Oct 26, 2015
Oct 11, 2015
उच्च
शिक्षा में गुणवत्ता का अभाव
आशीष
कुमार शुक्ला
भारत
के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी राष्ट्र चीन ने भविष्य की चुनौतियों का मुकाबला करने के
लिए उच्च शिक्षा में निवेश करना शुरू कर दिया है। भारत इसे लगातार नजरंदाज करता
रहा है। यह सोचकर कि भारतीय
विश्वविद्यालयों में विश्व स्तरीय शोध का अभाव ऐसी समस्या है जो खुद खत्म हो
जाएगी। आइआइटी और आइआइएम से भारत बहुत अच्छे इंजीनियर और मैनेजर पैदा कर रहा है। आगे
सिर्फ अमेरिका और चीन ही हैं। भारत हर साल 25 लाख स्नातक तैयार करता है, लेकिन यह संख्या भारतीय युवा वर्ग का महा दस फीसदी है और ऐसे स्नातकों की
गुणवत्ता भी अच्छी नहीं है। अगर आईआईटी, आईआईएम, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, इंडियन इंस्टीट्यूट
ऑफ साइंस और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च जैसे कुछ संस्थानों को छोड़ दें
तो बाकी संस्थान बढ़ते हुए भारत की नई उम्मीदों को पूरा करने में समर्थ नहीं हैं।
विश्वविद्यालय को शोध और बौद्धिक गतिविधियों का केंद्र होना चाहिए, लेकिन हमार ज्यादातर विश्वविद्यालय शोध के लिए नहीं राजनीति के लिए खबरों
में रहते हैं। बरसों तक हमने शिक्षा में निवेश नहीं किया, और
विश्वविद्यालयों को कामकाज देखे बिना लगातार उनकी मदद की इसकी वजह से वे न तो अपने
छात्रों को अच्छी शिक्षा देने की स्थिति में हैं और न ही महत्वपूर्ण शोध करने की।
भारत को तुरंत ही ऐसे विश्वविद्यालयों की जरूरत
है जिनकी शोध के लिए पूरी दुनिया में एक पहचान हो, ताकि
भारत दुनिया की नई ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में पूरा योगदान दे सके। यह बार-बार
कहा जाता है कि भारत में उच्च शिक्षा व्यवस्था के निजीकरण की प्रक्रिया चल रही है,
लेकिन यह शिक्षा व्यवस्था के लिए किसी व्यापक सुधार योजना का नतीजा नहीं है। यह सार्वजनिक क्षेत्र के बिखराव और मध्य वर्ग के
अपने हाथ खींच लेने का परिणाम है। भारत को यह महसूस करना होगा, कि ज्यादा पैसा
लगाकर या ज्यादा विश्वविद्यालय खोलकर शिक्षा व्यवस्था की इस सड़न का उपचार नहीं
किया जा सकता। नए विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय खोलने के लिए उनके ब्लू प्रिंट बनाना
जरूरी है लेकिन सिर्फ इसी से समस्या खत्म नहीं होगी। सारा
ध्यान नए विश्वविद्यालयों और उनके छात्रों की संख्या पर न देकर हमें उच्च शिक्षा
व्यवस्था के घटते स्तर की समस्या के समाधान पर देना होगा। उच्च शिक्षा के लक्ष्य को आर्थिक औजार बनाने तक
ही सीमित कर दिया गया है जोकि नहीं करना चाहिए।
उच्च
शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य यह भी नहीं होना चाहिए कि, ऐसे वैज्ञानिक और इंजीनियर
बनाए जाएं जो आगे जाकर चीन के साथ स्पर्धा कर सकें। उच्च शिक्षा को अगर जीवन के
उच्च मसलों की थाह लेने के बजाय रोगार की कुशलताओं तक ही सीमित कर दिया गया तो आगे
चलकर इसके नतीजे खतरनाक होंगे। देश को अपने लिए सीखने की ऐसी व्यवस्था बनानी ही
होगी जिसमें तत्काल फायदा भले ही कम हो, लेकिन उच्च शिक्षा के लिहाज से वह
महत्वपूर्ण हो। अगर शिक्षा का मुख्य मकसद छात्रों को आलोचनात्मक ढंग से सोचना
सिखाना उनकी बौद्धिक क्षमता को विस्तार देना और उनकी जागरूकता बढ़ाना है तो इस
लिहाज से अब तक की भारतीय उच्च शिक्षा पूरी तरह से नाकाम ही रही है।
वैश्विक वित्तीय सेवा कंपनी, एचएसबीसी के मुताबिक भारत में ऐसे माता-पिताओं की संख्या सबसे अधिक (88 प्रतिशत) है, जो अपने
बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजना चाहते हैं। इस लिहाज से भारत के बाद तुर्की (83 प्रतिशत), मलेशिया और चीन (82-82 प्रतिशत) का स्थान रहा। इसके मुकाबले ऑस्ट्रेलिया
काफी नीचे रहा, जहां 52 प्रतिशत माता-पिता स्नातकोत्तर के
लिए अपने बच्चों को विदेश भेजना चाहते
हैं। कनाडा और अमेरिका में यह अनुपात क्रमश: 53 प्रतिशत और 59 प्रतिशत रहा। रिपोर्ट में कहा गया कि भारतीय
