May 22, 2014

राज की नीति -आशीष शुक्ला



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-क्या आप मुझे, अपने मकान में किराए पर एक कमरा दे सकते हैं?
नहीं !... क्योंकि तुम मकान ख़ाली नहीं करोगे। हमारे पूरे मकान पर क़ब्ज़ा कर लोगे।
-क्या आप मुझे नौकरी दे सकते हैं?
नहीं !... क्योंकि पहली बात तो पढ़े-लिखे नहीं हो; दूसरे तुम्हारा व्यवहार बेहूदा है।
-क्या आप मुझे अपने व्यापार में शामिल कर सकते हैं?
नहीं !... क्योंकि तुम हमारे व्यापार में शामिल होकर हमारे व्यापार पर क़ब्ज़ा कर लोगे। हो सकता है मुझे मरवा भी दो।
-क्या आप मुझे कुछ कर्ज़ा दे सकते हैं?
नहीं !... क्योंकि तुम कभी वापस नहीं करोगे। तुमको कर्ज़ा देने का मतलब है पैसे डूब जाना।
-क्या आप अपनी बेटी की शादी मुझसे कर सकते हैं, मैं कुँवारा हूँ?
नहीं !... क्योंकि तुमसे बेटी की शादी होने पर उसका और हमारा जीवन नर्क हो जाएगा। इससे अच्छा है कि वो ज़िंदगी भर कुँवारी रहे।
-क्या आप मुझे वोट दे सकते हैं? मैं इस बार के चुनाव में खड़ा हो रहा हूँ।
-हाँ, हम तुम्हें वोट देंगे, चंदा देंगे और तुम्हारा ज़ोरदार स्वागत भी करेंगे।
-"लेकिन क्यों! आपने मुझे किसी लायक़ नहीं समझा तो फिर मैं नेतृत्व के लायक़ क्यों हूँ?"
"क्योंकि अब ये हमारे देश की परम्परा हो गयी है जिसे हम किसी योग्य नहीं मानते उसे हम नेता बनने के योग्य तो मान ही लेते हैं। इसका कारण है कि हम हर तरीक़े से हीरो को 'दबंग' ही देखना चाहते हैं और नेता को भी दबंग ही देखना चाहते हैं। इसलिए जाओ होनहार नौजवान! नेता बन जाओ और देश का कल्याण करो (और मेरी जान छोड़ो)।"

