Jan 27, 2015








जम्मू-कश्मीर में धारा 370 क्यों…..?
आशीष शुक्ला

आए दिन धारा 370  सुर्खियों टीवी चैनलों में रहता है। जब- जब भारत में चुनावी डंका बजाता है, तब-तब इसपर जोरदार बहस छिड़ती है। सारी पार्टियां इसे हटवाने का दावा करती हैं, परन्तु चुनाव खत्म होने के बाद इस पर बात करना भी मुनासिब नहीं समझती। अन्य सभी राज्यों में लागू होने वाले कानून यहां लागू नहीं होते। धारा 370 भारतीय संघ के भीतर जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिलाती है। अनुच्छेद 370 की वजह  से जम्मू- कश्मीर का अपना अलग झंडा और प्रतीक चिन्ह है। यहां ना  तो केंद्र का  कानून  चलता  है, और ना ही भारत का संविधान । यही नहीं अगर कोई भारतीय नागरिक जम्मू-कश्मीर के किसी लड़की से विवाह करता है, तो ना सिर्फ उस  लड़की  की नागरिकता खत्म हो जाती है, बल्कि लड़के को भी वहां की नागरिकता नहीं प्राप्त होती । परन्तु अगर कोई पॉकिस्तानी नागरिक विवाह  करता है तो, उसे जम्मू-कश्मीर  की नागरिकता प्राप्त हो जाती है।
भारत सरकार केवल रक्षा, विदेश नीति, वित्त और संचार जैसे मामलों में यहां दखल दे सकती है। इसके अलावा संघ और समवर्ती सूची के तहत आने वालों विषयों पर केंद्र सरकार कानून नहीं बना सकती। राज्य की नागरिकता, प्रॉपर्टी की ओनरशिप और अन्य सभी मौलिक अधिकार राज्य के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। इन मामलों में किसी तरह का कानून बनाने से पहले भारतीय संसद को राज्य की अनुमति लेनी जरूरी है। अलग प्रॉपर्टी ओनरशिप होने की वजह से किसी दूसरे राज्य का भारतीय नागरिक जम्मू-कश्मीर में जमीन या अन्य प्रॉपर्टी नहीं खरीद सकता। आजादी के वक्त जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं था। ऐसे में राज्य के पास दो विकल्प थे या तो वह भारत में शामिल हो जाएं या फिर पाकिस्तान में । जम्मू कश्मीर की अधिकतर जनता पाक में शामिल होना चाहती थी लेकिन तत्कालीन शासक हरि सिंह का झुकाव भारत की तरफ था। हरी सिंह ने भारत में राज्य का विलय करने की सोची और विलय करते वक्त उन्होंने "इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेंशन" नाम के दस्तावेज पर साइन किए थे। जिसका खाका शेख अब्दुल्ला ने तैयार किया था। जिसके बाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दे दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान अपनी सभाओं में धारा 370 को हटवाने की बात करते नजर आये थे। इससे पहले भी कई पार्टियों ने इसे हटवाने के वायदे किये, परन्तु नाकाम रही। अभी तक प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी इसे हटाने पर विचार तक नहीं कर पाए हैं। इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो हम पाएंगे कि भाजपा का इसे हटाने का रुख 50 के दशक की शुरुआत से ही रहा है। तब भाजपा 'भारतीय जन संघ' के नाम से जानी जाती थी। 'भारतीय जन संघ' के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने धारा 370 के खिलाफ लड़ाई लड़ने का बीड़ा उठाया था, परन्तु वह नाकाम रहे। तब से अब तक भाजपा ने धारा 370 का लगातार विरोध किया है और इसको निरस्त किए जाने की मांग पर अटल रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि, आज भाजपा पूर्ण बहुमत पाने के बाद भी संसद में इसे हटवाने पर विचार तक नहीं कर रही है। वैसे तो भारत में एकल नागरिकता का प्रावधान है, परन्तु जम्मू-कश्मीर में भारत का संविधान लागू नहीं होता हैं। जिसके चलते यहां दोहरी नागरिकता का प्रावधान है। आजादी के वक्त जम्मू-कश्मीर की अलग संविधान सभा ने वहां का संविधान बनाया था। अनुच्छेद 370(ए) में प्रदत्त अधिकारों के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के अनुमोदन के बाद 17 नवम्बर 1952 को भारत के राष्ट्रपति ने अनुच्छेद-370 के राज्य में लागू होने का आदेश दिया तब से लेकर अब तक यह लागू है। हालांकि अनुच्छेद 370 में समय के साथ-साथ कई बदलाव भी किए गए हैं। 1965 तक वहां राज्यपाल और मुख्यमंत्री नहीं होता था। उनकी जगह सदर-ए-रियासत और प्रधानमंत्री हुआ करता था। जिसे बाद में बदला गया। इसके अलावा पहले जम्मू-कश्मीर में भारतीय नागरिक जाता तो उसे अपना साथ पहचान-पत्र रखना जरूरी था। जिसका बाद में काफी विरोध हुआ। विरोध होने के बाद इस प्रावधान को हटा दिया गया। 1976 का शहरी भूमि कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता। इसके तहत भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कहीं भी भूमि खरीदने का अधिकार है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते हैं। भारतीय संविधान की अनुच्छेद 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती। तमाम अटकलों और बिड़मनाओं के बावजूद, इस पर सरकार द्वारा कोई भी कदम ना उठाया जाना चिंता की बात है। आज जम्मू-कश्मीर को इतनी अटकलों के बाद कैसे समृद्ध राज्य बनाया जा सकता है, यह बात वहां की जनता और नागरिकों को यह  खुद सोचना चाहिए। क्योंकि जब तक वहां पर भारत का संपूर्ण संविधान, कानून नहीं लागू होगा तब तक भारत सरकार की विभिन्न योजनाओं का लाभ जो सरकार देश के लिए बनाती है उसके फायदे जम्मू-कश्मीर को कैसे मिलेंगे। मैं सोचता हूं की आज भारत देश के अन्य नागरिकों को जितनी फिर्क हो रही है जम्मू-कश्मीर की उससे कहीं ज्यादा वहां के निवासियों को होनी चाहिए। उन्हे चाहिए की वह अनुच्छेद 370 का खुल कर विरोध करें और जम्मू-कश्मीर को संपूर्ण भारतीय राज्य का दर्जा दिलायें।

"यह लेखक के अपने विचार हैं"

क्या नेहरू गलत थे.....?