माता-पिताओं के लिए बच्चों को शिक्षा ग्रहण के लिए विदेश भेजने में सबसे बड़ी बाधा है इसका खर्चीला होना, लेकिन वे अतिरिक्त प्रयास करने के लिए तैयार हैं। आज
हालात ये है की उच्च शिक्षा में गुणवत्ता का घोर अभाव है और ये बात व्यावसायिक क्षेत्र
चीख चीख कर कह रहा है कि, शिक्षण संस्थान काम करने योग्य मानव संसाधन देने में
पूर्णरूपेण अक्षम है। सरकारों का रवैया भी
उच्च शिक्षा को लेकर आज भी ढुलमुल ही बना हुआ है। उच्च-शिक्षा में कई नियामक संस्थान
की उपस्थिति है और शिक्षको की खाली सीटो का न भरा जाना समस्या के शीर्ष पर है ही
साथ में मूल्यपरक शोध का अभाव और कॉलेज नेता-गीरी और विश्वविद्यालय चुनाव के चलते
कक्षा-काक्ष वातावरण घुटन भरा है जहां शिक्षक-छात्र सम्बन्ध रोज तार तार होते है। राजनेता
चाहे दीक्षांत समारोह में न दिखे लेकिन, छात्र नेता के सपथ समारोह में अपनी
उपस्थिति जरूर दर्ज़ करते है। कई जगह सत्र परीक्षायें समय से पूर्ण नही हो रही है
तो नकल विहीन शिक्षा एक सपना बन कर रह गयी है।
सरकार
और निजी क्षेत्र को मिलकर इस बेहद जरूरी
क्षेत्र में बड़ी मात्रा में निवेश करना होगा और विश्वस्तरीय संरचनात्मक ढांचा
विकसित करने की आवश्यकता है। उच्चतम
श्रेणी के अर्थपूर्ण शोध और अनुसन्धान के साथ विद्वान् और समर्पित शिक्षकों को
आकर्षित करने के साथ सबसे जरूरी उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओ को काबिल बनाकर रोजगार
के संकट पर प्रहार करना होगा। युवाओं को नौकरी प्राप्त करने वाले कर्मचारी के साथ
उद्दमी और न्योक्ता बनने की काबलियत विकसित कर एक उत्साही माहौल विकसित करने पर
जोर होना चाहिए । क्योंकी मामला उच्च
शिक्षा का है और युवाओ के सपनों और देश की
उम्मीदों से सीधे तौर से जुड़ा है।
Oct 10, 2015
विश्व स्तर पर भारतीय शिक्षा व्यवस्था
किसी राष्ट्र
का निर्माण वहां के युवाओं और शिक्षा व्यवस्थाओं पर निर्भर होता है। लेकिन, इसमें
से अगर एक भी अपने पथ से भटक जाए तो उस राष्ट्र का समुचित विकास हो पाना संभव नहीं
हैं। चाहे वह किताना बड़ा राष्ट्र क्यों न हो। भारतीय उच्च शिक्षा की अगर हम बात
करें तो यह और देशों से अच्छी मानी जा सकती है किन्तु जब शैक्षणिकता के आधार पर हम
इसकी तुलना करने लगते हैं तब हमें परिणाम कुछ और ही मिलते हैं। देखा जाए तो संख्या की दृष्टि भारत की उच्चतर
शिक्षा व्यवस्था अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है। लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है तो दुनिया के
शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी
विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। इससे हम शैक्षिणकता का आकलन आसानी से कर सकते
हैं। “द टाइम्स
विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग” के अनुसार अमरीका का
केलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी सबसे ऊपर है। कुछ
तथ्यों के आधार पर अगर हम बात करें तो स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ- दस छात्रों में
से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है। भारत में
उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम
यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है। जबकि अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी का है।
अगर
भारत भी इस इस अनुपात को 15 फ़ीसदी यह इससे ज्यादा तक ले जाने के
लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश
करना होगा जबकि 11 वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933
करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया गया था। नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी
में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में
से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। जो की गंभीर चिंता का विषय हो
सकता है। राष्ट्रीय मूल्यांकन और
