Oct 10, 2015

विश्व स्तर पर भारतीय शिक्षा व्यवस्था




किसी राष्ट्र का निर्माण वहां के युवाओं और शिक्षा व्यवस्थाओं पर निर्भर होता है। लेकिन, इसमें से अगर एक भी अपने पथ से भटक जाए तो उस राष्ट्र का समुचित विकास हो पाना संभव नहीं हैं। चाहे वह किताना बड़ा राष्ट्र क्यों न हो। भारतीय उच्च शिक्षा की अगर हम बात करें तो यह और देशों से अच्छी मानी जा सकती है किन्तु जब शैक्षणिकता के आधार पर हम इसकी तुलना करने लगते हैं तब हमें परिणाम कुछ और ही मिलते हैं।  देखा जाए तो संख्या की दृष्टि भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है।  लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है तो दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। इससे हम शैक्षिणकता का आकलन आसानी से कर सकते हैं।  द टाइम्स विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग  के अनुसार अमरीका का केलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी सबसे ऊपर है।   कुछ तथ्यों के आधार पर अगर हम बात करें तो स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ- दस छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है।  भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है।  जबकि अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी का  है।  
अगर भारत भी इस इस अनुपात को 15 फ़ीसदी यह इससे ज्यादा तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा जबकि 11 वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933 करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया गया था।  नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। जो की गंभीर चिंता का विषय हो सकता है।  राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है, कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बेहद कमज़ोर है। गौरवतलब है कि इसे सुधारने के लिए सरकार की तरफ से कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है।  भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी भी शैक्षिण स्तर की कमी का एक कारण माना जा सकता है। आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है। जिसे पूरा करने की आवश्यकता है। भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं, लेकिन तब भी ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि कई वर्षों से तकरीबन 33 फीसदी विश्वविद्यालयों में पाठ्क्रम बदला ही नहीं गया है। आज़ादी के पहले 50 सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई। इस औसत को भी बढ़ाने की जरूरत है। अगर इस औसत में सुधार किया जाए तो निश्चित रूप से उच्च शिक्षा में कुछ अच्छे बदलाव आ सकते हैं। अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ़ प्रतिशत असामान्य हद तक बढ़ जाता है।  जिससे कई मेधावी छात्र जिनके पास प्रयाप्त नंबर नहीं होता वह अच्छे शिक्षण संस्थान में दाखिला लेनें से वंचित रह जाते है। सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से आज बढ़ रही है।  भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि उन्हे भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर समझ में नहीं आता है।
मैनेजमेंट गुरु पीटर ड्रकर ने एलान किया था, कि "आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जाएगा दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है" भारत में शिक्षा क्षेत्र की बड़ी शख़्सियत और ज्ञान आयोग के प्रमुख सैम पित्रोदा का भी कहना है, ''आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है" इंफ़ोसिस के प्रमुख नारायण मूर्ति ध्यान दिलाते हैं कि अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमरीका ने सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इतनी तरक्की की है। इस सबके पीछे वहाँ के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का बहुत बड़ा हाथ है।
भारत को भी इस ओर कदम बढ़ाना होगा।  दुनिया भर में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमरीका में होते हैं।  इसके ठीक विपरीत भारत से सिर्फ़ 3 फ़ीसदी शोध पत्र ही प्रकाशित हो पाते हैं। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के प्रमुख नंदन नीलेकणी कहते हैं कि भारत को अपने डेमोग्राफ़िक लाभांश का फ़ायदा उठाना चाहिए।
इस समय भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है। इनमें से 12 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच की है। अगर इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाए तो ये अपने बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं।  
भारत में कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है।  ''पुराना पाठ्यक्रम और ज़मीनी हकीकतों से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को खत्म करने के लिए शायद काफी हैं। अगर सरकार इस आंकड़े को नहीं सुधारेगी और ऐसे ही अपना ढ़ीला रवैया रखेगी तो भारतीय शिक्षा व्यवस्था को सही कर पाना एक व्यापाक चुनौती बन जाएगी। और  फिर इसे सही कर पाना मुंकिन न हो सकेगा।  जाने माने शिक्षाविद प्रोफ़ेसर यशपाल कहते है कि, शिक्षा में निजीकरण की ज़रूरत तो है लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिए।  ''ये ना हो कि पहले शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने वाला संस्था का कुलपति बने और फिर अपने 25 साल के लड़के को उसका उप कुलपति बनाए। "
Ashish kumar Shukla 
आशीष कुमार शुक्ला
कार्यकारी संपादक लेबर निगरानी ब्यूरो

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