ये वार्तालाप यहीं समाप्त हुआ। अब आगे चलें...
        ज़ाहिर है पाँच राज्यों के चुनावों से राजनीति का विषय भी गर्म रहा। इस बार अपराधियों की भागीदारी सत्ता में कम से कम हो; इस बात का काफ़ी प्रचार रहा। कई नेताओं ने अपने-अपने ज़ोर आज़माए हैं... ये सब तो ठीक लेकिन ये 'नेता' होता क्या है? जिस तरह किसी नौकरी के लिए बहुत सारी अहर्ताएँ पूरी होनी चाहिए, उसी तरह नेता बनने के लिए भी किसी योग्यता अथवा 'क्वालिफ़िकेशन' की ज़रूरत है? ये सवाल अनेक बार उठते हैं।
        भारतवासियों ने महात्मा गांधी को यदि नेता माना तो नेताजी सुभाष को भी गांधी जी के उम्मीदवार के ख़िलाफ़ कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया। नेहरू जी को नेता माना तो सरदार पटेल को भी प्रधानमंत्री के रूप में देखने की इच्छा करोड़ों भारतवासियों के मन में आज भी है कि काश! पटेल बने होते प्रधानमंत्री...। आज भी दिल में कराह उठती है कि काश सरदार भगतसिंह को फांसी न लगी होती। लाल बहादुर शास्त्री को ईमानदारी और पारदर्शिता का प्रतीक माना गया तो इंदिरा गांधी को लौह महिला का ख़िताब दिया गया। अब्दुल कलाम और अटल बिहारी वाजपेयी जनता में अपनी अलग विशेषताओं से लोकप्रिय हो गये... लेकिन क्यों... क्या ख़ास बात है इन नेताओं में? जिसमें नेता के कुछ ख़ास गुण हों, वही नेता बनता है।
        कम से कम चार गुण तो मुख्य हैं- सबसे पहले तो वह 'जननेता' हो; उसके भाषणों में इतनी जान हो कि वह भाषण सुनने आई हुई भीड़ को वोटों में बदलने की शक्ति रखता हो। दूसरे वह 'राजनेता' हो; उसे संसदीय गरिमा का पता हो; पढ़ा लिखा हो और विद्वानों के बीच में कुछ बोलने की क्षमता रखता हो। तीसरे वह 'अच्छा प्रबन्धक' हो; उसका प्रबन्धन अच्छा हो और विपरीत परिस्थिति में भी सफल राजनीतिक गठजोड़ की क्षमता हो। चौथे वह 'कुशल प्रशासक' हो; उसे शासन प्रशासन आता हो। यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि इन गुणों में कहीं भी त्याग करने की क्षमता, सत्य बोलना, भावुक या दयालु होना आदि नहीं है।
        असल में राजनीति में 'राज' के साथ 'नीति' लगी हुई है। नीति आदमी तभी बनाता है; जब वह कुछ प्राप्त करना चाहता है। त्याग के लिए नीतियों की आवश्यकता नहीं होती। जब राज प्राप्त करना चाहते हैं तो राज के साथ में नीति लगाकर काम चलता है। अर्थ प्राप्त करना चाहते हैं तो अर्थ के साथ में नीति लगाते हैं, 'अर्थनीति' कर देते हैं। चाणक्य और चन्द्रगुप्त का ध्येय था; मगध का राज्य प्राप्त करना। चाणक्य ने नीति बनाई तो 'चाणक्य-नीति' कहलाने लगी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र बना; अर्थनीति बनी।
