटा गया हो किंतु आज स्थिति उससे भी बदतर हो गयी है, पहले यह वर्णों तर सीमित था किंतु आज तो इसका प्रसार जातिगत हो गया है। हमारे समाज में अब तमाम तरह के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र देखने को मिल रहे हैं, जहां पहले यह वर्णों तक सीमित था आज जातिगत रूप से कई टुकड़ों में विभाजित हो चुका है। अब इसमें भी ऊंच-नीच का भेद आसानी से देखने को मिल सकता है। आज जिस प्रकार भारतीय समाज के टुकड़े-टुकड़े हो रखे हैं इससे समाज को दिनों-दिन सामाजिक, आर्थिक हानि हो रही है, और जिसके चलते न सिर्फ वैश्विक स्तर पर हमारी किरकिरी हो रही है, बल्कि सभी वर्ग को साथ न लेकर चल पाने की वजह से हमें गंभीर आर्थिक हानि का सामना करना पड़ रहा है। काश अगर हम सभी वर्गों के बुद्धिमतता का इस्तेमाल राष्ट्र के विकास के लिए कर पाते तो आज हमारा राष्ट्र भी वैश्विक महाशक्ति के रूप में विश्व के समाने खड़ा होता और हम अपने राष्ट्र का गौरव बढ़ा रहे होते, किंतु दर्भाग्यवश ऐसा नहीं है।
यदि हम वैश्विक पटल पर झांक कर देंखे तो केवल भारतीय समाज ही नहीं बल्कि तमाम ऐसे देशों के उदाहरण हमारे सामने देखने को मिलेंगे जहां सदियों से जातिगत भेदभाव तो रहा ही है साथ ही श्वेत-अश्वेत का भेदभाव भी रहा है। दक्षिण अफ्रीका एक ऐसा देश है जो पहले रंगभेद कानून से शासित हुआ करता था, जिसके चलते वहां की तमाम प्रजातियों को अलग-अलग बंटकर रहना पड़ता था, और केवल श्वेत रंग के लोगों को तमाम सुविधायें प्राप्त होती थी, जिसके चलते 1970 के दशक में यह देश में तमाम तरह की परेशानियों से जूझ रहा था, लेकिन इस दूषित परिस्थित से अफ्रीका को उबारने के लिए अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस और जाने माने नेता नेल्सन मंडेला ने इसके खिलाफ लंबा संघर्ष किया और अंततः 1994 में उन्हें सफलता मिली और अफ्रीका एक लोकतांत्रिक देश बना। तब से सभी प्रजातियों के लोंगों को बराबर माना जाने लगा।
यहां से हमें न सिर्फ सीख लेने की जरूरत है, बल्कि जातिवाद के गंभीर मुद्दे पर चिंतन-मनन की आवश्यकता भी है। हमें सोचना चाहिए कि, अगर अफ्रीका जैसे देश में ऐसा हो सकता है तो हमारे इस राष्ट्र में क्यों नहीं?। भारतीय समाज में जातिगत-भेदभाव और जातिवाद के पीछे कई कारण हैं, जिसमें से एक कारण राजनीतिक भी है और यह ऐसा कारण है जिसने शायद आज पूरे समाज को सबसे ज्यादा बिखंडित कर रखा है। देश के नेताओं को आज प्रण लेने की आवश्यकता है कि, वह समाज के सभी वर्गों को अपने परिवार का हिस्सा मानेंगे और सभी वर्गों के लिए उच्च स्तर पर काम करके वास्तविक लोकतंत्र की मिसाल पेश करेंगे। न सिर्फ इन नेताओं को बल्कि देश के प्रत्येक नागरिक को भी इसपर गंभीरता से विचार करते हुए प्रण लेना की आवश्यकता है। यदि प्रत्येक भारतीयों के मन में इस प्रकार की चेतना उत्पन्न हो जाए की राष्ट्र धर्म ही सर्वोच्च धर्म है और भारतीय होना ही आदर्श पहचान है, तो हमारे राष्ट्र को विकसित होने में शायद दशक से भी कम समय लगे।
राष्ट्र धर्म एक ऐसा धर्म है जो वर्ण एवं जातिगत स्तर से कहीं ज्यादा ऊपर है, यही कारण है कि अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र भी इसे मानते हैं, अमेरिक में आजकल एक नूतन धर्म ‘सिविल रिलजन’ चल रहा है, यह एक ऐसा धर्म है जो राष्ट्र के सार्वभौमिक धर्म का अतिक्रामी है। जिस प्रकार हमारे राष्ट्र का आज माहौल है उसको देखकर आसानी से कहा जा सकता है कि हमारे राष्ट्र को भी इस तरह के प्रतिमान को स्थापित करने की प्रबल आवश्यकता है। काश अगर ऐसा संभव हो सके तो तो हमारा राष्ट्र रातों-रात उन बुलंदियों को छू सकता है जिसकी आज तक हम महज कल्पना मात्र करते आये हैं।

Feb 17, 2017

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Ashish kumar shukla Special Story Writer BBC Khabar Hindi