आशीष शुक्ला

इलाहाबाद में जन्मे स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, माना जाता है की नेहरू कश्मीरी वंश के सारस्वत ब्राह्मण थे। वे थे भारत के परन्तु उनकी स्कूली शिक्षा ट्रिनिटी कॉलज से और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से लॉ की उपाधि प्राप्त की। वे इंग्लैंड में सात साल रहे और वहां के फैबियन समाजवाद और आयरिश राष्ट्रवाद के लिए एक तर्कसंगत दृष्टिकोण विकसित किया। जब वे इंग्लैंड से भारत आये तो पेशे से वकील थे राजनीति में उनका पर्दापण महत्मा गांधी के संपर्क में आने से हुआ। जब वे गांधी से मिले, गांधी ने उस समय नेरॉलेट अधिनियम के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था। नेहरू, महात्मा गांधी के सक्रिय शांतिपूर्णसविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति खासे प्रभावित हुए।

नेहरू ने महात्मा गांधी के उपदेशों के अनुसार अपने परिवार को भी ढाल लिया। उन्होंने महेंगे कीमती कपडों और संपत्ति का त्याग कर दिया। दिसम्बर 1929 मे, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया गया जिसमें उन्हे कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। इसी सत्र में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की गई। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया।

सन् 1947 में जब भारत आजाद हुआ तब भावी प्रधानमंत्री के लिये कांग्रेस में मतदान कराया गया, जिसमें  सरदार पटेल को सर्वाधिक मत मिले। उसके बाद सर्वाधिक मत आचार्य कृपलानी को मिले। परन्तु महत्मा गांधी के आग्रह पर सरदार पटेल और आचार्य कृपलानी ने अपना नाम वापस ले लिया, जिसके चलते नेहरू प्रधानमंत्री बने।

अंग्रेजों ने करीब 500 देशी रियासतों को एक साथ स्वतंत्र किया था। और उस वक्त सबसे बडी चुनौती थी उन्हें झंडे के नीचे लाना। उन्होंने भारत के पुनर्गठन के रास्ते में उभरी हर चुनौती का समझदारी पूर्वक सामना किया। नेहरू ने जोसिप बरोज टिटो और अब्दुल गमाल नासिर के साथ मिलकर एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के खात्मे के लिए एक गुट निरपेक्ष आंदोलन की रचना की। वह कोरियाई युद्ध का अंत करनेस्वेज नहर विवाद सुलझाने और कांगो समझौते को मूर्तरूप देने जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में मध्यस्थ की भूमिका में रहे। पश्चिम बर्लिन, ऑस्ट्रेलिया और लाओस जैसे कई अन्य विस्फोटक मुद्दों के समाधान में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। अब बात करते हैं द्बितीय विश्वयुद्ध की, जब यह युद्ध हुआ तब भारत को उन शक्तियों की तरफ से लड़ने के लिए विवश किया गया था, जिसमें भारत की मर्जी की बात शामिल नहीं थी। हालांकि, नेहरू खुद निष्ठापूर्वक द्बितीय महायुद्ध की धुरी शक्तियों  के खिलाफ थे, लेकिन भारत के पास और कोई चुनने का विकल्प ना था। इससे भी महत्पवूर्ण बात यह कि उसे किसी भी सैन्य गठबंधन में जूनियर पार्टनर की तरह देखा गया। इसी वक्त, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच जारी शीतयुद्ध के साए में नए गठबंधन आकार ले रहे थे। नेहरू इस मामले में स्पष्ट थे कि दुनिया के दो शक्तिशाली ताकतों के उदय के बीच भारत के पास अपने हितों को लेकर खुद की समझ होनी चाहिए।

नेहरू पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के संबंधों में सुधार नहीं कर पाए। पाकिस्तान के साथ एक समझौते तक पहुँचने में कश्मीर मुद्दा और चीन के साथ मित्रता में सीमा विवाद रास्ते के पत्थर साबित हुए। नेहरू ने चीन की तरफ मित्रता का हाथ भी बढाया, लेकिन 1962 में चीन ने धोखे से आक्रमण कर दिया जिसमे भारत की शर्मनाक हार हुई। ऐसा माना जाता है कि उस समय के तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को गलत सलाह दी।

मेनन साम्यवादी विचारों के समर्थक थे, और उनके चीन से बहुत नजदीकी रिस्ते थे कुल मिलाकर ज्यादा वह चीन का ही सपोर्ट करते थे। आस्ट्रेलियाई पत्रकार नेवेली मैक्सवेल ने संभवत: ठीक ही कहा है कि कृष्णा मेनन ने पंडित नेहरू को गुमराह किया जिसके कारण नेहरू चीन की धोखेबाजी को समझ नहीं सके। चाउ-एन-लाई हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते रहे। नेहरू उन पर आंख मूंदकर विश्वास करते रहे, और नेहरू को भ्रम में रखकर चीन ने भारत की हजारों किलोमीटर जमीन हड़प ली जिसे उसने आज तक वापस नहीं किया।

इतिहास की विडंबना है कि नेहरू कालान्तर में युगांतरकारी के स्थान पर व्यवस्था के प्रतीक बन गए और व्यवस्था परिवर्तन के लिए नेहरू को ध्वस्त करना अनिवार्य शर्त बन गयी। लोहिया ने भारतीय जनतंत्र में नवजीवन के रास्ते में नेहरू को सबसे बड़ी बाधा माना और उसे हटाने के लिए वे किसी हद तक जाने को तैयार थे। यह काफी दिलचस्प है कि भारत की हर समस्या के लिए उन्हें ही जिम्मेदार माना जाता है। चाहे वह कश्मीर का अनसुलझा प्रश्न हो या उत्तरपूर्व के तनाव हों, निरक्षरता हो या हिन्दू वृद्धि दर, भारत में समाजवाद का आने से इनकार।