        अर्थ बहुत अर्थपूर्ण होता है: शासन के लिए; राज्य के लिए। इस संबंध में चाणक्य की तरह ही मैकियावेली[1] ने भी अनेक नियम राजा या शासक के लिए बताए हैं। मैकियावेली ने लिखा है किसी भी व्यक्ति को शासक बनने से पहले आर्थिक मामलों में उदार होना चाहिए लेकिन शासन हाथ में आने पर उसका कृपण (कंजूस) हो जाना ही राज्य के हित में है, क्योंकि राज्य पैसों से ही चलता है। यदि राज्य प्राप्त करने के बाद राजा उदार हो जायेगा तो सारा ख़ज़ाना लुटा देगा और राज्य की व्यवस्थाएँ कमज़ोर पड़ जायेंगी। विदेशी ताक़तें क़ब्ज़ा कर लेंगी और आर्थिक मंदी आ जायेगी। इस तरह की नीतियाँ मैकियावेली ने अपनी किताब में लिखी हैं। मैकियावेली कोई जन-प्रिय लेखक नहीं रहा क्योंकि उसको क्रूर शासन से सम्बन्धित नीतियाँ बताने का आरोपी पाया गया। मैकियावेली का प्रभाव नीत्शे (Friedrich Nietzsche) पर पड़ा और नीत्शे का हिटलर पर।
        उधर मैकियावेली का ठीक उल्टा 'थॉरो' (Henry David Thoreau 1817-62 ) है। थॉरो की नीतियाँ बिल्कुल अलग हैं और उसकी सोच बिल्कुल अलग है। थॉरो कहता है कि सरकार सबसे अच्छी वह है: जो कम से कम शासन करे; उसे शासन में न्यूनतम भागीदारी करनी पड़े; वह विकास कार्यों में अधिक ध्यान दे। यानी न्यूनतम शासन-प्रशासन वाली सरकार। इसी तरह न्यूनतम शासन करने वाला राजा सर्वश्रेष्ठ है। ये थॉरो महाशय वही हैं; जिनके विचारों से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' चलाया। 'सविनय अवज्ञा' असल में थॉरो की ही सोच थी।
        थॉरो की मृत्यु के बाद 1863 में प्रजातंत्र के प्रणेता अब्राहम लिंकन का विश्वप्रसिद्ध भाषण गॅटिसबर्ग (Gettysburg) में हुआ। ग़ुलामी प्रथा को ख़त्म करने का संकल्प लेकर लिंकन ने चुनाव प्रचार किया और अमरीका के राष्ट्रपति बने। दास-प्रथा के समर्थक दक्षिणी राज्यों के कारण गृहयुद्ध छिड़ गया। युद्ध में जीत जाने पर लिंकन का यह भाषण हुआ। यह वही संबोधन है जिसमें उन्होंने प्रजातांत्रिक सरकार को परिभाषित करते हुए "जनता की, जनता के द्वारा, जनता के लिए" कहा था। (of the people, by the people, for the people)। ज़रा सोचिए कि यह भाषण मात्र 2 मिनट का था और इसमें व्याकरण संबंधी भूलें भी थीं लेकिन इतने प्रभावशाली ढंग से यह भाषण दिया गया था कि इसका प्रभाव आज तक क़ायम है।
        लिंकन के पिता किसान थे और साथ ही बढ़ई का काम भी करते थे। अब्राहम लिंकन से संसद में एक सदस्य ने कहा कि आपकी हैसियत ही क्या है मेरे सामने? आपके पिता मेरे पिता के यहाँ फ़र्नीचर पर पॉलिश किया करते थे। लिंकन ने कहा कि यह सही है कि मेरे पिता फ़र्नीचर पर पॉलिश करते थे लेकिन उन्होंने कभी भी ख़राब पॉलिश नहीं की होगी। उन्होंने अपना काम सर्वश्रेष्ठ तरीक़े से किया और इसका नतीजा यह हुआ कि उन्होंने अपने बेटे को इस योग्य बना दिया कि आज उनका बेटा अमरीका का राष्ट्रपति है जबकि आपके पिता बहुत अधिक पैसे वाले होने के बावजूद भी आपको ये नहीं सिखा पाये कि संसद में सदस्यों के प्रति किस प्रकार से पेश आना चाहिए।

