Dec 16, 2013

क्या दामिनी को मिला न्याय

देश को झकझोर देने वाले दिल्ली गैंगरेप की घटना को आज एक साल पूरे हो गए हैं। एक साल पहले 16 दिसंबर को चलती बस में 23-वर्षीय छात्रा के साथ छह लोगों ने न सिर्फ गैंगरेप किया था, बल्कि बेहद निर्मम तरीके से उस पर अत्याचार भी किए थे। इसी क्रम में 23 दिसम्बर 2012 को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई। कमेटी की सिफारिशों के आधार पर एंटी रेप लॉ बना। क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऑर्डिनेंस 2013 (एंटी रेप लॉ) में दुष्कर्म की परिभाषा भी बदली। 16 दिसंबर के बाद देशभर में 164 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए। घटना के बाद देश के कई राज्यों में महिला हेल्पलाइन शुरू की गई।

इतने सख्त कानून बनने के बाद भी लोगों में बिल्कुल भी खौफ पैदा नहीं हुआ। सबसे बड़ी चिंताजनक बात यह है कि महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न के मामलों में पांच गुना बढोतरी दर्ज की गई है। नवंबर 2013 तक पिछले वर्ष के 625 मामलों की तुलना में 3237 मामले दर्ज किए गए। महिलाओं का शीलभंग करने संबंधी मामलों में भी बढोतरी हुई है। पिछले वर्ष के 165 मामलों की तुलना में इस वर्ष 852 मामले दर्ज किए गए।
16 दिसंबर 2012 की घटना और पुलिस द्वारा उठाए गए सख्‍त कदमों के बावजूद राजधानी में रेप के मामलों में लगाम तो नहीं लग पाई लेकिन उल्‍टे दरिंदों की हैवानियत और बढ़ गई।
इन सब मुद्दो से हट कर बात करे ये विचार करने लायक है कि क्या दामिनी को न्याय मिला ।
यकीन नही होता कि क्या ये वही भारत देश हैं जिसे लोग संस्कृतिक और सभ्यता के लिए जाना जाता हैं।
आखिर कब तक ऐसा चलता रहेंगा सब कही ना कही बस सरकार को ही दोश देते रहते हैं लेकिन उससे क्या हमें समाधान मिल पायेगा ।
मैं तो समझता हूं कि कही न कही लोगो की सोच का फर्क हैं। अगर कुछ बदलने लायक है तो वो है हमारी सोच
जब तक हम अपनी सोच को नही बदलते तब तक शायद भारत की तसवीर नही नही बदल सकती ।
गांधी जी ने कहा था कि मैं भारत को आजाद तब मानूगा । जब हमारे देश की स्त्री बारह बजे रात को अकेले सडक पर निकल कर कहेंगी की हम आजाद हमें कोई भय नही हैं । वन्दें मातरम्...........आशीष शुक्ला

 

भारतीय शिक्षा का इतिहास (मैकले की शिक्षा प्रणाली )


। भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं। सूत्रकाल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं। बौद्धकाल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया गया।
प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत व उत्कृष्ट थी लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा का व्यवस्था ह्रास हुआ। विदेशियों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया, जिस अनुपात में होना चाहिये था। अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों व समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी ये चुनौतियाँ व समस्याएँ हमारे सामने हैं जिनसे दो-दो हाथ करना है।
स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही भारतीय शिक्षा को लेकर अनेक जद्दोजहद चलती रही। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने सार्वजनिक शिक्षा के विस्तार के‍लिए अनेक प्रयास किए। यह और बात है कि इन प्रयासों की अनेक खामियाँ भी सामने आई हैं जिन्हें दूर करने का प्रयास किया जा रहा है।

