आशीष शुक्ला
आज़ादी को 68 साल हो गये परन्तु क्या आज व्यक्ति सच में आजाद है यह गंभीर चिंतन का विषय है। बाल मजदूरी,बधुंआ मजदूरी आज भी हमारे समाज में विद्यमान है जो अत्यधिक लज्जा का विषय है, सरकार इससे निपटने का पूरा प्रयास कर रही है, परन्तु लगातार नाकाम हो रही है। जिसका बहुत बड़ा कारण यह है, कि बहुत से गरीब परिवार अपने बच्चों के मजदूरी के सहारे ही अपना जीवन यापन कर रहे हैं।
दुनिया में लगभग २.५ करोड
बच्चे, जिनकी
आयु २-१७ साल के बीच है वे बाल-श्रम में लिप्त हैं, बाल श्रम कृषि निर्वाह और
शहरों के अन-औपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं, भारत और बंग्लादेश सहित
कई देशों में आज भी बाल श्रम व्यापक रूप से विद्यमान है। देश के कानून के अनुसार
१४ वर्ष से कम आयु के बच्चे काम नही कर सकते, फिर भी मौजूदा कानून को
नजरअंदाज किया जा रहा है। आज स्थिति तो यह है कि ११ साल जैसे छोटी उम्र के बच्चे
२० घंटे तक एक दिन में काम कर रहे हैं। जो की भारत के भविष्य का खात्मा करने के
लिए काफी है। बाल मजदूरी औद्योगिक क्रांति के आरम्भ के साथ प्रारंभ हुई। देश के समक्ष बालश्रम की समस्या एक चुनौती बनती जा रही है। सरकार ने इस
समस्या से निपटने के लिए कई गंभीर कदम उठाये हैं। समस्या के विस्तार और गंभीरता को
देखते हुए इसे एक सामाजिक-आर्थिक समस्या मानी जा सकती है। जो चेतना की कमी, गरीबी और निरक्षरता से
जुड़ी हुई है। 1979 में भारत सरकार ने
बाल-मज़दूरी की समस्या और उससे निज़ात दिलाने हेतु उपाय सुझाने के लिए 'गुरुपाद स्वामी समिति' का गठन किया था। समिति ने
समस्या का विस्तार से अध्ययन किया और अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की। बच्चों
का नियोजन इसलिए किया जाता है, क्योंकि उनका आसानी से शोषण किया जा सकता है। संविधान के मौलिक अधिकार में यह बताया गया है, कि 14 साल से कम उम्र का कोई भी
बच्चा किसी फैक्टरी या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया जायेगा और न ही
किसी अन्य खतरनाक नियोजन में नियुक्त किया जायेगा, परंतु आज
जो लोग बाल मजदूरी करवाते हैं उनके लिए ना मौजूदा कानून मायने रखता और ना ही
संविधान। दुनिया में जितने बाल श्रमिक हैं, उनमें सबसे ज्यादा बाल
श्रमिक भारत में हैं। अनुमान है कि दुनिया के बाल श्रमिकों का एक तिहाई हिस्सा
भारत में है। इस स्थिति का परिणाम बहुत व्यापक है। इसका मतलब यह है कि इस देश के
करीब 50 प्रतिशत बच्चे बचपन के
अधिकारों से वंचित हैं और वे अनपढ़ कामगार ही बने रहेंगे और उन्हें अपनी सच्ची
क्षमताएँ हासिल करने का कोई मौका नहीं मिलेगा। ऐसी स्थिति में कोई भी देश कोई
महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल करने की उम्मीद कैसे कर सकता है।
देश में बाल श्रम की
स्थिति की विडम्बना यह है कि यह मान ही लिया जाता है कि हर मजदूर इसलिये काम कर
रहा है कि यह उसके परिवार के जिन्दा रहने का मामला है। लेकिन यह गरीबी की दलील का
अत्यन्त कपटपूर्ण पहलू है। सच्चाई से इतना दूर और कुछ हो ही नहीं सकता। ‘गरीबी की दलील’’ और शिक्षा की अप्रासंगिकता की अवधारणा ने बाल श्रम और शिक्षा से संबधित