अब्राहम लिंकन ने यह साबित किया कि वह 'जननेता', 'राजनेता', 'प्रबंधक', 'प्रशासक' आदि सभी कुछ उत्तम श्रेणी के थे और इसलिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
 
 
यह सत्ता का रंग आशीष शुक्ला


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        गिरगिट और ख़रबूज़े में क्या फ़र्क़ है ?
        गिरगिट माहौल देखकर रंग बदलता है और ख़रबूज़ा, ख़रबूज़े को देखकर रंग बदलता है।
हमारे नेताओं के भी दो ही प्रकार होते हैं और इनमें फ़र्क़ भी वही होता है जो गिरगिट और ख़रबूज़े में...
      
        न जाने कितने साल पुरानी बात है कि न जाने किस देश के एक सुल्तान ने अपनी पसंद का महल बनवाने का हुक़्म दिया। बीस साल में महल बनकर तैयार हो गया। अब इतना ही काम बाक़ी रह गया था कि महल के बाहरी दरवाज़े पर सुल्तान का नाम लिख दिया जाये। अगले दिन सुल्तान महल देखने आने वाला था।
        लेकिन ये क्या ? सुबह को देखा तो पता चला कि महल के बाहरी दरवाज़े पर तो सुल्तान की बजाय 'इन्ना' का नाम लिखा हुआ है, और फिर रोज़ाना यही होने लगा कि नाम लिखा जाता था सुल्तान का लेकिन वह बदल जाता था इन्ना के नाम से...।
        कौन था 'इन्ना' ? इन्ना एक फटे-हाल ग़ुलाम था और इसने भी महल बनाने में मज़दूरी की थी। इन्ना, ईमानदार और रहमदिल होने के साथ-साथ एक ऐसा गायक भी था, जिसके गीत पूरी सल्तनत में मशहूर थे। उसके दिल में चिड़ियों और जानवरों के लिए बेपनाह मुहब्बत थी। चिड़ियों का पिंजरे में रहना और घोड़ों को दौड़ाने के लिए कोड़ों से पीटा जाना पसंद नहीं करता था इन्ना। सचमुच बहुत रहमदिल था इन्ना।
        ये बात सुल्तान तक पहुँची कि सारी सल्तनत में इसी का चर्चा होने लगा है। सुल्तान ने अपनी मलिका और वज़ीर से सलाह की। पूरी योजना के साथ मलिका इस ग़रीब 'इन्ना' के घर जा धमकी। हज़ार इन्कार-इसरार के बाद इन्ना को महल में ले जाया गया और ज़बर्दस्ती सल्तनत का वज़ीर बनाया गया।
        इन्ना ने वज़ीर बनते ही तमाम फ़रमान जारी कर दिए- जैसे कि कोई ग़रीब बासी खाना नहीं खाएगा, किसी जानवर को कोड़े नहीं लगाए जाएँगे, चिड़ियाँ पिंजरों में नहीं रहेंगी। ग़रीब फटे-चिथड़े नहीं पहनेंगे आदि-आदि।
        इस आदेश का पालन, मलिका और पुराने वज़ीर की 'चाल' के अनुसार किया गया। कुछ ऐसे हुआ कि ग़रीब जनता से खाना छीना जाने लगा। ताज़ा खाना उनको मिल नहीं पाता था और बासी खाना इस नये आदेश ने बंद करा दिया, साथ ही दंड भी दिया जाने लगा। जो भी फटे कपड़ों में दिखता उसे पीटा जाता और उसके कपड़े उतार दिए जाते। घोड़ों को कोड़ों के बजाय अन्य साधनों से पीटा जाने लगा। कुल मिला कर यह हुआ कि हाहाकार मच गया।
        इस बात की ख़बर इन्ना को दी गई कि पड़ोसी देश हमला कर सकते हैं और घोड़ों के बिना युद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि घोड़े बिना कोड़ा लगाये चलेंगे ही नहीं तो युद्ध कैसे लड़ा जाएगा ?
        इन्ना अब वो इन्ना नहीं रहा था। महल की आराम और अय्याशी की ज़िंदगी, जिसमें लज़ीज़ खाना, उम्दा शराब और मनोरंजन के लिए नर्तकियाँ शामिल थीं, ने इन्ना को पूरी तरह बदल दिया था। आये दिन इन्ना को अपने फ़रमानों को बदलना पड़ता था। जंग के लिए तैयार करने के लिए घोड़ों को फिर से कोड़े लगा कर दौड़ाने का आदेश इन्ना ने जारी किया और इन्ना का पूरा व्यक्तित्व अब ठीक वैसा ही हो गया था जैसा कि किसी ज़ालिम शासक का हो सकता है।
        दो साल गुज़र गये थे, अब सुल्तान ने इन्ना को बुलवाकर उससे तमाम सवाल किए और उसे कोई सुरीला गाना सुनाने के लिए कहा। दो साल शराब पीने और आराम की ज़िंदगी बिताने वाला इन्ना अब सिर्फ़ फटी आवाज़ में ही गा पाया। यह लिखने की ज़रूरत नहीं है कि महल के दरवाज़े से इन्ना का नाम मिटाकर जब सुल्तान का नाम दोबारा लिखा गया तो वह बदल कर इन्ना नहीं हुआ।
इन्ना का क़िस्सा असल में असग़र वजाहत के नाटक 'इन्ना की आवाज़' का सारांश है।

बात सिर्फ़ इतनी सी है कि 'सत्ता' की एक 'अपनी भाषा' और 'अपनी संस्कृति' होती है और सत्ता में बने रहने के कुछ नियम होते हैं। इन भाषा, संस्कृति और नियमों का प्रयोग किये बिना सत्ता चल नहीं सकती। जबकि सत्ता प्राप्त करने के लिए कोई नियम नहीं है। सत्ता प्राप्त करने के लिए विभिन्न तरीके अपनाये जा सकते हैं और अपनाये जाते भी हैं।

