Dec 23, 2018


भारत का राजनैतिक परिदृश्य और भारतीय जनता 

आशीष कुमार शुक्ला 

''लोगों ने नहीं तुमने ही इस मिट्टी को बदनाम कर दिया
आज बिक रही है आबरू मेरे देश की, हाय !
मेरे देश के नेताओं ने देश को श्मशान कर दिया''
सत्ता की चाह और वोटबैंक की राजनीति आज लोकतंत्र को जितना घाव दे सकती है, दे रही है. अपनी सभ्यता और संस्कृति के लिए विश्व विख्यात हमारा देश आज अपनी मूल पहचान को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है. देश में अब केवल नाम मात्र का राजनेता बचा है, और लोभ लालच, स्वार्थ हित की राजनीति.
वो दौर और था जब समाजवादी भारत की कल्‍पना करने वाले डॉ. राम मनोहर लोहिया ने भारत की पिछड़ी, दलित, गरीब और वंचित जनता के लिए एक भारत श्रेष्ठ भारत का सपना देखा. अब वो दौर भी नहीं रहा जहां लाल बहादुर शास्‍त्री जैसे नेता हों, जो अपनी सादगी, ईमानदार छवि के बूते पर बिना भेदभाव राष्ट्र के लिए अपना जीवन समर्पित कर दें.
साहब ! अब उस दौर की राजनीति हो रही है, जहां स्वार्थ, परिवार हित, राजनीति का आधार है. कहते हैं हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और होते हैं, ठीक वैसे ही आज राजनीति में जातिवाद भी शामिल है. जब चुनाव नजदीक आता है, तब हिंदू, मुस्लिम, के नाम पर वोट मांगे जाते हैं लेकिन सत्ताशीन होने के बाद ये नेता न हिंदू के होते हैं और न मुस्लिम के ये बस अपने स्वार्थ, अपनी संपत्ति, अपने करीबियों को चमकाने में लग जाते हैं. वहीं बेचारी जनता जिस हाल में पहले थी उससे भी बदतर हो जाती है.
आज देश में भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद और जातिवाद पूरी तरह से हावी हो चुका है, ये वो समस्याएं हैं जहां देश घुटने टेकने के लिए मजबूर है. जिस लोकतंत्र का हमने 70 साल पहले सपना सजाया था वो अब टूटता नजर आ रहा है. लोकतंत्र जिसमें "जनता द्वाराजनता के लिएजनता का शासन है" है अब वो केवल नाम के लिए रह गया है, जनता वही है, शासक भी हमारे बीच के हैं, लेकिन राजनीति का स्तर खत्म हो चुका है. अब राजनीति में आना मतलब सत्ता का सुख भोगना है. हलांकि लोकतंत्र पर जो विश्वास जनता का बना हुआ है वो केवल इसलिए, क्योंकि कुछ एक नेता अभी ऐसे हैं, जो राष्ट्र और जनता के हित के लिए काम कर रहे हैं.

राजनीति का मूल आधार नोट के बदले वोट
सत्ता में आना है तो नोट उड़ाना है, मौजूदा समय में भारतीय राजनीति में धनबल, बाहुबल का बोलबाला है. ये एक ऐसी विचारधारा है जो आज राजनीति का कोर बनी हुई है. यही वजह है कि चुनाव में जनता न तो अपने बौद्धिकता का इस्तेमाल कर पा रही है, और न ही अपने पसंद के राजनेता का चयन. कार्ल मार्क्स ने कहा है कि "धर्म जनता की अफीम है" मतलब धर्म के लिए हमारा दिमाग सोचना बंद कर देता है, और हम वही करते हैं जो हमसे करवाया जाता है. जाति-धर्म के इस बंधन ने भी राजनीति के स्तर को गिराया है. तमाम राजनेता इसी के आधार पर दशकों से सत्ताशीन हैं. जनता की समस्याओं को उठाकर सत्ता में आने वाले नेता सत्ता पाते ही इसके नशे में चूर हो जाते हैं, और जमीनी हकीकत जस की तस बनी रखती है.
ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि जहां, आज देश को भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद और जातिवाद से निकलने की जरूरत है, वहीं देश की कोई राजनीतिक पार्टियां अपने को आगे लाकर समाज में व्याप्त इन समस्यों के समाधान पर गौर नहीं कर रही हैं. आज राजनीतिक पार्टियों का बस चले तो जांच एजेंसियों, केंद्रीय सतर्कता आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक, मीडिया पर भी अंकुश लगा दें.

