क्या नेहरू गलत थे.....?
आशीष शुक्ला
इलाहाबाद
में जन्मे स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, माना
जाता है की नेहरू कश्मीरी वंश के सारस्वत ब्राह्मण थे। वे थे भारत के परन्तु उनकी
स्कूली शिक्षा ट्रिनिटी कॉलज से और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से लॉ की उपाधि
प्राप्त की। वे इंग्लैंड में सात साल रहे और वहां के फैबियन समाजवाद और आयरिश
राष्ट्रवाद के लिए एक तर्कसंगत दृष्टिकोण विकसित किया। जब वे इंग्लैंड से भारत आये
तो पेशे से वकील थे राजनीति में उनका पर्दापण महत्मा गांधी के संपर्क में आने से
हुआ। जब वे गांधी से मिले, गांधी ने उस समय नेरॉलेट अधिनियम के खिलाफ एक अभियान
शुरू किया था। नेहरू, महात्मा गांधी के सक्रिय शांतिपूर्ण, सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति खासे प्रभावित
हुए।
नेहरू
ने महात्मा गांधी के उपदेशों के अनुसार अपने परिवार को भी ढाल लिया। उन्होंने महेंगे
कीमती कपडों और संपत्ति का त्याग कर दिया। दिसम्बर 1929 मे, कांग्रेस
का वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया गया जिसमें उन्हे
कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। इसी सत्र में एक प्रस्ताव पारित किया गया
जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की गई।
26 जनवरी 1930 को लाहौर में नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया।
सन्
1947 में जब भारत आजाद हुआ तब भावी प्रधानमंत्री के लिये कांग्रेस में मतदान कराया
गया, जिसमें सरदार पटेल को सर्वाधिक मत
मिले। उसके बाद सर्वाधिक मत आचार्य कृपलानी को मिले। परन्तु
महत्मा गांधी के आग्रह पर सरदार पटेल और आचार्य कृपलानी ने अपना नाम वापस ले लिया,
जिसके चलते नेहरू प्रधानमंत्री बने।
अंग्रेजों
ने करीब 500 देशी रियासतों को एक साथ स्वतंत्र किया था। और उस वक्त सबसे बडी
चुनौती थी उन्हें झंडे के नीचे लाना। उन्होंने भारत के पुनर्गठन के रास्ते में
उभरी हर चुनौती का समझदारी पूर्वक सामना किया। नेहरू ने जोसिप बरोज टिटो और अब्दुल
गमाल नासिर के साथ मिलकर एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के खात्मे के लिए एक गुट
निरपेक्ष आंदोलन की रचना की। वह कोरियाई युद्ध का अंत करने, स्वेज नहर विवाद सुलझाने और कांगो समझौते को मूर्तरूप देने जैसे अन्य
अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में मध्यस्थ की भूमिका में रहे। पश्चिम बर्लिन,
ऑस्ट्रेलिया और लाओस जैसे कई अन्य विस्फोटक मुद्दों के समाधान में
उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। अब बात करते हैं द्बितीय विश्वयुद्ध की, जब यह युद्ध
हुआ तब भारत को उन शक्तियों की तरफ से लड़ने के लिए विवश किया गया था, जिसमें भारत की मर्जी की बात शामिल नहीं थी। हालांकि, नेहरू खुद निष्ठापूर्वक द्बितीय महायुद्ध की धुरी शक्तियों के खिलाफ थे, लेकिन भारत
के पास और कोई चुनने का विकल्प ना था। इससे भी महत्पवूर्ण बात यह कि उसे किसी भी
सैन्य गठबंधन में जूनियर पार्टनर की तरह देखा गया। इसी वक्त, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच जारी शीतयुद्ध के साए में नए गठबंधन आकार ले
रहे थे। नेहरू इस मामले में स्पष्ट थे कि दुनिया के दो शक्तिशाली ताकतों के उदय के
बीच भारत के पास अपने हितों को लेकर खुद की समझ होनी चाहिए।
नेहरू
पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के संबंधों में सुधार नहीं कर पाए। पाकिस्तान के साथ
एक समझौते तक पहुँचने में कश्मीर मुद्दा और चीन के साथ मित्रता में “सीमा
विवाद” रास्ते के पत्थर साबित हुए। नेहरू ने चीन की तरफ
मित्रता का हाथ भी बढाया, लेकिन 1962 में चीन ने धोखे से
आक्रमण कर दिया जिसमे भारत की शर्मनाक हार हुई। ऐसा माना जाता है कि उस समय के
तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू
को गलत सलाह दी।
मेनन
साम्यवादी विचारों के समर्थक थे, और उनके चीन से बहुत नजदीकी रिस्ते थे कुल मिलाकर
ज्यादा वह चीन का ही सपोर्ट करते थे। “आस्ट्रेलियाई पत्रकार
नेवेली मैक्सवेल” ने संभवत: ठीक ही कहा है कि कृष्णा
मेनन ने पंडित नेहरू को गुमराह किया जिसके कारण नेहरू चीन की धोखेबाजी को समझ नहीं