प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है, कि भारत के 90 फ़ीसदी
कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बेहद कमज़ोर
है। गौरवतलब है कि इसे सुधारने के लिए सरकार की तरफ से कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा
रहा है। भारतीय शिक्षण संस्थाओं में
शिक्षकों की कमी भी शैक्षिण स्तर की कमी का एक कारण माना जा सकता है। आईआईटी जैसे
प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी
शिक्षकों की कमी है। जिसे पूरा करने की आवश्यकता है। भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर
पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं, लेकिन तब भी ये मूल उद्देश्य
को पूरा करने में विफल रहते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि कई वर्षों से तकरीबन
33 फीसदी विश्वविद्यालयों में पाठ्क्रम बदला ही नहीं गया है। आज़ादी के पहले 50
सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड
विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। पिछले 16 वर्षों में 69
और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई। इस औसत को भी बढ़ाने की
जरूरत है। अगर इस औसत में सुधार किया जाए तो निश्चित रूप से उच्च शिक्षा में कुछ
अच्छे बदलाव आ सकते हैं। अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी
की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ़ प्रतिशत असामान्य हद तक
बढ़ जाता है। जिससे कई मेधावी छात्र जिनके
पास प्रयाप्त नंबर नहीं होता वह अच्छे शिक्षण संस्थान में दाखिला लेनें से वंचित
रह जाते है। सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या
करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से आज बढ़ रही है।
भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर
यानी करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि उन्हे
भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर समझ में नहीं आता है।
मैनेजमेंट
गुरु पीटर ड्रकर ने एलान किया था, कि "आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा
प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जाएगा दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन
किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस
तरह का है" भारत में शिक्षा क्षेत्र की बड़ी शख़्सियत और ज्ञान आयोग के
प्रमुख सैम पित्रोदा का भी कहना है, ''आजकल वैश्विक
अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और
संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है" इंफ़ोसिस के
प्रमुख नारायण मूर्ति ध्यान दिलाते हैं कि अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमरीका
ने सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र
में इतनी तरक्की की है। इस सबके पीछे वहाँ के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का
बहुत बड़ा हाथ है।
भारत
को भी इस ओर कदम बढ़ाना होगा। दुनिया भर
में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमरीका में
होते हैं। इसके ठीक विपरीत भारत से सिर्फ़
3 फ़ीसदी शोध पत्र ही प्रकाशित हो पाते हैं।
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के प्रमुख नंदन नीलेकणी कहते हैं कि भारत को अपने
डेमोग्राफ़िक लाभांश का फ़ायदा उठाना चाहिए।
इस समय
भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है। इनमें से 12
करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच की है। अगर इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाए तो ये
अपने बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं।
भारत
में कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों
से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। ''पुराना पाठ्यक्रम और ज़मीनी