कैसे हो सकती है सुचिता की राजनीति ?
धर्म लोगों को सदाचारी और प्रेममय बनाता है, राजनीति का उद्देश्य है लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उनके हित में काम करना है, जब धर्म और राजनीति साथ-साथ नहीं चलते, तब हमें भ्रष्ट राजनीतिज्ञ और कपटी धार्मिक नेता मिलते हैं. एक धार्मिक व्यक्ति, जो सदाचारी और स्नेही है भले ही किसी धर्म का हो, वो जनता के हित का ध्यान रखेगा और एक सच्चा राजनीतिज्ञ बनेगा, और सही मायने में लोकतंत्र का जो मूल आधार है वो सिद्ध हो सकेगा. तभी जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता के शासन के सपने को साकार किया जा सकेगा.
राजनीति के घटते स्तर के लिए केवल राजनेताओं को ही जिम्मेदार ठहराना न्याय संगत नहीं होगा, क्योंकि इनके कोर में जनता है. वही जनता जो इन्हे समर्थन करती है, जो इन्हे फर्स से अर्स तक पहुंचाती है. उसे भी विचार करने की जरूरत है, कि जिस समस्या के लिए वो सिर पटक रही है उसकी जननी तो वही है. जनता को सोचना चाहिए, विचार करना चाहिए उसके बाद ही मतदान करना चाहिए क्योंकि जिस लोकतंत्र में हम रह रहे हैं, उसमें जनता ही जनार्दन है. सही मायने में मतदाता ही लोकतंत्र का सजग प्रहरी भी है, लेकिन जातिवाद, धर्म के नाम पर आम जनता बटी हुई है.
ऐसे में लोकतंत्र की ताकत होने के बावजूद जनता की धार कुंद हो चुकी है. आज जरूरूत है इन सबसे ऊपर उठकर एक ऐसी सोच विकसित करने की, जहां जातिवाद, क्षेत्रवाद न हो, जहां स्वार्थी न बनकर राष्ट्रहित के लिए उस नेता का चयन हो जो सच में राष्ट्र का विकास कर सके, क्योंकि जाति और धर्म की राजनीति से सिर्फ कुछ एक लोग का भला हो सकता है लेकिन संपूर्ण राष्ट्र का नहीं. जनता को इस कुंठित विचारधारा से बाहर आकर राष्ट्र के लिए सोचना चाहिए ऐसी सोच से ही देश के लोकतंत्र को बचाया जा सकता है.

