कब आशिक्षा मुक्त होगा भारत .....?
आशीष शुक्ला
प्रशिक्षित युवाओं की आवश्यकता
देश में भी है और विदेश में भी उनकी मांग लगातार बढ़ रही है। परन्तु आज के इस
आधुनिक युग में जिस तरह से शिक्षा का स्तर मात्र दिखावे के के लिए ऊंचा किया जा
रहा है यह काफी गंभीर चिंता का विषय है। मौजूदा शिक्षा नीति भी अच्छी है, और शिक्षा का स्तर भी परन्तु आज भी कई ऐसे विद्यालय
हैं जहां नकल का बोल-बाला अपनी चरम सीमा पर है। यही कारण है कि डिग्री होने के
बावजूद आज का युवा बेरोजगार घूम रहा है।
भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है। इनमें से 12 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच है। अगर इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाए तो ये अपने बल-बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं। कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। ''पुराना पाठ्यक्रम और जमीनी हकीकतों से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को मारने के लिए काफी हैं।” शिक्षा में निजीकरण की जरूरत है, लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिए। आम धारणा ये है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है। हर साल भारतीय स्कूलों से पास होने वाले छात्रों में महज 15 फीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएं, यह सुनिश्चित करने के लिए पूरे भारत में 1500 नए विश्वविद्यालय खोले जाने की जरूरत पड़ेगी। इस सबके लिए धन सिर्फ निजी क्षेत्र से आ सकता है। स्कूलों में अध्यापकों की कमी एक बिकट समस्या है। पिछड़े क्षेत्रों में अध्यापकों की कमी बहुत ज्यादा है। अनुमान है कि 7.74 लाख अध्यापकों के पास पढ़ाने के लिए जरूरी योग्यता नहीं है। विद्यालयों की बढ़ती संख्या यह तो बताती है कि हाल के वर्षों में शिखा की मांग काफी बढ़ी है। दूसरी तरफ सरकार गुणवत्ता वाली शिक्षा देने में नाकाम साबित हो रही है। ऐसे में सबसे पहले शिक्षकों और कक्षाओं की संख्या बढ़ानी होगी। सरकार शिक्षा सुधार का काम काफी धीमी गति से कर रही है। दसवीं कक्षा के लिए निरंतर और विस्तृत मूल्यांकन प्रणाली का मामला है। इसके लिए ऑडियो विजुअल तरीके अपनाने जैसी नई शिक्षा सुविधाओं को अपनाने की जरूरत है। यह प्रणाली बहुत आधुनिक है लेकिन यह उस भारतीय व्यवस्था से मेल नहीं खाती जहां छात्र अध्यापक अनुपात दुरुस्त नहीं है। किसी भी सरकार, खास कर विकासशील देश की सरकार के लिए ये संभव नहीं है कि वो मौजूदा 300 विश्वविद्यालयों को ढंग से चला पाए। यह तभी संभव है जब वित्तीय मापदंडों को दरकिनार कर दिया जाए या उच्चतर शिक्षा को घटिया दर्जे का बना दिया जाए। विशेषज्ञों की राय है कि 'रन ऑफ़ द मिल' यानी बने बनाए ढर्रे पर स्नातक पैदा करने की प्रवृत्ति से जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए उतना ही अच्छा है। आजकल का सबसे प्रचलित जुमला है नौकरी से जुड़े कोर्स। फैसला लेने वालों के बीच ‘वोकेशनल’ शिक्षा या व्यावसायिक शिक्षा का वो रुतबा अब नहीं रहा क्योंकि इसके साथ ये बट्टा लगा हुआ है कि ये पढ़ाई में पीछे रहने वालों की ही पसंद है। 21वीं सदी की उच्च शिक्षा को तब तक स्तरीय नहीं बनाया जा सकता जब तक भारत की स्कूली शिक्षा 19वीं सदी में विचरण कर रही हो। स्कूली शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं में पिछले एक दशक में जबरदस्त वृद्धि हुई है, असली समस्या गुणवत्ता की है। यह एक कड़वा सच है कि भारत के आधे से अधिक प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती। अब समय आ गया है कि चॉक और ब्लैकबोर्ड के जमाने को भुला कर गांवों में भी प्राथमिक शिक्षा के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जाए। सरकारी स्कूलों की दशा लगातार गिरती जा रही है। सरकारी आंकड़े कुछ भी कहें, इन स्कूलों की साख को वर्ल्ड बैंक या यूनेस्को की सहायता भी बचा नहीं पाई है। बच्चों के स्कूल में हर प्रकार की कमियां आज भी विद्यमान हैं। भ्रष्ट तथा संवेदनहीन व्यवस्था में इसमें सुधार की संभावना क्षीण ही रहती है। आने वाले दिनों में ज्ञान दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक बन जाएगा। दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है। आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ शिक्षा को ही कहा जा सकता है। आज युवा बेरोजगार घूम रहा है उसके पास डिग्री है परन्तु उसे रोजगार नहीं मिल रहा मौजूदा शिक्षा नीति से काम नहीं चलने वाला जरूरत है शिक्षा क्षेत्र में विकास करने की और ऐसी नीति तैयार करने की जो दिखावे मात्र के ले ना हो बल्कि शिक्षा देने के लिहाज से भी उपयुक्त हो क्योकि जब तक देश का युवा शिक्षित नहीं होगा तब तक ना भारत से बेरोजगारी को खत्म किया जा सकता है और ना ही आर्थिक व्यवस्था को।
(यह लेखक के अपने विचार
हैं )

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