प्राचीन काल

प्राचीन भारत की शिक्षा का प्रारंभिक रूप हम ऋग्वेद में देखते हैं। ऋग्वेद युग की शिक्षा का उद्देश्य था तत्वसाक्षात्कार। ब्रह्मचर्य, तप, और योगाभ्यास से तत्व का साक्षात्कार करनेवाले ऋषि, विप्र, वैघस, कवि, मुनि, मनीषी के नामों से प्रसिद्ध थे। साक्षात्कृत तत्वों का मंत्रों के आकार में संग्रह होता गया वैदिक संहिताओं में, जिनका स्वाध्याय, सांगोपांग अध्ययन, श्रवण, मनन औरनिदिध्यासन वैदिक शिक्षा रही।
विद्यालय गुरुकुल, आचार्यकुल, गुरुगृह इत्यादि नामों से विदित थे। आचार्य के कुल में निवास करता हुआ, गुरुसेवा और ब्रह्मचर्य व्रतधारी विद्यार्थी षडंग वेद का अध्ययन करता था। शिक्षक को आचार्य और गुरु कहा जाता था और विद्यार्थी को ब्रह्मचारी, व्रतधारी, अंतेवासी, आचार्यकुलवासी। मंत्रों के द्रष्टा अर्थात्‌ साक्षात्कार करनेवाले ऋषि अपनी अनुभूति और उसकी व्याख्या और प्रयोग को ब्रह्मचारी, अंतेवासी को देते थे। गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करनेवाले व्रतचारी श्रुतर्षि होते थे। वेदमंत्र कंठस्थ किए जाते थे। आचार्य स्वर से मंत्रों का परायण करते और ब्रह्मचारी उनको उसी प्रकार दोहराते चले जाते थे। इसके पश्चात्‌ अर्थबोध कराया जाता था। ब्रह्मचर्य चले जाते थे। इसके पश्चात्‌ अर्थबोध कराया जाता था। ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था। स्त्रियों के लिए भी आवश्यक समझा जाता था। आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले विद्यार्थी को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते थे। ऐसी विद्यार्थिनी ब्रह्मवादिनी कही जाती थी।
यज्ञों का अनुष्ठान विधि से हो, इसलिए होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा को आवश्यक शिक्षा दी जाती थी। वेद, शिक्षा, कल्प, व्यकरण, छंद, ज्योतिष और निरुक्त उनके पाठ्य होते थे। पाँच वर्ष के बालक की प्राथमिक शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी। गुरुगृह में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी। 8 वें वर्ष में ब्राह्मण बालक के, 11 वें वर्ष में क्षत्रिय के और 12 वें वर्ष में वैश्य के उपनयन की विधि थी। अधिक से अधिक यह 16, 22, और 24 वर्षों की अवस्था में होता था। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्यार्थी गुरुगृह में 12 वर्ष वेदाध्ययन करते थे। तब वे स्नातक कहलाते थे। समावर्तन के अवसर पर गुरुदक्षिणा देन की प्रथा थी। समावर्तन के पश्चात्‌ भी स्नातक स्वाध्याय करते रहते थे। नैष्ठिक ब्रह्मचारी आजीवन अध्ययन करते थे। समावर्तन के सम ब्रह्मचारी दंड, कमंडलु, मेखला, आदि को त्याग देते थे। ब्रह्मचर्य व्रत में जिन जिन वस्तुओं का निषेध था अब से उनका उपयोग हो सकता था। प्राचीन भारत में किसी प्रकार की परीक्षा नहीं होती थी और न कोई उपाधि ही दी जाती थी। नित्य पाठ पढ़ाने के पूर्व ब्रह्मचारी ने पढ़ाए हुए षष्ठ को समझा है और उसका अभ्यास नियम से किया है या नहीं, इसका पता आचार्य लगा लेते थे। ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे तथा बाद विवाद और शास्त्रार्थ में संम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे।
भारतीय शिक्षा में आचार्य का स्थान बड़ा ही गौरव का था। उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था। आचार्य पारंगत विद्वान्‌, सदाचारी, क्रियावान्‌, नि:स्पृह, निरभिमान होते थे और विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते थे। अध्यापक, छात्रों का चरित्रनिर्माण, उनके लिए भोजनवस्त्र का प्रबंध, रुग्ण छात्रों की चिकित्सा, शुश्रूषा करते थे। कुल में सम्मिलित ब्रह्मचारी मात्र को आचार्य अपने परिवार का अंग मानते थे और उनसे वैसा ही व्यवहार रखते थे। आचार्य धर्मबुद्धि से नि:शुल्क शिक्षा देते थे।
विद्यार्थी गुरु का सम्मान और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। आचार्य का चरणस्पर्श कर दिनचर्या के लिए प्रात:काल ही प्रस्तुत हो जाते थे। गुरु के आसन के नीचे आसन ग्रहण करा, सुसंयत वेश में रहना, गुरु के लिए दातौन इत्यादि की व्यवस्था करना, उनके आसन को उठाना और बिछाना, स्नान के लिए जल ला देना, समय पर वस्त्र और भोजन के पात्र को साफ करना, ईधंन संग्रह करना, पशुओं को चराना इत्यादि छात्रों के कर्तव्य माने जाते थे। विद्यार्थी ब्राह्ममुहूर्त में उठते थे और प्रात: कृत्यों से निवृत्त होकर, स्नान, संध्या, होम आदि कर लेते थे। फिर अध्ययन में लग जाते थे। इसके उपरांत भोजन करते थे और विश्राम के पश्चात्‌ आचार्य के पाठ ग्रहण करते थे। सांयकाल समिधा एकत्र कर ब्रह्मचारी संध्या ओर होम का अनुष्ठान करते थे। विद्यार्थी के लिए भिक्षाटन अनिवार्य कृत्य था। भिक्षा से प्राप्त अन्न गुरु को समर्पित कर विद्यार्थी मनन औरनिदिध्यासन में लग जाते थे।
वेदों का अध्ययन श्रावण पूर्णिमा को उपाकर्म से प्रारंभ होकर पौष पूर्णिमा को उपसर्जन से समाप्त होता था। शेष महीनों में अधीत पाठों की आवृत्ति, पुनरावृत्ति होती रहती थी। विद्यार्थी पृथक्‌ पृथक्‌ पाठ ग्रहण करते थे, एक साथ नहीं। प्रतिपदा और अष्टमी को अनध्याय होता था। गाँव, नगर अथवा पड़ोस मे आकस्मिक विपत्ति से और शिष्टजनों के आगमन से विशेष अनध्याय होते थे। अनध्याय में अधीत वेदमंत्रों की पुनरावृत्ति और विषयांतर का अध्ययन निषिद्ध न थे। विनय के नियमों का उल्लंघन करनेवाले विद्यार्थी को दंड देने की परिपाटी थी। पाठ्यक्रम के विस्तार के साथ वेदों ओर वेदांगों के अतिरिक्त साहित्य, दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण और चिकित्साशास्त्र इत्यादि विषयों का अध्यापन होने लगा। टोल पाठशाला, मठ ओर विहारों में पढ़ाई होती थी।
काशी, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वलभी, ओदंतपुरी, जगद्दल, नदिया, मिथिला, प्रयाग, अयोध्या आदि शिक्षा के केंद्र थे। दक्षिण भारत के एन्नारियम, सलौत्गि, तिरुमुक्कुदल, मलकपुरम्‌ तिरुवोरियूर में प्रसिद्ध विद्यालय थे। अग्रहारों के द्वारा शिक्षा का प्रचार और प्रसार शताब्दियों होता रहा। कादिपुर और सर्वज्ञपुर के अग्रहार विशिष्ट शिक्षाकेंद्र थे। प्राचीन शिक्षा प्राय: वैयक्तिक ही थी। कथा, अभिनय इत्यादि शिक्षा के साधन थे। अध्यापन विद्यार्थी के योग्यतानुसार होता था अर्थात्‌ विषयों को स्मरण रखने के लिए सूत्र, कारिका और सारनों से काम लिया जाता था। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष पद्धति किसी भी विषय की गहराई तक पहुँचने के लिए बड़ी उपयोगी थी। भिन्न भिन्न अवस्था के छात्रों को कोई एक विषय पढ़ाने के लिए समकेंद्रिय विधि का विशेष रूप से उपयोग होता था सूत्र, वृत्ति, भाष्य, वार्तिक इस विधि के अनुकूल थे। कोई एक ग्रंथ के बृहत्‌ और लघु संस्करण इस परिपाटी के लिए उपयोगी समझे जाते थे।
बौद्धों और जैनों की शिक्षापद्धति भी इसी प्रकार की थी।