सके। चाउ-एन-लाई हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते रहे। नेहरू उन पर आंख मूंदकर
विश्वास करते रहे, और नेहरू को भ्रम में रखकर चीन ने भारत की हजारों किलोमीटर जमीन
हड़प ली जिसे उसने आज तक वापस नहीं किया।
इतिहास
की विडंबना है कि नेहरू कालान्तर में युगांतरकारी के स्थान पर व्यवस्था के प्रतीक
बन गए और व्यवस्था परिवर्तन के लिए नेहरू को ध्वस्त करना अनिवार्य शर्त बन गयी।
लोहिया ने भारतीय जनतंत्र में नवजीवन के रास्ते में नेहरू को सबसे बड़ी बाधा माना
और उसे हटाने के लिए वे किसी हद तक जाने को तैयार थे। यह काफी दिलचस्प है कि भारत
की हर समस्या के लिए उन्हें ही जिम्मेदार माना जाता है। चाहे वह कश्मीर का अनसुलझा
प्रश्न हो या उत्तरपूर्व के तनाव हों, निरक्षरता हो या हिन्दू
वृद्धि दर, भारत में समाजवाद का आने से इनकार।
नेहरू ने अमरीका और रूस से अलग रास्ता बनाने की
कोशिश की और गुट निपरेक्ष देशों का संगठन बनाया नेहरू निःसंकोच भाव से खुद को
गांधी युग की सन्तान कहते थे। वे मूलतः अहिंसा में विश्वास करने वाले अंतर्राष्ट्रीयतावादी
थे। नेहरू का बड़ा योगदान सांस्थानिक
प्रक्रियाओं को स्थापित करने का है। दूसरा, धर्म, जाति पर टिकी
सामुदायिकता को नई कॉस्मोपॉलिटन साहचर्य की ओर उन्मुख करने का। तीसरे किसी
आत्मग्रस्तता से मुक्त हो अन्य की अन्यता ही नहीं उसकी अनन्यता को आदर देना सीखने
के लिए प्रवृत्त करने का।
नेहरू
द्वारा लिए गए कुछ फैसले जो आज भी भारत के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। कश्मीर
के महाराजा हरी सिंह ने
बिना किसी शर्त के अपनी रियासत का भारत में विलय का प्रस्ताव कर दिया था, परन्तु
नेहरू ने उस प्रस्ताव पर शेख अब्दुल्ला की सहमति जरूरी बताया, उन्होंने 1948 में भारत-पाक की जंग के बीच अचानक सीजफायर का एलान कर भी कर दिया जो कि
गलत फैसला था। नेहरू का एक बड़ा संघर्ष वैज्ञानिक संवेदना को सामाजिक संवेदनतंत्र
से अभिन्न करने का था। यह विज्ञानवाद न था। इसका अर्थ मात्र वैज्ञानिक आविष्कार और
अधुनातन टेक्नॉलोजी तक सीमित न था। दरअसल,
विश्लेषणात्मकता और आलोचनात्मकता को सामाजिक प्रवृत्ति के घटक
तत्त्व बनाने का संघर्ष था। यह धर्म का सामाजिक चेतना से अपसरण न था, न समाज को परंपरा से उखाड़ देने का उद्धतपन, जैसा
आशीष नंदी मानते हैं।
भारत
ने जिस अंतराष्ट्रीय स्थिति में स्वतंत्रता हासिल की, गुटनिरपेक्षता
उसकी प्रतिक्रिया थी। कई लेखक मानते हैं कि नेहरू भले ही शेख अब्दुल्ला की मित्रता
के प्रति भावुक थे, परन्तु शेख ने हमेसा उनकी मित्रता को
अपनी लम्बी रणनीति के तहत इस्तेमाल किया। जब भारत की विजय-वाहिनी सेनाएं कबाइलियों
को खदेड़ रही थीं तब बारहमूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया, परन्तु नेहरू ने शेख
अब्दुल्ला की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया। परिणाम-स्वरूप कश्मीर का एक
तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर,
गिलागित आदि क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के
पास रह गए। उन्होंने माउन्टबेटन की सलाह पर नेहरू एक जनवरी, 1948 को कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ले गए।
नेहरू
ने देश के अनेक नेताओं के विरोध के बाद भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर
भारतीय संविधान में धारा 370 जुड़ गई। न्यायाधीश डी.डी. बसु
ने इस धारा को असंवैधानिक तथा राजनीति से प्रेरित बतलाया। डा. भीमराव अम्बेडकर ने
इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रधानमंत्री
नेहरू ने रियासत राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा 17 अक्तूबर,
1949 को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को
स्वीकृति दी गई।
यह
लेख इतिहास के मौजूदा तथ्यों का अध्यन करने के पश्चात लिखा गया है, इसमें विभिन्न
लेखकों के कहे विचार और धारणाओं को समाहित किया गया है। किसी भी गलती-विवाद के लिए
इतिहास जिम्मेदार होगा। आप अपने विचार निर्भय होकर साझा कर सकते हैं।
(यह
लेखक के अपने विचार हैं)

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