कुछ उदाहरणों पर एक दृष्टि डाली जाय:
        - राम अपने वनवास के समय एक अनुसूचित जनजाति की स्त्री शबरी भीलनी के जूठे बेर खा लेते हैं, भीलों के सरदार गुह को गले लगाते हैं और केवट मल्लाह से भी गले मिलते हैं, लेकिन अयोध्या के राजा बनने के बाद 'शम्बूक' नामक दलित का वध सिर्फ़ इसलिए कर देते हैं कि बेचारा शम्बूक कठिन तपस्या कर रहा था और इससे सवर्णों के तपस्या करने के एकाधिकार का हनन हो रहा था।
        - मुग़ल बादशाह को हराने के बाद शेरशाह सूरी जब दिल्ली की गद्दी पर बैठा तो कहते हैं कि सबसे पहले वह शाही बाग़ के तालाब में अपना चेहरा देखकर यह परखने गया कि उसका माथा बादशाहों जैसा चौड़ा है या नहीं !
जब शेरशाह से पूछा गया "आपके बादशाह बनने पर क्या-क्या किया जाय ?"
तब शेरशाह ने कहा "वही किया जाय जो बादशाह बनने पर किया जाता है!"
एक साधारण से ज़मीदार परिवार में जन्मा ये 'फ़रीद' जब हुमायूँ को हराकर 'बादशाह शेरशाह सूरी' बना तो उसने सबसे पहले यही सोचा कि उसका आचरण बिल्कुल बादशाहों जैसा ही हो। शेरशाह ने सड़कें, सराय, प्याऊ आदि विकास कार्य तो किए, लेकिन हिंदुओं पर लगने वाले कर 'जज़िया' को नहीं हटाया, क्योंकि अफ़ग़ानी सहयोगियों को ख़ुश रखना ज़्यादा ज़रूरी था।  
        - अब समकालीन परिस्थितियाँ देखें तो पता चलता है कि जो नेता गाँधी जी के आश्रम में बैठे उनके नये वक्तव्य को सुनने के लिए उनका मुँह ताका करते थे, वे ही नेता भारत के स्वतंत्र होते ही राजकाज में इतने व्यस्त हो गये कि अपनी उपेक्षा से अघाए गाँधी जी को कहना पड़ा कि मुझे दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया गया है।
        - आपातकाल के ख़िलाफ़ जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से जन्मी जनता पार्टी सरकार ने मात्र ढाई साल में ही दम तोड़ दिया। भारत की जनता ने बड़े आश्चर्य से अपने नेताओं को सत्ता के लिए नये नये झगड़ों में लिप्त देखा और जनता पार्टी की सरकार से जनता की यह उम्मीद कि देश में कोई ऐसा क्रांतिकारी परिवर्तन होगा, जिससे भारत की जनता की समृद्धि और विकास होगा, धरा का धरा रह गया। सत्ता प्राप्त करने से पहले जो उसूल और आदर्श निभाए जाते हैं, वे सत्ता प्राप्ति के बाद भी निभा पाना बहुत कठिन हो जाता है।
        - कहते हैं कि औरंगज़ेब ने मरने से पहले कुछ नसीहतें दी थीं। जिनमें से एक यह भी थी कि बादशाह को वादे करने तो चाहिए, लेकिन उन वादों को निबाहने की फ़िक्र करने की ज़रूरत बादशाह को नहीं है। सीधी सी बात है राजनीति का उद्देश्य होता है 'सत्ता' और सत्ता के रास्ते में अगर कोई जनता से किया हुआ वादा आता है तो वह वादा तो तोड़ा ही जायेगा न। भारत विभाजन के दौर में महात्मा गांधी ने कहा था कि मेरे शरीर के दो टुकड़े हो सकते हैं, लेकिन भारत के नहीं। भारत के दो नहीं बल्कि तीन टुकड़े हुए और गांधी जी देखते रहे।  
        - जब हम सड़क पर पैदल चल रहे होते हैं तो हम स्वत: ही पैदल चलने वालों के समूह के सदस्य होते हैं। हमारी सहज सहानुभूति पैदल चलने वालों की ओर रहती है और कार वालों का समूह हमें अपना नहीं लगता। हमें पैदल चलते समय सड़क पर चलती कारों और उनके मालिकों का अपने विरुद्ध प्रतीत होना स्वाभाविक ही है। जब हम कार में बैठे हों तो ऐसी इच्छा होती है कि काश ये पैदल, साइकिल, रिक्शा, तांगे न होते तो फर्राटे से हमारी कार जा सकती ! इस संबंध में एक क़िस्सा बहुत सही बैठता है-

        एक गाँव में भयंकर बाढ़ आ गई। चारों तरफ़ तबाही हो गई, तमाम मकान टूट गए। बढ़ते हुए पानी से बचने के लिए एक पुराने मज़बूत मकान की छत पर सैकड़ों गाँव वाले जा चढ़े। छत पर पहुँचने के सभी रास्ते बंद थे, सिर्फ़ एक बांस की सीढ़ी लगी हुई थी। उसी सीढ़ी से चढ़ कर गाँव का सरपंच भी छत पर पहुँच गया। ये सरपंच हमेशा समाज सुधार की बातें किया करता था, लेकिन छत पर आकर जब इसने सीढ़ी ऊपर खींच ली तो सबको आश्चर्य हुआ। उससे पूछा गया-
"सरपंच जी आपने ऐसा क्यों किया ? सीढ़ी ऊपर खींच ली तो अब और लोग कैसे चढ़ेंगे ?"
"तुम लोगों को मालूम नहीं है। यह मकान मेरी जानकारी में बना था और इसकी छत उतनी मज़बूत नहीं है जितना कि तुम समझ रहे हो, और अधिक लोग चढ़े तो बोझ ज़्यादा हो जाएगा और छत टूट जाएगी। इसलिए मैंने सीढ़ी खींच ली... न सीढ़ी दिखेगी और न कोई और चढ़ेगा" सरपंच ने समझाया।
        आपको ऐसा नहीं लगता कि इस गाँव का क़िस्सा असल में जगह-जगह रोज़ाना ही घटता है। कभी भीड़ भरी रेलगाड़ी में तो कभी बस में और सबसे ज़्यादा तो ज़िन्दगी में सफलता प्राप्त करने की दौड़ में। हर कोई जैसे सीढ़ी को छुपा देना चाहता है...