 नेहरू ने अमरीका और रूस से अलग रास्ता बनाने की कोशिश की और गुट निपरेक्ष देशों का संगठन बनाया नेहरू निःसंकोच भाव से खुद को गांधी युग की सन्तान कहते थे। वे मूलतः अहिंसा में विश्वास करने वाले अंतर्राष्ट्रीयतावादी थे।  नेहरू का बड़ा योगदान सांस्थानिक प्रक्रियाओं को स्थापित करने का है। दूसरा, धर्म, जाति पर टिकी सामुदायिकता को नई कॉस्मोपॉलिटन साहचर्य की ओर उन्मुख करने का। तीसरे किसी आत्मग्रस्तता से मुक्त हो अन्य की अन्यता ही नहीं उसकी अनन्यता को आदर देना सीखने के लिए प्रवृत्त करने का। 

नेहरू द्वारा लिए गए कुछ फैसले जो आज भी भारत के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। कश्मीर के महाराजा हरी सिंह ने बिना किसी शर्त के अपनी रियासत का भारत में विलय का प्रस्ताव कर दिया था, परन्तु नेहरू ने उस प्रस्ताव पर शेख अब्दुल्ला की सहमति जरूरी बताया, उन्होंने 1948 में भारत-पाक की जंग के बीच अचानक सीजफायर का एलान कर भी कर दिया जो कि गलत फैसला था। नेहरू का एक बड़ा संघर्ष वैज्ञानिक संवेदना को सामाजिक संवेदनतंत्र से अभिन्न करने का था। यह विज्ञानवाद न था। इसका अर्थ मात्र वैज्ञानिक आविष्कार और अधुनातन टेक्नॉलोजी तक सीमित न था।  दरअसल, विश्लेषणात्मकता और आलोचनात्मकता को सामाजिक प्रवृत्ति के घटक तत्त्व बनाने का संघर्ष था। यह धर्म का सामाजिक चेतना से अपसरण न था, न समाज को परंपरा से उखाड़ देने का उद्धतपन, जैसा आशीष नंदी मानते हैं।  

भारत ने जिस अंतराष्ट्रीय स्थिति में स्वतंत्रता हासिल की, गुटनिरपेक्षता उसकी प्रतिक्रिया थी। कई लेखक मानते हैं कि नेहरू भले ही शेख अब्दुल्ला की मित्रता के प्रति भावुक थे, परन्तु शेख ने हमेसा उनकी मित्रता को अपनी लम्बी रणनीति के तहत इस्तेमाल किया। जब भारत की विजय-वाहिनी सेनाएं कबाइलियों को खदेड़ रही थीं तब बारहमूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया, परन्तु नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया। परिणाम-स्वरूप कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के पास रह गए। उन्होंने माउन्टबेटन की सलाह पर नेहरू एक जनवरी, 1948 को कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ले गए।
नेहरू ने देश के अनेक नेताओं के विरोध के बाद भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा 370 जुड़ गई। न्यायाधीश डी.डी. बसु ने इस धारा को असंवैधानिक तथा राजनीति से प्रेरित बतलाया। डा. भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रधानमंत्री नेहरू ने रियासत राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा 17 अक्तूबर, 1949 को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई।

यह लेख इतिहास के मौजूदा तथ्यों का अध्यन करने के पश्चात लिखा गया है, इसमें विभिन्न लेखकों के कहे विचार और धारणाओं को समाहित किया गया है। किसी भी गलती-विवाद के लिए इतिहास जिम्मेदार होगा। आप अपने विचार निर्भय होकर साझा कर सकते हैं।

(यह लेखक के अपने विचार हैं)


Jan 17, 2015

दिल्ली समय हिन्दी समाचार चैनल के संपादक मनोज मनू जी से भेटर्वाता के महत्वपूर्ण तथ्य। 

आशीष शुक्ला-  
1. आपने अपनी शिक्षा कहां से प्राप्त की?

उत्तर-  मैंने अपना स्नातक जिवाजी विश्वविद्दलय ग्वालिर से की, यही से मैंने वॉयलोजी से वीएससी की उपाधि पाप्त की मैंने पत्रकिरिता के क्षेत्र मे कोई पढ़ाई नही की

2. मीड़िया में आपके करियर की शुरुआत कैसे हुई। यह एक संयोग था या आपने इस क्षेत्र ही करियर बनाने का फैसला किया था?

उत्तर- मेंरे मीड़िया करियर की शुरूआत बहुत ही रोचक है, मैं अखबार में कार्टूनिस्ट था। मैं पहले अखबार के लिए कार्य करता था इलेक्टॉनिक मीड़िय में आने से पहले मैंने कई अखबारो में काम किया। मैं बीएससी प्रथम वर्ष से ही मीड़िया में किसी ना किसी माध्यम से जुड़ा रहा मीड़िया में आने का मेरा भरपूर मन रहा क्योकि इसी से जुड़कर मैं समाज को शायद बहुत करीब से देख सकता था।

3. आपको पत्रकारिता में किन-किन कठिनाइयो का सामना करना पड़ा अपनी संघर्ष यात्रा के बारे में बताए

उत्तर- मैने कभी अपने जीवन में संघर्ष नही किया और मुझे किसी भी परेशानियो का सामना बिलकुल नही करना पड़ा पर मैं अपने कार्य के प्रति हमेशा सचेत रहता थाऔर हर एक कार्य को सूसंगठित ढ़ग से करना मेरी आदत थी कभी मैने पीछे मुड़कर नही देखा बस करता गया शायद किसमत नें भी मेंरा भरपूर साथ दिया।

4. आप रिपेर्टिंग और एंकरिग में से किसें बेहतर मानते हैं और क्यो?