Sep 4, 2018


वोट बैंक, राजनीति, और मॉब लिंचिंग 
अगर देश में मॉब लिंचिंग की घटनाएं ऐसे ही बढ़ती रहीं तो वो दिन दूर नहीं जब हम उस जंगल में रह रहे होंगे जहां, हर वक्त छोटे जानवर शेर से अपनी जान बचाने की कोशिश कर रहे होते हैं. 
सत्ता की चाह और वोटबैंक की राजनीति आज लोकतंत्र को जितना ज्यादा घाव दे सकती है, दे रही है. और इन्हीं की बदौलत हमारा देश ऐसी दूषित मांसिकता की ओर बढ़ रहा है, जिसे देखकर शायद आतंकी भी घबरा जाए. आतंकियों का क्या उनके लिए लोगों में दहशत फैलाना ही उनका धर्म और कर्म है, लेकिन जिस मांसिकता को लेकर देश आगे बढ़ रहा है, वह शायद इन दहशतगर्दों की सोच से कही ज्यादा घातक है. 
आज देश में जिस प्रकार से मॉब लिंचिंग (भीड़ हत्या) की घटनाएं बढ़ रही हैं, अगर ये ऐसे ही बढ़ती रहीं तो हमारे देश का क्या हाल होगा ये सोचकर रूह काप जाती है. पिछले कुछ सालों में जिस प्रकार से मॉब लिंचिंग की घटनाएं सामने आई हैं, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है, कि बीते कुछ सालों में हमारा देश जाने-अनजाने किस मांसिकता का शिकार हो रहा है.
2015 में बकरीद के मौके पर अख़लाक़ नाम के युवक की मौत के बाद से देश में ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं. जब अख़लाक़ को इकट्ठी हुई भीड़ ने मार डाला था, तब उस वक्त तमाम राजनेताओं ने वोट बैंक बढ़ाते हुए उनके परिवार के प्रति सहानुभूति जताई थी. तब एक वक्त को ऐसा लगा था कि, शायद इस घटना के बाद सरकार कोई सीख लेगी और लोगों को मार डालने वाली भीड़ के लिए सख्त कानून बनाएगी. लेकिन हमारे देश का दुर्भाग्य है कि, उसी सहानुभूति को बार-बार देकर हमारे राजनेता अपना वोट बैंक बढ़ाना चाह रहे हैं. उन्हे शायद इस बात से फर्क नहीं पड़ता की मौत किसकी हुई है और कौन जिम्मेदार है. 
ऐसी घटनाओं के लिए कोई कठोर कानून होने की वजह से आज लोग इकट्ठा होकर किसी को पीटने में जरा भी संकोच नहीं करते हैं. जिस व्यक्ति के बारे में वो जानते तक नहीं, उसको इस तरह पीटते हैं जैसे उनका पुराना दुश्मन हो. यह आखिर हो कैसे रहा है कि, किसी अफवाह को सुनकर या कोई आधरहीन शक पैदा होने पर और फिर किसी सोची-समझी योजना के तहत एक भीड़ इकट्ठी होती है किसी को पीट-पीटकर जान से मार डालती है? आखिर इतना आक्रोश पैदा कहा से होता है लोगों के अंदर? यह सोचने वाली बात है. 
सवाल उठता है कि, आखिर ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले लोग जरा भी रहम क्यों नहीं दिखाते हैं? क्या उनके अंदर से मानवता, संवेदनशीलता, खत्म हो गई है? आखिर ये भीड़ कानून को अपने हाथ में लेकर खुद को योद्धा क्यों साबित करना चाहती है? क्या संविधान और कानून पर इन्हें भरोसा नहीं रहा, जो ख़ुद न्याय और नैतिकता के दायरे तय करना चाहती है?. इन सवालों का जवाब शायद कोई दे पाए, क्योंकि इन्हें बढ़ाने और इनका पालन पोषण करने वाला कोई और नहीं बल्कि सरकार है.
देश में बढ़ रहीं ऐसी घटनाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी चिंतित है, लेकिन सत्ता में बैठे नेताओं को जो देश के लिए मर-मिटने की बात करते हैं, उन्हें अपनी लग्जरी लाइफ जीने से फुर्सत ही नहीं है, कि वो देश में हो रही ऐसी घटनाओं पर सख्ती से रोक लगाएं. शायद यही वजह है कि, हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इन घटनाओं की रोकथाम के लिए सरकार से कड़े कदम उठाने के आदेश दिए हैं, लेकिन अब ये देखना होगा कि इसपर सरकार की आंख कब खुलती है.

मॉब लिंचिंग जैसे घटनाओं को लेकर सरकार को सख्त होने की जरूरत है, अगर जल्द ही कड़े कानून और कड़ी सजा का प्रावधान नहीं किया गया, तो ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ेंगी, जिन्हे रोक पाना आसान नहीं होगा. अभी स्थिति हद में है, अगर ऐसा चलता रहा, तो निश्चित रूप से एक दिन ऐसा आएगा जब हम कदम-कदम पर असुरक्षित महसूस करेंगे. हमें हर वक्त ये डर रहेगा कि, कहीं कोई हमारा शिकार कर ले. हम उस जंगल में रह रहे होंगे जहां, हर वक्त छोटे जानवर शेर से अपनी जान बचाने की कोशिश कर रहे होते हैं. 
बीबीसी खबर वैब पोर्टल में छापा गया...
http://www.bbckhabar.com/Landing_story.aspx?Article_Id=3035