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...

-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक

 
प्यार की दरकार -आशीष शुक्ला
 

पूछ बैठा आज
अपने दिल से मैं ये
कौन कितना प्यार करता है
तुझे बे ?

चल मुझे भी तो बता दे प्यार क्या है ?
ज़िन्दगी में प्यार की दरकार क्या है ?

मेरे इस सवाल पर  चुप हो गया
ना जाने किस ख़याल में दिल खो गया
गहरी धड़कन धड़क कर
वो मुझसे बोला

क्या अजब सी बात तुमने पूछ डाली !
प्यार वो करते कहाँ जो हैं सवाली !

फिर भी तुम ये जान लो
और इस तरह से मान लो

कि

प्यार हसरत
प्यार वहशत
प्यार चाहत
कुछ नहीं है

प्यार मन्नत
प्यार फ़ुरकत
प्यार हरकत
भी नहीं है

प्यार श्रद्धा
प्यार इज़्ज़त
प्यार शिरकत
भी नहीं है

प्यार है
अनुभूतियों के
मौन का संवाद सा
जो निरंतर है बना
नेपथ्य में अवचेतना

यदि किसी ने प्यार के बदले में
माँगा प्यार भी
ध्यान रखना वो तो केवल
रूप है व्यापार का

प्यार पाना जिसकी चाहत
उसको ये मिलता कहाँ
प्यार करना जिसका मज़हब
उसने ही जीता जहाँ

  दिल को ही सुनाने दो –आशीष शुक्ला


गर जो गुमनाम हैं गुमनाम ही मर जाने दो
अब तो कोई और करो बात चलो जाने दो

          
दिल की सुनते हैं, जीते हैं अपनी शर्तों पे
          
शौक़ ए शौहरत है जिसे उसे ही कमाने दो

बात बन जाएगी कोई दिल जो हमें चाहेगा
जो भी अपना है उसे पास तो बुलाने दो

          
चंद तनहाई भरे लम्हे अपनी दौलत है
          
अब किसी यार से मिल के इसे लुटाने दो

ख़ुद ही कहते हैं ख़ुद से, ख़ुद ही सुनते हैं
दिल के नग़्में हैं इन्हें दिल को ही सुनाने दो

          
एक तो इश्क़ है, दूजा है ग़म जुदाई का
          
और कोई बात नहीं यही हैं फ़साने दो

किसी का तोड़ के दिल चैन कहाँ मिलता है
प्यार से मौत भी आए तो उसे आने दो

 

May 15, 2014

`प्रतिबद्धता के मामले में भारतीय कर्मचारी सबसे आगे`

नई दिल्ली : एक सर्वे में करीब आधे कर्मचारियों ने कहा है कि वे अपने मौजूदा नियोक्ता के साथ प्रतिबद्ध अथवा जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। ‘इंगेजिंग एक्टिव एंड पैसिव जाब सीकर्स’ शीषर्क से केली ग्लोबल वर्कफोर्स इंडेक्स के ताजा परिणाम के अनुसार देश में सर्वे में शामिल 41 प्रतिशत प्रतिभागियों ने कहा कि वे मौजूदा नियोक्ताओं के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं।

पूरे एशिया प्रशांत क्षेत्र में नियोक्ता से सर्वाधिक जुड़े कर्मचारी भारत और इंडोनेशिया में हैं। वहीं सबसे कम थाईलैंड तथा सिंगापुर में हैं। देश में 52 प्रतिशत कर्मचारियों ने कहा कि कार्यस्थल पर उन्हें लगता है कि उनका महत्व समझा जाता है। पिछले तीन साल से निरंतर यह स्तर बरकरार है।