उत्तर- दोनो माध्यम का अपना अपना महत्व है, पर रिपोर्टर अगर एंकर बनता है तो ज्यादा अच्छा अनुभव होता है, जिससे उसे विशेष फायदे मिलते हैं। इसलिए मैं कहुंगा कि सबसे पहले एक पत्रकार बनना चाहिए इससे हम विशेष लाभ पाप्त कर सकते हैं।

5. प्रिंट और इलेंक्ट्रानिक में से कौन सा माध्यम उपयुक्त है और क्यों?

उत्तर- दोनो माध्यमो का अपना अपना विशेष महत्व है, इनकी अपनी अपनी पहचान है। प्रिंट मीड़िया मे हमे अखबार के माध्यम से दिन में घटित घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करते हैं, वही इलेक्टॉंनिक मीड़िया घटना के घटित होने के कुछ चन्द मिनटो में ही चैनल के माध्यम से खबरों को प्रसारित कर देता हैं। यह समय की बचत करता है इसे एक सामान्य व्यक्ति आसानी से समझ सकता है, कही ना कही जनसंचार का बेहतर माध्यम है।

6. पत्रकारिता में आपके प्रेरणा स्रोत कौन हैं। और आपकी कामयाबी का राज क्या है?

उत्तर- मेरे प्रेरणा स्रोत कोई नही है, मैंने खुद अपने बलबूतो पर अपनी पहचान मीड़िया में बनाई है। जो कुछ किया खुद किया मैं कभी दूसरे के सहारे नही रहा जो कुछ हूँ खुद की की मेहनत की वजह से हूँ।  

7. क्या आज का मीड़िया बाजारवाद की दौंड़ में अपनें तय नैंतिक सिद्धाथो को भूल चुका है?

उत्तर- अखबारो में टीवी में बाजारवाद का दबाव होता है। मीड़िय अपने कार्य को करना बाखूबी जानता है। क्या करना है क्या यह नही यह इन्हे बतौर पता है, किसी को बताने की जरुरत नही है। मीड़िया के लिए विज्ञापन का होना बहोत जरुरी होता है। ऐसा नही है कि अपने सिद्धातो को भूल चुका है, यह आज भी एक वाच डाग की तरह अपने कार्य को कर रहा है।  

8. चौथें स्तभ के रुप में प्रतिष्ठित हमारा मीड़िया क्या अपने पेशे के साध न्याय कर पा रहा हैं?

उत्तर- यह एक संक्रमण काल है युक्ति में समाज में देश में राजनीति में नेताओ में परिस्थिति में मथन चल रहा है। जिसमे से विष भी निकलेगा और अमृति भी। मीड़िया देश मे चल रही घटना का विवरण पेश करती है, कही ना कही यह सत-प्रतिशत न्याय नही कर पा रही। यह संक्रमण काल है कोई भी अपने मार्ग से वंछित हो सकता हैं।

9. टीवी माध्यम में नाटकीयता बहुत बढ़ गई है, इसपर आपका क्या विचार है?

उत्तर- लोग जो देखना चाहते हैं हम वही दिखाते हैं, नाटकीयता बढ़ी जरुर है पर इसका कई तरह से उपयोग किया जा सकता है। आज जिस तरह अच्छे अच्छे प्रोग्राम चैनलों पर दिखाये जाते हैं इसका मुख्य मकसद है, लोगो को जागरुक करने का। प्रोग्राम के माध्यम से लोगो तक बहोत सारी जानकारी पहुचाई जाती है, हम नाटक के माध्यम से सच्चाई को काफी हद तक दिखा सकते हैं। यही कारणा हैं कि चैनलों पर नाटकीयता को कफी महत्व दिया जाता है।

10. मीड़िया में कुछ चुनिदा को ही फॉले-अप दिखाया जाता है ऐसा क्यों?

उत्तर- जो दिखता है वही विकता है जिस चीज को जन्ता देखना चाहती है वही हम दिखाते हैं। जैसे आज नरेंद्र मोदी की रैली में ज्यादा भीड़ होती है, और राहुल में कम यही कारण है। जब तक चैंनल को टीआरपी नही मिलेगी तब तक चैंनल को नही चलाया जा सकता क्योकि जबतक नम्बर्स नही मिलेगे तब तक कुछ नही हो सकता।  चैनल कुछ भी दिखाता है सोच समझ कर दिखाता है। ज्यादा लोग जिस चीज को देखना पसंद करेगें तो चैंनल की टीआरपी बढ़ेगी जो कि चैनल के लिए महत्वपूर्ण है। क्योकि मीड़िया की पूरी टीम इसी पर आधारित है।

11. पत्रकिता के क्षेत्र में कदम रखने वाले विद्दर्थीयो को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

उत्तर- लगे रहो मुन्ना भाई रास्ता कठिन है पर मंजिल को पाया जा सकता है। लगातार अपने काम के प्रति सचेत रहें आज कम्पटिसन बहोत बढ़ गया है। आपनी पहचान बनाने के लिए खुद आपना इतिहास लिखना होता है। मन का मनोबल उपर रखे अगर आप अच्छा कर रहे हैं तो आपको उसका फल अवश्य मिलेंगा। जितना ज्यादा प्रेक्टिकल कर लोगो उतना ज्यादा अनुभव प्राप्त होगा इसलिए पढ़ई के साथसाथ जितना हो सके इस कार्य से जुड़े पहलुओं पर ध्यान दे टैंलेट की कदर हर जगह है। अगर ऐसा करने में आप संक्षम हैं तो अवश्य ही बहुत आगे तक जाएगें। बस जरुरत है लगे रहने की।   

Jan 16, 2015


भ्रूण हत्यायें क्यों.....?