हकीकतों से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को खत्म करने के लिए शायद काफी हैं। अगर सरकार
इस आंकड़े को नहीं सुधारेगी और ऐसे ही अपना ढ़ीला रवैया रखेगी तो भारतीय शिक्षा
व्यवस्था को सही कर पाना एक व्यापाक चुनौती बन जाएगी। और फिर इसे सही कर पाना मुंकिन न हो सकेगा। जाने माने शिक्षाविद प्रोफ़ेसर यशपाल कहते है
कि, शिक्षा में निजीकरण की ज़रूरत तो है लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिए। ''ये ना हो कि पहले शिक्षा
के क्षेत्र में निवेश करने वाला संस्था का कुलपति बने और फिर अपने 25 साल के लड़के को उसका उप कुलपति बनाए। "
Ashish kumar Shukla
आशीष कुमार शुक्ला
कार्यकारी संपादक लेबर निगरानी ब्यूरो
किसी राष्ट्र
का निर्माण वहां के युवाओं और शिक्षा व्यवस्थाओं पर निर्भर होता है। लेकिन, इसमें
से अगर एक भी अपने पथ से भटक जाए तो उस राष्ट्र का समुचित विकास हो पाना संभव नहीं
हैं। चाहे वह किताना बड़ा राष्ट्र क्यों न हो। भारतीय उच्च शिक्षा की अगर हम बात
करें तो यह और देशों से अच्छी मानी जा सकती है किन्तु जब शैक्षणिकता के आधार पर हम
इसकी तुलना करने लगते हैं तब हमें परिणाम कुछ और ही मिलते हैं। देखा जाए तो संख्या की दृष्टि भारत की उच्चतर
शिक्षा व्यवस्था अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है। लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है तो दुनिया के
शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी
विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। इससे हम शैक्षिणकता का आकलन आसानी से कर सकते
हैं। “द टाइम्स
विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग” के अनुसार अमरीका का
केलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी सबसे ऊपर है। कुछ
तथ्यों के आधार पर अगर हम बात करें तो स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ- दस छात्रों में
से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है। भारत में
उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम
यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है। जबकि अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी का है।
अगर
भारत भी इस इस अनुपात को 15 फ़ीसदी यह इससे ज्यादा तक ले जाने के
लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश
करना होगा जबकि 11 वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933
करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया गया था। नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी
में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में
से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। जो की गंभीर चिंता का विषय हो
सकता है। राष्ट्रीय मूल्यांकन और
प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है, कि भारत के 90 फ़ीसदी
कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बेहद कमज़ोर
है। गौरवतलब है कि इसे सुधारने के लिए सरकार की तरफ से कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा
रहा है। भारतीय शिक्षण संस्थाओं में
शिक्षकों की कमी भी शैक्षिण स्तर की कमी का एक कारण माना जा सकता है। आईआईटी जैसे
प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी
शिक्षकों की कमी है। जिसे पूरा करने की आवश्यकता है। भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर
पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं, लेकिन तब भी ये मूल उद्देश्य
को पूरा करने में विफल रहते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि कई वर्षों से तकरीबन
33 फीसदी विश्वविद्यालयों में पाठ्क्रम बदला ही नहीं गया है। आज़ादी के पहले 50
सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड
विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। पिछले 16 वर्षों में 69