सरकारी कार्यक्रम बनने में मुख्य भूमिका अदा की है। बच्चे किसी देश या समाज की
महत्वपूर्ण सम्पति होते हैं, जिनकी समुचित सुरक्षा, पालन-पोषण, शिक्षा एवं विकास का दायित्व भी राष्ट्र और समुदाय का होता हैं।
जहाँ एक ओर बाल कल्याण से संबन्धित अनेक विषयों पर विश्व जनमत गंभीरता से
सोच रहा है, वहीं
दूसरी ओर बाल श्रमिकों की समस्या भी तेजी से बढ़ रही है। विशेषकर विकासशील दिशों
में यह समस्या अधिक विकराल रूप में दृष्टिगत हो रही है। आज विश्व में लगभग 25 करोड़ बाल श्रमिक हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के रिपोर्ट के अनुसार भारत में
बाल मजदूरों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। भारत में अनुमानत: बाल श्रमिकों की
संख्या 440 लाख से 1000 लाख तक है, किन्तु अधिकृत रूप से इनकी संख्या 17.5 लाख बताई गई है। समस्त विश्व के 25 करोड़ बाल श्रमिकों में
से मात्र भारत में ही इसके एक तिहाई बाल श्रमिक हैं। कुल बाल श्रमिकों का 30 प्रतिशत खेतिहर मजदूर तथा 30-35 प्रतिशत कल कारखानों में
कार्यरत हैं। शेष भाग पत्थर खदानों, चाय की दूकानों, ढाबों तथा रेस्टोरेंट एवं घरेलू कार्यों में लगे हुए हैं, एवं गुलामों जैसा जीवन जी रहे हैं। बाल श्रमिकों के वर्त्तमान आंकड़े यह
प्रदर्शित करते हैं कि कृषि क्षेत्र में 1 करोड़ 22 लाख, जम्मू कश्मीर के कालीन उद्योग में 1 लाख शिवकासी के आतिशबाजी और माचिस उद्योग में 1 लाख बच्चे, फिरोजाबाद के कांच उद्योग में 1 लाख बच्चे आगरा और कानपुर
के चर्म उद्योग में 30 हजार बच्चे, लखनऊ में चिकन के काम में 50 हजार, बच्चे, भदोही के कालीन उद्योग में 1 लाख 25 हजार बच्चे, सहारनपुर के लकड़ी के उद्योग में 10 हजार बच्चे तथा मिर्जापुर में 8 हजार बच्चे एवं वाराणसी
के रेशम उद्योग में 5 हजार बच्चे बाल श्रमिक के
रूप में कार्यरत हैं। हमारे समाज में चली आ रही
शोषण परम्परा का बाल मजदूरी एक अभिन्न अंग बनता जा रहा है, यह औद्योगिकरण की
प्रक्रिया से उभरे मालिक मजदूर समीकरण का विस्तार है। वैसे तो दुनिया के अन्य
देशों में भी यह एक विकट समस्या का रूप ले चुका है। लेकिन भारत में इसका रूप कुछ
और ही भयावह है। बाल मजदूरी करवाने वालों के लिए कानून में निम्न प्रावधान हैं। काम करवाने वाले
मालिक को तीन महीने से एक साल तक की कैद वह दस हजार से बीस हजार तक का जुर्माना देना
पड़ सकता है। परन्तु जो व्यक्ति बाल मजदूरी करवाने का साहस कर सकता है उसके
लिए इतनी सजा कफी है, यह विचार करनें लायक है। जब तक सरकार
इस पर गहन विचार करके इसमें कोई बदलाव नहीं करती शायद तब तक बाल मजदूरी को नहीं
रोका जा सकता। सरकार को मौजूदा सजा नीति को बदलना चाहिए। जब बाल मजदूरी करवाने
वालों को किसी बड़ी सजा का भय नहीं होगा तब तक वह ऐसे ही बाल मजदूरी करवाते
रहेगें। इस समस्या से समाधान पाने हेतु समाज के सभी वर्गों को सामूहिक प्रयास करना
होगा तभी भारत को बाल श्रम मुक्त बनाया जा सकता है।
(यह लेखक
के अपनें विचार हैं)

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