आशीष शुक्ला
 इस आधुनिक युग में, पढ़े- लिखे समाज में आज भी जन्म से पहले लड़कियों को मारने की प्रथा भारत में जिस तरह से विद्यमान है यह काफी शर्म की बात है। आखिर क्यों लोग आज लड़के और लड़कियों में भेद-भाव करते हैं, क्या लड़कियों को जीने का अधिकार नहीं है। आखिर कब तक लड़कियों की गर्भ में हत्या होती रहेंगी। लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या तेजी से घट रही है जो गंभीर चिंता का विषय है। 1981 की जनगणना में लड़कियों की संख्या 1000 लड़कों के मुकाबले 960 थी परंतु 2011 के जनगणना में यह गिरकर 939 हो गई है। कन्या जिसे लक्ष्मी का स्वारूप माना जाता है, आखिर उन्हें ही लोग अपने हाथों से खत्म करनें पर क्यों तुले हैं”?

महिलाओं और पुरुषों के बीच भेदभाव यानी माँ के गर्भ में बच्चे की लैंगिक जाँच कराने की तकनीक आने के बाद ही भ्रूण हत्यायें होनी शुरू हुई। लड़कियों को जन्म से पहले मारने की प्रथा धीरे-धीरे उन जगहों पर भी प्रचलित हो रही है जो अब तक इससे बचे हुए थे। पहले यह कुछ ही शहरों तक सीमित था परन्तु अब इसका विस्तार हो चुका है। हरियाणा, दिल्ली, और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है। इस परंपरा के वाहक अशिक्षित व निम्न व मध्यम वर्ग ही नहीं है बल्कि उच्च  शिक्षित समाज भी हैं। भारत के सबसे समृद्ध राज्यों पंजाब, 2001 की जनगणना के अनुसार एक हजार बालकों पर बालिकाओं की संख्या 798, हरियाणा में 819 और गुजरात में 883 थी, परन्तु कुछ राज्यों में अनुपात में सुधार हुआ है। छत्तीसगढ़ राज्य में 1000 पुरूषों के मुकबले 991 है, 2001 में  यह 989 था। कुछ अन्य राज्यों ने इस प्रवृत्ति को गंभीरता से लिया और इसे रोकने के लिए अनेक कदम उठाए है। भारत में पिछले चार दशकों से सात साल से कम आयु के बच्चों के लिंग अनुपात में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष 1981 में एक हजार बालकों पर 962 बालिकाएँ थी। वर्ष  2001 में यह अनुपात घटकर 927 हो गया था, परन्तु 2011 के जनसंख्या में कुछ हद तक सुधरा है। अब 1000 परूषों के मुकाबले 939 लड़कियां हैं। वर्तमान समय में इस समस्या को दूर करने के लिए सामाजिक जागरूकता बढाने के लिए साथ-साथ प्रसव से पूर्व तकनीकी जांच अधिनियम को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। जीवन बचाने वाली आधुनिक प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग रोकने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए। उन्नत कहलाने वाले राजों में ही नहीं बल्कि प्रगतिशील समाज में भी लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है। स्वास्थ्य विभाग को इस पर सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। प्रसूति पूर्व जांच तकनीक अधिनियम 1994 को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। हो रहे इस अत्याचार के विरुद्ध देश के प्रत्येक नागरिकों को आगे आने की जरूरत है। बालिकाओं के सशक्तिकरण में हर प्रकार का सहयोग देने की जरूरत है। लड़कियों के प्रति इस नकारात्मक स्वभाव के गंभीर सामाजिक और अन्य प्रभाव हो सकते हैं। गर्भपात कराने से औरतों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। यदि महिलाओं की संख्या यूँ ही घटती रही तो, महिलाओं के खिलाफ हिंसात्मक घटनाऐं बढ़ जाएंगी। भ्रण हत्या जैसे अक्षमीय अपराध को लेकर सरकार पहले से कुछ हद गंभीर है, परन्तु जितना होना चाहिए उतना नहीं। अगर यह अपराध ऐसे ही होते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब विवाह के लिए उसका अपहरण किया जाएगा, उसकी इज्ज़त को तार-तार किया जाएगा, उसे ज़बरदस्ती एक से अधिक पुरूषों की पत्नी बनना पड़ेगा। केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों ने अब तक महिलाओं के विकास के लिए किसी खास योजना की घोषणा नहीं की है लेकिन महिला उत्थान के लिए काम कर रहें संगठनों ने पहले से ज्यादा गंभीरता दिखाई है। सरकार पर दवाब लगातार बढ़ रहा है जिससे कुछ ठोस नतीजा निकलने की उम्मीद की जा सकती है, परन्तु क्या मौजूदा सरकार इस शर्मसार करने वाले अपराध पर रोक लगा पाएगी? यह भविष्य बताएगा। हलांकि मौजूदा सरकार जिस तरह से कार्य कर रहे है इससे कुछ ठोस कदम उठाये जाने की उम्मीद की जा सकती है। अगर महिलाओं के खिलाफ नकारात्मक रुझान को खत्म करना है तो उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना जरूरी है। जब तक वह आत्मनिर्भर नहीं होगीं तब तक ऐसे अपराधों को खत्म कर पाना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है।

(यह लेखक के अपने विचार हैं)