और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई। इस औसत को भी बढ़ाने की
जरूरत है। अगर इस औसत में सुधार किया जाए तो निश्चित रूप से उच्च शिक्षा में कुछ
अच्छे बदलाव आ सकते हैं। अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी
की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ़ प्रतिशत असामान्य हद तक
बढ़ जाता है। जिससे कई मेधावी छात्र जिनके
पास प्रयाप्त नंबर नहीं होता वह अच्छे शिक्षण संस्थान में दाखिला लेनें से वंचित
रह जाते है। सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या
करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से आज बढ़ रही है।
भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर
यानी करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि उन्हे
भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर समझ में नहीं आता है।
मैनेजमेंट
गुरु पीटर ड्रकर ने एलान किया था, कि "आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा
प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जाएगा दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन
किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस
तरह का है" भारत में शिक्षा क्षेत्र की बड़ी शख़्सियत और ज्ञान आयोग के
प्रमुख सैम पित्रोदा का भी कहना है, ''आजकल वैश्विक
अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और
संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है" इंफ़ोसिस के
प्रमुख नारायण मूर्ति ध्यान दिलाते हैं कि अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमरीका
ने सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र
में इतनी तरक्की की है। इस सबके पीछे वहाँ के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का
बहुत बड़ा हाथ है।
भारत
को भी इस ओर कदम बढ़ाना होगा। दुनिया भर
में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमरीका में
होते हैं। इसके ठीक विपरीत भारत से सिर्फ़
3 फ़ीसदी शोध पत्र ही प्रकाशित हो पाते हैं।
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के प्रमुख नंदन नीलेकणी कहते हैं कि भारत को अपने
डेमोग्राफ़िक लाभांश का फ़ायदा उठाना चाहिए।
इस समय
भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है। इनमें से 12
करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच की है। अगर इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाए तो ये
अपने बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं।
भारत
में कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों
से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। ''पुराना पाठ्यक्रम और ज़मीनी
हकीकतों से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को खत्म करने के लिए शायद काफी हैं। अगर सरकार
इस आंकड़े को नहीं सुधारेगी और ऐसे ही अपना ढ़ीला रवैया रखेगी तो भारतीय शिक्षा
व्यवस्था को सही कर पाना एक व्यापाक चुनौती बन जाएगी। और फिर इसे सही कर पाना मुंकिन न हो सकेगा। जाने माने शिक्षाविद प्रोफ़ेसर यशपाल कहते है
कि, शिक्षा में निजीकरण की ज़रूरत तो है लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिए। ''ये ना हो कि पहले शिक्षा
के क्षेत्र में निवेश करने वाला संस्था का कुलपति बने और फिर अपने 25 साल के लड़के को उसका उप कुलपति बनाए। "
Ashish kumar Shukla
आशीष कुमार शुक्ला
कार्यकारी संपादक लेबर निगरानी ब्यूरो
Oct 7, 2015
Oct 5, 2015
कहीं हम भी ईराक और
सीरिया न बन जाएं?
देश में जब-जब चुनाव नजदीक आता है, तब-तब सांप्रदायिक दंगे होने लगते हैं इन दंगो में हिन्दू
और मुस्लमान समुदाय को धर्म और जाति के आधार पर निशाना बनाया जाता है। समाज सदियों
से इस तरह की साजिशों का शिकार रहा है यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर हमारा समाज जल्द ही इन साजिश से बाहर