केली सर्विसेज इंडिया के प्रबंध निदेशक कमल करांत ने कहा, नियोक्ताओं के लिये सबसे बड़ी चुनौतियों में एक उन कर्मचारियों में विश्वास बहाल करना है जो आथिर्क नरमी तथा नौकरी की अनिश्चितता के कारण प्रभावित हुये हैं। कर्मचारियों का जुड़ाव एक प्रमुख उपाय है जिसके जरिये प्रतिभा को कंपनी से जोड़े रखने में मदद मिलती है। सर्वे में 31 देशों के करीब 2,30,000 लोगों की प्रतिक्रिया ली गयी। इसमें मझोले स्तर से लेकर वरिष्ठ स्तर के 4,000 कर्मचारियों को शामिल किया गया।
मोदी के मैजिक का सीक्रेट वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स

एक पुरानी कहावत है कि लहरों के साथ तो कोई भी चल लेता है....लेकिन असल तैराक वो है जो लहरों को चीर कर आगे बढ़ता है...बचपन में वडनगर के तालाब में मगरमच्छों से लड़ते हुए मंदिर पर पताका फहराने की कहानी मोदी के बारे में कई बार कही और सुनी गई है... लेकिन ये बात 52 साल पहले की है...52 साल बाद मोदी ने खतरों से खेलते हुए रास्ता बनाने की अपनी उसी अदा को दोहराया है....तमाम एग्जिट पोल्स की रिपोर्ट्स जिन नतीजों का अनुमान लगा रही हैं उससे ये साफ है कि मोदी को दिल्ली के ताज तक पहुंचने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी है...जाहिर है अगर ऐसा हुआ तो इतिहास बनना तय है और चर्चा इस बात की भी होगी कि आखिर नरेन्द्र मोदी के लिए वो क्या फॉर्मूला रहा जिसने मोदी को चुनावी सियासत के सिर्फ 14 सालों में शिखर तक पहुंचा दिया, आखिर क्या है मोदी मैजिक का सीक्रेट।

तमाम एग्जिट पोल्स के आंकड़े ये गवाही दे रहे हैं कि देश में मोदी मैजिक चल गया है...अगर ये सच है तो फिर यकीनन उन वजहों की पड़ताल जरूरी है जिसके चलते मोदी का फैक्टर मैजिक में तब्दील हुआ...या यूं कहें कि लहर से सुनामी में बदल गया...सवाल ये है कि आखिर ऐसा क्या हुआ....जिसने महज 14 साल की चुनावी सियासत में मोदी को देश के सर्वोच्च पद का दावेदार बना दिया।

मोदी ने पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा तो सीधे मुख्यमंत्री का पद मिला...और पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा तो सीधे शीर्ष पद के दावेदार बन गए...सियासत में ऐसा नसीब शायद ही किसी को हासिल होता हो...लेकिन यहां बात सिर्फ किस्मत पर छोड़ दी जाए तो ये गैरवाजिब अन्याय होगा मोदी के उस सतत परिश्रम और रणनीति के साथ जब मोदी ने बिना अपनी निजी जिन्दगी की परवाह करते हुए पूरी जिंदगी बिता दी। 

दरअसल, मोदी नाम की लहर के निर्माण की प्रक्रिया में मोदी के मैजिक से जुड़े तमाम सवालों के जवाब छिपे हैं...वो प्रक्रिया जिसने ना सिर्फ बीजेपी के मृतप्राय पड़े संगठन में जान फूंक दी...बल्कि एक ऐसे चेहरे के सहारे सियासी दांव खेला जिसने तमाम विवादों से जूझते हुए अपनी उस कमजोरी को अपनी ताकत बना ली जिसके सहारे विरोधी ये उम्मीद पाले बैठे थे कि कम से कम हिन्दुस्तान की सियासत में परम्परावादी तरीकों से बनने वाली रणनीति में ये चेहरा कारगर साबित नहीं होगा...लेकिन कम से कम फिलहाल जो संभावनाएं बनती दिख रही हैं उनमें विरोधियों की तमाम रणनीतियां हवा हो चुकी हैं।