बहुत हुआ अब और नहीं

आशीष शुक्ला
आज जिस तरह से महिलाओं का शोषण किया जा रहा है, यह सिर्फ असहनिय नहीं है, बल्कि यह हमारी संस्कृति, सभ्यता का खात्मा करने के लिए काफी है। महिला आजादी के बाद भी स्वतंत्र नहीं है। ना सिर्फ बाहर उसका शोषण किया जाता है, बल्कि अब वह घर में भी अपने आपको असुरक्षित समझती हैं। घर से निकलने के लिए कई बार सेचती है। उसे डर है कि कही कोई हैवान उसकी इज्जत-आबरू को तार-तार ना कर दे। अब यह शर्मसार करने वाला मुद्दा ही नहीं रहा बल्कि यह भारत सहित कई अन्य देशों की सबसे बड़ी समस्या बन चुका है।
शास्त्रों में कहा गया है, कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहां देवताओं का निवास होता है। जहां देवताओं का निवास होता है उस घर में सुख-समृद्धि और खुशहाली बनी रहती है। इसलिए जरूरी है कि महिलाओं को सम्मान और आदर प्राप्त हो, परन्तु आज ऐसा बिलकुल नहीं है। महिलाओं के साथ रोजाना बस और ट्रेन में  छेड़छाड़ जैसी शर्मनाक घटनाएं सामने आती रहती हैं। दिल्ली 16 दिसबंर एक युवती से चलती बस में हुए गैंगरेप के बाद भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध पर जोरदार राष्ट्रीय बहस हुई। परन्तु उसका क्या हुआ, आज जिस तरह से महिलाओं की सुरंक्षा पर ध्यान दिया जा रहा है, किसी से छिपा नहीं है। महिलाओं की सुरंक्षा के लिए सरकार ने कई कानून बनाये परन्तु उनको सही से अमल में नहीं लाया जा रहा। व्यापक तौर पर, भारत की वैश्विक छवि (व्यापक गरीबी से लेकर तकनीक कुशलता और बॉलीवुड संस्कृति के जश्न तक) इसकी आधी आबादी द्वारा प्रतिदिन झेले जाने वाले दबाव और धमकियों की व्याख्या से धूमिल हो रही है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा का मुद्दा सिर्फ भारत तक केंद्रित नहीं है, बल्कि पूरे विश्व की समस्या है। महिला थाने में दर्ज होने वाले आपराधिक प्रकरणों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। दिल्ली पुलिस की रिपोर्ट में बताया गया था कि अक्टूबर 2014 तक रेप के 1330 मामले, जबकि छेड़छाड़ के 2844 मामले सामने आए थे। राष्ट्रीय राजधानी में महिलाओं के खिलाफ अपराध में साल 2013 के मुकाबले 2014 में 18.3 फीसदी, दुष्कर्म के मामले में 31.6 फीसदी, की वृद्धि हुई थी। 15 दिसंबर तक भारतीय दंड संहिता (आपीसी) की विभिन्न धाराओं के तहत साल 2014 में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के 14,687 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2013 में यह आंकड़ा 12,410 था।
आंकड़ों में यह खुलासा हुआ है कि साल 2014 में दुष्कर्म के 2,069 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2013 में यह आंकड़ा 1,571 था। राजधानी में छेड़छाड़ के साल 2013 के 3,345 मामलों की तुलना में 2014 में 4179 मामले दर्ज किए गए। साल 2014 में उत्पीड़न के 1,282 मामले सामने आए थे, जबकि 2014 में यह आंकड़ा 879 था। साल 2014 में दहेज हत्या के 147 मामले सामने आए, जबकि 2013 में यह आंकड़ा 137 था। मौजूदा आंकड़े भारत में महिलाओं  के साथ हो रहे अत्याचार को बताने के लिए काफी हैं। महिलाओं एवं बच्चों के खिलाफ अपराध से जुड़े मामलों की तेजी से सुनवाई के लिए त्वरित निपटान अदालत समेत अन्य अदालातों का गठन करना भारत के संविधान के तहत राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इस संबंध में त्वरित निपटान अदालत गठित करने में उच्च न्यायालयों की मदद करनी चाहिए। यदि महिलाएं अपने को सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं तो समाज का बना ताना-बाना टूट जाता है। यह एक मानवाधिकार का मुद्दा है, पुरुषों एवं महिलाओं को इस अन्याय के खिलाफ लड़ना चाहिए। और इसका समाधान ढूंढने के लिए एक साथ खड़े होना चाहिए। हमें विश्व स्तर पर हाथ मिलाकर मानवीय मूल्यों को पुन: स्थापित करने के लिए और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और दुर्व्यवहार को रोकने के लिए मिलकर आवाज उठाने की आवश्यकता है। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या कम करने के लिए समाज को मानसिकता बदलने की जरूरत भी है।

(यह के अपने विचार हैं,)

Jan 9, 2015

बाल श्रम गंभीर चिंता का विषय....

आशीष शुक्ला

आज़ादी को 68 साल हो गये  परन्तु क्या आज व्यक्ति सच में आजाद है यह गंभीर चिंतन का विषय है। बाल मजदूरी,बधुंआ मजदूरी आज भी हमारे समाज में विद्यमान है जो अत्यधिक लज्जा का विषय है, सरकार इससे निपटने का पूरा प्रयास कर रही है, परन्तु लगातार नाकाम हो रही है। जिसका बहुत बड़ा कारण यह  है, कि बहुत से गरीब परिवार अपने बच्चों के मजदूरी के सहारे ही अपना जीवन यापन कर रहे हैं।