नहीं निकला तो आने वालें समय में इसकी स्थिति कितनी खतरनाक होगी इसका अनुमान दादरी
जैसे कांड से लगाया जा सकता है।
दादरी के बिसाहड़ा गांव
में गत 28
सितम्बर की रात गांव के 14-15 लोग हाथों में लाठी, डंडा, भाला और तमंचा लेकर गाली- गलौज करते हुए फिल्मी अंदाज में
दरवाजे को धक्का मारकर एक मुस्लमान के घर में घुसते हैं और एक व्यक्ति को
पीट-पीटकर जान से मार डालते हैं। इन्हें खब़र मिली है कि बगल वाले मुसलमान परिवार
के यहां गाय का मांस रखा है। मांस किसका है? अगर है तो कहां से आया? क्यों आया? इनपर यह भीड़ थोड़ा भी विचार नहीं करती वह बस जान लेने के
मकसद से आयी हैं। यह भीड़ एक व्यक्ति की जान ले लेती है। इन लोगों ने यह कांड इस लिए किया क्योंकि इनके
धर्म को ठेस पहुंचानें की ख़बर इन्हें मिली। धर्म की रक्षा हर हाल में करनी चाहिए, लेकिन मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं होता अगर यह बात भीड़
समझ पाती तो शायद एक व्यक्ति की जान बच जाती। हमेशा जब इस तरह की घटनायें घटतीं
हैं तो,
इसका फायदा राजनीतिक पार्टियों को ही मिलता है। अखलाक की हत्या के पीछे राजनीतिक फायदा लेने की
जद्दोजहद सभी राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं, आपने आपके दयालु, सर्वश्रेठ साबित करने के लिए वह कितना भी मुवाबजा और अन्य
तरह की मदद देनें के लिए तैयार हैं। हमेशा से लोगों के जज्बात भड़काकर वोट हासिल
करने की राजनीति होती आई है और यही वो पार्टियां हैं जो लोगों को भड़काती आई
हैं। जिस तरह से आज ऐसी घटनायें तेजी से
बढ़ रही हैं यह धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए गंभीर चिंता का विषय
है। भारत जहां सैकड़ों सालों से अलग-अलग धर्मों को मानने वाले समुदायों के बीच
एक-दूसरे की संस्कृति का आदर करने की परंपरा रही है। जहां जल्द ही यह घटना हई
बिसारा गांव दोनों समुदायों के लोग कई पीढ़ियों से साथ रह रहे हैं, लेकिन ऐसी घटना कभी नहीं हुई। सवाल यह उठता है कि,अचानक ऐसा क्यों हुआ। क्या अचानक लोगों के बीच से मानवता
खत्म हो गयी। पिछले कुछ समय से लगातार
भिन्न संप्रदायों के बीच शक और तनाव बनाए रखने की जैसी कोशिश चल रही है, हिंदुत्व के नाम पर जैसी राजनीति चल रही है और बहुत मामूली
बातों को तूल देकर हिंसा भड़काने की कोशिश की जा रही है, उसके चलते सहज तरीके से जीवन गुजारने में यकीन रखने वाले
लोगों के बीच भी दूसरे समुदायों को लेकर दूरियां आज तेजी से बढ़ रही हैं। अगर आप
थोड़ा गौर करगें तो आपको एक खास तरह का आक्रामक माहौल बनता हुआ नज़र आयेगा। अब तो
किसी अफवाह के आधार पर भी दो समुदायों के बीच हिंसा भड़क उठती है या फिर किसी
सामान्य विवाद को भी सांप्रदायिक रंग दे दिया जाता है। निश्चित रूप से इस स्थिति
के लिए अपनी राजनीति चमकाने वाले वे समूह जिम्मेदार हैं, जो धार्मिक ध्रुवीकरण के बूते अपने पांव फैलाना चाहते हैं।
उन्हें शायद इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जमीनी स्तर पर समाज के ताने-बाने पर
इसका कितना गहरा और दीर्घकालिक असर पड़ता है। विडंबना है कि सरकारों की नींद तब
खुलती है,
जब मामला हाथ से निकलने लगता है। भारत जैसे देश में ऐसी
स्थिति की कल्पना भी दुखद है कि हर धार्मिक समुदाय को एक-दूसरे पर शक, भय और असुरक्षा के बीच जीना पड़े। ऐसी नकारात्मक राजनीति
करने वाले दल और सरकारें अगर समय रहते नहीं चेतीं, तो सामाजिक सद्भाव और देश की एकता का अंत निश्चित हो जाएगा।
समाज में जब सद्भावना व्याप्त रहेगी तभी हमारा राष्ट्र विश्व स्तर पर अपनी पहचान
बना पाएगा। और हम संस्कृति और सभ्यता के
लिए जाने जाते रहेंगे। लेकिन अगर ऐसे सांप्रदायिक दंगे फसाद होते रहेंगे, जाति-धर्म मजहब के
आधार पर हम लड़ते रहेंगे तो आने वाले समय में हमारी स्थिति भी निश्चित रूप से
सीरिया और ईराक जैसी हो जाएगी।
Ashish kumar shukla Editor Laboure Nigrani Bureo
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