दरअसल, मोदी मैजिक के सीक्रेट को समझने के लिए मोदी के अतीत पर गौर करना होगा..वो अतीत जो आडवाणी की ऐतिहासिक रथयात्रा से जुड़ा है...जिसमें सारथी बने थे नरेन्द्र मोदी...वो अतीत जो मुरलीमनोहर जोशी की कन्याकुमारी से श्रीनगर की यात्रा से जुड़ा है जिसमें मोदी जोशी की जोड़ी ने लाल चौक पर तिरंगा फहराया था...वो अतीत जो 1995 की उस सांगठनिक क्षमता से जुड़ा जिसके चलते मोदी ने पहली बार गुजरात में केशुभाई पटेल के नेतृत्व में बनी सरकार के लिए बिसात बिछाई थी..वो अतीत जिसमें मोदी के अथक परिश्रम ने उन्हें संघ और पार्टी नेतृत्व का इतना प्रिय बना दिया कि 2001 में जब गुजरात में बीजेपी पर सियासी संकट गहराया तो उससे निपटने के लिए मोदी को आगे कर दिया गया।

दरअसल, मोदी के इस अतीत में ही वर्तमान की पृष्ठभूमि का अक्स दिखता है...चौबीसों घंटे बिना थके बिना रूके मेहनत करने का माद्दा...जिसे संघ ने हवा दी...2004 में मिली बीजेपी की करारी शिकस्त ने अगर संघ की सोशल इंजीनियरिंग का रास्ता खोला तो इसके लिए संघ के रडार पर आए सिर्फ नरेन्द्र मोदी...एक पिछड़े वर्ग के चेहरे, एक हिन्दुत्व के पैरोकार के चेहरे, एक विकास पुरुष के चेहरे और एक कभी ना थकने वाले निष्ठावान कार्यकर्ता के चेहरे के तौर पर...संघ के लिए मोदी उसके एजेंडे के हिसाब से फिट थे...तो संघ ने भी सीधी दखल शुरू कर दी...महाराष्ट्र के एक लो प्रोफाइल नेता नितिन गडकरी को बीजेपी का अध्यक्ष बनाना दरअसल संघ का लिटमस टेस्ट था जिसमें दिल्ली में बैठे पुराने धुरंधरों के लिए खतरे की घंटी पहले ही बजा दी थी...शायद गडकरी की कंपनी पूर्ति में कथित तौर पर गड़बड़ियों के आरोप और नितिन गडकरी का इस्तीफा नहीं हुआ होता तो मोदी की उम्मीदवारी के ऐलान के लिए अक्टूबर 2013 का इंतजार नहीं करना पड़ता...लेकिन जो भी हुआ वो संघ के रणनीति के मुताबिक था।

राम लहर में पूरी ताकत लगाने के बाद भी बीजेपी को खिचड़ी सरकार बनाने पर अगर मजबूर होना पड़ा तो इसका मतलब संघ को पता था...इसका मतलब था क्षेत्रीय ताकतों के वर्चस्व को तोड़े बगैर एजेंडा पूरा नहीं हो सकता...संघ को ये बात समझ में तो काफी पहले आ गई थी...लेकिन माया, मुलायम, नीतीश, लालू जैसे क्षेत्रीय धुरंधरों की ताकत का तोड़ उसे नही मिल रहा था...और जब तोड़ मिला तो लहर आई...लहर सुनामी में बदली और सबकुछ वैसे ही हुआ जैसी रणनीति बनाई गई थी।

2014 का चुनाव कई मायनों में अहम है...इस बार मतदान का भी रिकॉर्ड बना है...इस बार हर वोट बैंक में सेंध लगी है...मोदी में अगर पिछड़ों का स्वाभिमान दिखा है तो अतिपिछड़ों पर मायावती जैसे क्षत्रपों के एकाधिकार को चुनौती भी मिली है...विकास के रोडमैप को अगर नई पीढ़ी ने स्वीकारा है तो हिन्दुत्व के कॉकटेल ने उन कार्यकर्ताओं को उत्साहित किया है जो बीजेपी के कद पर हावी हुए एनडीए के दौर में उपेक्षित महसूस कर रहे थे...सही मायनों में अगर देखें तो मोदी मैजिक का सीक्रेट दरअसल वो प्लानिंग है...जिसे तैयार भले ही संघ ने किया था...लेकिन इसके लिए शायद मोदी से बेहतर और कोई चेहरा नहीं था।