दुनिया में लगभग २.५ करोड बच्चे, जिनकी आयु २-१७ साल के बीच है वे बाल-श्रम में लिप्त हैं, बाल श्रम कृषि निर्वाह और शहरों के अन-औपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं, भारत और बंग्लादेश सहित कई देशों में आज भी बाल श्रम व्यापक रूप से विद्यमान है। देश के कानून के अनुसार १४ वर्ष से कम आयु के बच्चे काम नही कर सकते, फिर भी मौजूदा कानून को नजरअंदाज किया जा रहा है। आज स्थिति तो यह है कि ११ साल जैसे छोटी उम्र के बच्चे २० घंटे तक एक दिन में काम कर रहे हैं। जो की भारत के भविष्य का खात्मा करने के लिए काफी है।  बाल मजदूरी औद्योगिक क्रांति के आरम्भ के साथ प्रारंभ हुई। देश के समक्ष बालश्रम की समस्या एक चुनौती बनती जा रही है। सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए कई गंभीर कदम उठाये हैं। समस्या के विस्तार और गंभीरता को देखते हुए इसे एक सामाजिक-आर्थिक समस्या मानी जा सकती है। जो चेतना की कमी, गरीबी और निरक्षरता से जुड़ी हुई है। 1979 में भारत सरकार ने बाल-मज़दूरी की समस्या और उससे निज़ात दिलाने हेतु उपाय सुझाने के लिए 'गुरुपाद स्वामी समिति' का गठन किया था। समिति ने समस्या का विस्तार से अध्ययन किया और अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की। बच्चों का नियोजन इसलिए किया जाता है, क्योंकि उनका आसानी से शोषण किया जा सकता है। संविधान के मौलिक अधिकार में यह बताया गया है, कि 14 साल से कम उम्र का कोई भी बच्चा किसी फैक्टरी या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया जायेगा और न ही किसी अन्य खतरनाक नियोजन में नियुक्त किया जायेगा, परंतु आज जो लोग बाल मजदूरी करवाते हैं उनके लिए ना मौजूदा कानून मायने रखता और ना ही संविधान। दुनिया में जितने बाल श्रमिक हैं, उनमें सबसे ज्यादा बाल श्रमिक भारत में हैं। अनुमान है कि दुनिया के बाल श्रमिकों का एक तिहाई हिस्सा भारत में है। इस स्थिति का परिणाम बहुत व्यापक है। इसका मतलब यह है कि इस देश के करीब 50 प्रतिशत बच्चे बचपन के अधिकारों से वंचित हैं और वे अनपढ़ कामगार ही बने रहेंगे और उन्हें अपनी सच्ची क्षमताएँ हासिल करने का कोई मौका नहीं मिलेगा। ऐसी स्थिति में कोई भी देश कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल करने की उम्मीद कैसे कर सकता है।
देश में बाल श्रम की स्थिति की विडम्बना यह है कि यह मान ही लिया जाता है कि हर मजदूर इसलिये काम कर रहा है कि यह उसके परिवार के जिन्दा रहने का मामला है। लेकिन यह गरीबी की दलील का अत्यन्त कपटपूर्ण पहलू है। सच्चाई से इतना दूर और कुछ हो ही नहीं सकता। गरीबी की दलील’’ और शिक्षा की अप्रासंगिकता की अवधारणा ने बाल श्रम और शिक्षा से संबधित सरकारी कार्यक्रम बनने में मुख्य भूमिका अदा की है। बच्चे किसी देश या समाज की महत्वपूर्ण सम्पति होते हैं, जिनकी समुचित सुरक्षा, पालन-पोषण, शिक्षा एवं विकास का दायित्व भी राष्ट्र और समुदाय का होता हैं।  जहाँ एक ओर बाल कल्याण से संबन्धित अनेक विषयों पर विश्व जनमत गंभीरता से सोच रहा है, वहीं दूसरी ओर बाल श्रमिकों की समस्या भी तेजी से बढ़ रही है। विशेषकर विकासशील दिशों में यह समस्या अधिक विकराल रूप में दृष्टिगत हो रही है। आज विश्व में लगभग 25 करोड़ बाल श्रमिक हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के रिपोर्ट के अनुसार भारत में बाल मजदूरों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। भारत में अनुमानत: बाल श्रमिकों की संख्या 440 लाख से 1000 लाख तक है, किन्तु अधिकृत रूप से इनकी संख्या 17.5 लाख बताई गई है। समस्त विश्व के 25 करोड़ बाल श्रमिकों में से मात्र भारत में ही इसके एक तिहाई बाल श्रमिक हैं। कुल बाल श्रमिकों का 30 प्रतिशत खेतिहर मजदूर तथा 30-35 प्रतिशत कल कारखानों में कार्यरत हैं। शेष भाग पत्थर खदानों, चाय की दूकानों, ढाबों तथा रेस्टोरेंट एवं घरेलू कार्यों में लगे हुए हैं, एवं गुलामों जैसा जीवन जी रहे हैं। बाल श्रमिकों के वर्त्तमान आंकड़े यह प्रदर्शित करते हैं कि कृषि क्षेत्र में 1 करोड़ 22 लाख, जम्मू कश्मीर के कालीन उद्योग में 1 लाख शिवकासी के आतिशबाजी और माचिस उद्योग में 1 लाख बच्चे, फिरोजाबाद के कांच उद्योग में 1 लाख बच्चे आगरा और कानपुर के चर्म उद्योग में 30 हजार बच्चे, लखनऊ में चिकन के काम में 50 हजार, बच्चे, भदोही के कालीन उद्योग में 1 लाख 25 हजार बच्चे, सहारनपुर के लकड़ी के उद्योग में 10 हजार बच्चे तथा मिर्जापुर में 8 हजार बच्चे एवं वाराणसी के रेशम उद्योग में 5 हजार बच्चे बाल श्रमिक के रूप में कार्यरत हैं। हमारे समाज में चली आ रही शोषण परम्परा का बाल मजदूरी एक अभिन्न अंग बनता जा रहा है, यह औद्योगिकरण की प्रक्रिया से उभरे मालिक मजदूर समीकरण का विस्तार है। वैसे तो दुनिया के अन्य देशों में भी यह एक विकट समस्या का रूप ले चुका है। लेकिन भारत में इसका रूप कुछ और ही भयावह है। बाल मजदूरी करवाने वालों के लिए कानून में निम्न प्रावधान हैं। काम करवाने वाले मालिक को तीन महीने से एक साल तक की कैद वह दस हजार से बीस हजार तक का जुर्माना देना पड़  सकता है। परन्तु जो व्यक्ति बाल मजदूरी करवाने का साहस कर सकता है उसके लिए इतनी सजा कफी है, यह विचार करनें लायक है। जब तक सरकार इस पर गहन विचार करके इसमें कोई बदलाव नहीं करती शायद तब तक बाल मजदूरी को नहीं रोका जा सकता। सरकार को मौजूदा सजा नीति को बदलना चाहिए। जब बाल मजदूरी करवाने वालों को किसी बड़ी सजा का भय नहीं होगा तब तक वह ऐसे ही बाल मजदूरी करवाते रहेगें। इस समस्या से समाधान पाने हेतु समाज के सभी वर्गों को सामूहिक प्रयास करना होगा तभी भारत को बाल श्रम मुक्त बनाया जा सकता है।

(यह लेखक के अपनें विचार हैं)

Jan 7, 2015

चिंता का विषय .....आज भी भारत आशिक्षा युक्त क्यों....?


