आरक्षण यह अराजकता ?
आरक्षण की आग, शुरूआत या खात्मा
आज गुजरात में जिस तरह
से पटेल समुदाय आरक्षण की मांग को लेकर हिंसात्मक प्रदर्शन कर रहा है, यह ना सिर्फ
सामाजिक बल्कि संवैधानिक रूप से भी गलत है। किसी को अपनी बात रखने का संविधान
अधिकार तो देता है किन्तु, जिस तरह इसका उपयोग किया जा रहा है यह देश के लिए खतरा
हो सकता है।
गुजरात राज्य में आरक्षण की लपट अब आग मे तब्दील होती नज़र आ रही है। पटेल
समुदाय लगातार आरक्षण की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहा है। पटेल समुदाय की यह लपट
अहमदाबाद, सूरत, मेहसाणा, राजकोट और कई अन्य जिलों तक पहुंच चुकी है। अब यह धीरे-धीर
आग में तब्दील हो रही है करीब 7 लोग अब तक पुलिस फायरिंग में अपनी जान गवां चुके
हैं। हिंसा बढ़ने का यह भी एक कारण हो सकता है।
करीब 13 सालों के बाद गुजारत में कर्फ्यु लगाया
गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के लोगों को शांति बनाये रखने की
अपील की है, किन्तु उससे भी कोई फर्क
पड़ता नजर नहीं आ रहा है। आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि, पटेल समुदाय एकदम से आरक्षण
मांग के लिए अफरातफरी करने लगा है। कहीं यह राजनीति की चिंगारी तो नहीं? आपको बता दे कि, यह वही पटेल समुदाय है जो गुजरात के 40 प्रतिशत औद्योगिक
सेक्टर पर काबिज है। गुजरात की कुल आबादी 6.27 करोड़ है, जिसमें से 20 प्रतिशत की
आबादी पटेल समुदाय की है। सवाल यह खड़ा हो रहा है कि, 20 प्रतिशत पटेल समुदाय खुद
को को ‘ओबीसी’ में क्यों शामिल करवाना चाहती है।
आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है
जिसे वंचित समाज पाना चाहता है और अगर उसे नहीं मिलता है तो वह इसका डट कर विरोध
करता है। आरक्षण संबंधित कानूनों पर अगर नज़र ड़ाले तो भारत का संविधान नागरिकों को समानता का
अधिकार देता है। अनुच्छेद 14 में समानता के अधिकार की व्याख्या स्पष्ट की गयी है। संविधान
में दो अलग-अलग भागों में आरक्षण और सकारात्मक विशेष उपायों से संबंधित प्रावधान
दिए गए हैं। संविधान का भाग सोलह, जिसमें अनुच्छेद 330 से लेकर
अनुच्छेद 342 तक के प्रावधान शामिल हैं। जब आरक्षण संविधान लागू
हुआ तो इसे अगले दस वर्ष तक जारी रहना था, लेकिन अब लगातार
बढ़ते-बढ़ते इसकी समय-सीमा वर्ष 2020 तक बढ़ा दी गई है। अनुसूचित
जातियों और जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों और पदोन्नति में आरक्षण का
प्रावधान भी संविधान के भाग सोलह में किया गया है। आरक्षण से संबंधित दूसरे प्रकार
के प्रावधान संविधान के भाग तीन में किए गए हैं। संविधान के इस भाग में नागरिकों
के मौलिक अधिकारों के साथ अनुसूचित जातियों, जनजातियों और
सामाजिक एंव शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश और
नौकरियों में प्रतिनिधित्व देने के उद्देश्य से विशेष प्रावधान करने की बात कही गई
है। इन विशेष प्रावधानों की प्रकृति को समझना जरूरी है। इन विशेष प्रावधानों को
आरक्षण कहना ठीक नहीं है। आरक्षण और विशेष प्रावधानों में अंतर है। जबकि विशेष
प्रावधान सरकार के सकारात्मक सोच का प्रतिफल होते हैं। अधिकार कानून के माध्यम से
हासिल किए जा सकते हैं, जबकि विशेष प्रावधान सरकार के विवेकाधीन होते हैं जिन्हें
पाने के लिए सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 15 (5)
के अनुसार सरकार सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों का सरकारी सहायता
प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रावधान कर सकती
है। ऐसा करना जरूरी नहीं है, पर अगर सरकार करना चाहे तो इसकी
मनाही भी नहीं है। आंकड़ों और सर्वेक्षण के अभाव में जाति को ही सामाजिक और
शैक्षणिक पिछड़ेपन का आधार मान लिया गया है। इसलिए पिछड़े वर्ग के लिए किए गए
प्रावधानों का लाभ उठाने की होड़ जातियों में लग गई। संविधान के अनुच्छेद 16(4)
में व्यवस्था है कि, सरकार पिछड़े वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों
में प्रतिनिधित्व देने के लिए विशेष प्रावधान कर सकती है, अगर
इन वर्गों का इन नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व न हो।
आज
गुजरात में जिस तरह से पटेल समुदाय आरक्षण की मांग को लेकर हिंसात्मक प्रदर्शन कर
रहा है यह गलत है। किसी को भी अपनी बात रखने का संविधान में अधिकार तो है किन्तु,
इसका गलता इस्तेमाल करना देश के लिए खतरा हो सकता है। आरक्षण जैसे गंभीर मुद्दे पर
देश की किसी भी पार्टियों को राजनीति ना करके इसपर गहन विचार करने की आवश्यकता है।
जब तक इसपर राजनीति होती रहेगी, तब तक जनता इसमें पिसती रहेगी। सुप्रीम कोर्ट को
इसपर विचार करना चाहिए और अगर कोई पार्टी आरक्षण जैसे मुद्दे पर आपने वोट बैंक सेंकना
चाहे तो उसपर कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। जब तक ऐसी व्यवस्था नहीं हो जाती तब-तक
ऐसी समस्यायें देश के सामने मुह बाकर खड़ी मिलेंगी।
(यह
लेखक के अपने विचार हैं, लेखक लेबर निगरानी ब्यूरो समाचार पत्र में कार्यकारी संपादक है)