Jun 26, 2018


जानकारियों का मारा पब्लिक बेचारा, ऑनलाइन व्यवस्था    के बाद भी बेकार हो रहा लोगों का पूरा समय
आशीष शुक्ला। जहां एक ओर भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए सूबे की सरकार प्रशासनिक स्तर पर सुधार को लेकर लगातार प्रतिबद्ध है, वहीं दूसरी ओर पब्लिक के जागरूक होने की वजह से आज भी उन्हे तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। दिल्ली से 800 किलोमीटर दूर गोण्डा जिले में विभिन्न स्तर पर प्रशासनिक ढांचे में कितना सुधार हुआ है, और आज भी किस तरह की दिक्कतें वहां कि पब्लिक को झेलनी पड़ा रहीं हैं इसके बारे में आपको बताऊंगा। आरटीओ ऑफिस के अतुल मौर्या जी से फोन पर बतचीत का अंश मैं यहां हूबहू डाल रहा हूं जिससे आपको वर्तमान में आरटीओ ऑफिस की क्या दिक्कतें हैं और उससे पब्लिक को किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है यह आपको जानने को मिल जाएगा। 

आज से तीन साल पहले जब कोई व्यक्ति ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने या किसी तरह की परमिट के लिए यहां आता था, तो वह दलालों के बीच में पिसकर ही काम को जल्दी करवा सकता था। स्थित तो ये थी की यदि दलाल को पैसे नहीं दिये और खुद ही बिना किसी लेनदेन के काम करने निकल गए तो आपको महीनों तक ऑफिस के चक्कर काटने पड़ते थे। स्थित आज ज्यादा बदली नहीं लेकिन, प्रशासनिक स्तर पर कई बदलाव किए गये जिनका लाभ पब्लिक नहीं उठा पा रही है। दलालों बिचौलियों से परेशान सरकार ने बढ़ते भ्रष्टाचार को कम करने पारदर्शिता लाने के लिए लाइसेंस अप्लाई से लेकर लर्निंग लाइसेंस को निकलवाने तक की व्यवस्था ऑनलाइन कर दी। लेकिन आज भी लोग उसका व्यापक स्तर पर सही से इस्तेमाल कर पाने की वजह से तमाम तरह के ऐजेंटों के चक्कर में आकर अपना पैसा बर्बाद कर रहे हैं। ऑरटीओ ऑफिस में कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक लोगों को आज जागरुक करते हैं कि आप इन बिचौलियों के चक्कर में पड़ो और खुद से ऑनलाइन इस फॉर्म को भरो, लेकिन इसके बावजूद भी पब्लिक अपना काम खुद नहीं करना चाहती है। इनके चलते ही जबसे व्यवस्था ऑनलाइन हुई साइबर कैफे वालों का विशेष फायदा हुआ है, क्योंकि वह इस काम के लिए मनचाहा पैसा वसूल लेते हैं। इनके पास पर्याप्त जानकारी होने की वजह से इन्हें आज भी काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ जाता है। हलांकि कुछ पढ़े-लिखे युवाओं के लिए यह व्यवस्था काफी अच्छी है और वह इसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं।

सरकार ने ऑनलाइन की व्यवस्था इसलिए लागू करवाई जिससे की लोग अपना महत्वपूर्ण समय बचाकर उसका इस्तेमाल रोजगार परक चीजों के लिए करें और व्यर्थ समय बर्बाद करने से बचें। लेकिन व्यापक स्तर पर जिले में तकनीकि जानकारी होने की वजह से वह आज इन व्यवस्थाओं के बाद भी अपना अमूल्य समय बर्वाद कर रहे हैं।

लाइसेंस के लिए इन प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है आपको 
सबसे पहले आपको लाइसेंस के लिए ऑनलाइन आवेदन करना होता है। इसके बाद फीस जमा करके उसकी कॉपी का प्रिंट आउट निकालना होता है। उक्त कॉपी को ऑफिस में ले जाकर संबंधित अधिकारी को देना होता है जिसके बाद वह उसका वेरीफिकेशन (जांच- पड़ताल) करते हैं। फिर आपको टेस्ट देना होता है, जिसमें ट्रैफिक के समान्य प्रश्नों की पूछताछ की जाती है। टेस्ट में सफल होने केएमस के बाद लर्निंग लाइसेंस का एक मैसज रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर पर जाता है, जिसके द्वारा उसको कहीं से प्रिंट किया जा सकता है। लर्निंग के एक महीने बाद फीस जमा करके ऑफिस से परमानेंट लाइसेंस प्राप्त किया जा सकता है।