Jan 6, 2015

कब आशिक्षा मुक्त होगा भारत .....?



आशीष शुक्ला


प्रशिक्षित युवाओं की आवश्यकता देश में भी है और विदेश में भी उनकी मांग लगातार बढ़ रही है। परन्तु आज के इस आधुनिक युग में जिस तरह से शिक्षा का स्तर मात्र दिखावे के के लिए ऊंचा किया जा रहा है यह काफी गंभीर चिंता का विषय है। मौजूदा शिक्षा नीति भी अच्छी है, और शिक्षा का स्तर भी परन्तु आज भी कई ऐसे विद्यालय हैं जहां नकल का बोल-बाला अपनी चरम सीमा पर है। यही कारण है कि डिग्री होने के बावजूद आज का युवा बेरोजगार घूम रहा है। 

भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है। इनमें से 12 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच है। अगर इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाए तो ये अपने बल-बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं। कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। ''पुराना पाठ्यक्रम और जमीनी हकीकतों से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को मारने के लिए काफी हैं। शिक्षा में निजीकरण की जरूरत है, लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिए। आम धारणा ये है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है। हर साल भारतीय स्कूलों से पास होने वाले छात्रों में महज 15 फीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएं, यह सुनिश्चित करने के लिए पूरे भारत में 1500 नए विश्वविद्यालय खोले जाने की जरूरत पड़ेगी। इस सबके लिए धन सिर्फ निजी क्षेत्र से आ सकता है। स्कूलों में अध्यापकों की कमी एक बिकट समस्या है। पिछड़े क्षेत्रों में अध्यापकों की कमी बहुत ज्यादा है। अनुमान है कि 7.74 लाख अध्यापकों के पास पढ़ाने के लिए जरूरी योग्यता नहीं है। विद्यालयों की बढ़ती संख्या यह तो बताती है कि हाल के वर्षों में शिखा की मांग काफी बढ़ी है। दूसरी  तरफ सरकार गुणवत्ता वाली शिक्षा देने में नाकाम  साबित हो रही है। ऐसे में सबसे पहले शिक्षकों और कक्षाओं की संख्या बढ़ानी होगी। सरकार शिक्षा सुधार का काम काफी धीमी गति से कर रही है। दसवीं कक्षा के लिए निरंतर और विस्तृत मूल्यांकन प्रणाली का मामला है। इसके लिए ऑडियो विजुअल तरीके अपनाने जैसी नई शिक्षा सुविधाओं को अपनाने की जरूरत है। यह प्रणाली बहुत आधुनिक है लेकिन यह उस भारतीय व्यवस्था से मेल नहीं खाती जहां छात्र अध्यापक अनुपात दुरुस्त नहीं है। किसी भी सरकार, खास कर विकासशील देश की सरकार के लिए ये संभव नहीं है कि वो मौजूदा 300 विश्वविद्यालयों को ढंग से चला पाए। यह तभी संभव है जब वित्तीय मापदंडों को दरकिनार कर दिया जाए या उच्चतर शिक्षा को घटिया दर्जे का बना दिया जाए। विशेषज्ञों की राय है कि 'रन ऑफ़ द मिल' यानी बने बनाए ढर्रे पर स्नातक पैदा करने की प्रवृत्ति से जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए उतना ही अच्छा है। आजकल का सबसे प्रचलित जुमला है नौकरी से जुड़े कोर्स। फैसला लेने वालों के बीच वोकेशनल शिक्षा या व्यावसायिक शिक्षा का वो रुतबा अब नहीं रहा क्योंकि इसके साथ ये बट्टा लगा हुआ है कि ये पढ़ाई में पीछे रहने वालों की ही पसंद है। 21वीं सदी की उच्च शिक्षा को तब तक स्तरीय नहीं बनाया जा सकता जब तक भारत की स्कूली शिक्षा 19वीं सदी में विचरण कर रही हो। स्कूली शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं में पिछले एक दशक में जबरदस्त वृद्धि हुई है, असली समस्या गुणवत्ता की है। यह एक कड़वा सच है कि भारत के आधे से अधिक प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती। अब समय आ गया है कि चॉक और ब्लैकबोर्ड के जमाने को भुला कर गांवों में भी प्राथमिक शिक्षा के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जाए। सरकारी स्कूलों की दशा लगातार गिरती जा रही है। सरकारी आंकड़े कुछ भी कहें, इन स्कूलों की साख को व‌र्ल्ड बैंक या यूनेस्को की सहायता भी बचा नहीं पाई है। बच्चों के स्कूल में हर प्रकार की कमियां आज भी विद्यमान हैं। भ्रष्ट तथा संवेदनहीन व्यवस्था में इसमें सुधार की संभावना क्षीण ही रहती है। आने वाले दिनों में ज्ञान दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक बन जाएगा। दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है। आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ शिक्षा को ही कहा जा सकता है। आज युवा बेरोजगार घूम रहा है उसके पास डिग्री है परन्तु उसे रोजगार नहीं मिल रहा मौजूदा शिक्षा नीति से काम नहीं चलने वाला जरूरत है शिक्षा क्षेत्र में विकास करने की और ऐसी नीति तैयार करने की जो दिखावे मात्र के ले ना हो बल्कि शिक्षा देने के लिहाज से भी उपयुक्त हो क्योकि जब तक देश का युवा शिक्षित नहीं होगा तब तक ना भारत से बेरोजगारी को खत्म किया जा सकता है और ना ही आर्थिक व्यवस्था को। 
(यह लेखक के अपने विचार हैं )