मध्यकाल

भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा। फारसी जाननेवाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाने लगे। हिंदू अरबी और फारसी पढ़ने लगे। बादशाहों और अन्य शासकों की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार इस्लामी आधार पर शिक्षा दी जाने लगी। इस्लाम के संरक्षण और प्रचार के लिए मस्जिदें बनती गई, साथ ही मकतबों, मदरसों और पुस्तकालयों की स्थापना होने लगी। मकतब प्रारंभिक शिक्षा के केंद्र होते थे और मदरसे उच्च शिक्षा के। मकतबों की शिक्षा धार्मिक होती थी। विद्यार्थी कुरान के कुछ अंशों का कंठस्थ करते थे। वे पढ़ना, लिखना, गणित, अर्जीनवीसी और चिट्ठीपत्री भी सीखते थे। इनमें हिंदू बालक भी पढ़ते थे।
मकतबों में शिक्षा प्राप्त कर विद्यार्थी मदरसों में प्रविष्ट होते थे। यहाँ प्रधानता धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। साथ साथ इतिहास, साहित्य, व्याकरण, तर्कशास्त्र, गणित, कानून इत्यादि की पढ़ाई होती थी। सरकार शिक्षकों को नियुक्त करती थी। कहीं कहीं प्रभावशाली व्यक्तियों के द्वारा भी उनकी नियुक्ति होती थी। अध्यापन फारसी के माध्यम से होता था। अरबी मुसलमानों के लिए अनिवार्य पाठ्य विषय था। छात्रावास का प्रबंध किसी किसी मदरसे में होता था। दरिद्र विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति मिलती थी। अनाथालयों का संचालन होता था। शिक्षा नि:शुल्क थी। हस्तलिखित पुस्तकें पढ़ी और पढ़ाई जाती थीं।
राजकुमारों के लिए महलों के भीतर शिक्षा का प्रबंध था। राज्यव्यवस्था, सैनिक संगठन, युद्धसंचालन, साहित्य, इतिहास, व्याकरण, कानून आदि का ज्ञान गृहशिक्षक से प्राप्त होता था। राजकुमारियाँ भी शिक्षा पाती थीं। शिक्षकों का बड़ा सम्मान था। वे विद्वान्‌ और सच्चरित्र होते थे। छात्र और शिक्षकों को आपसी संबंध प्रेम और सम्मान का था। सादगी, सदाचार, विद्याप्रेम और धर्माचरण पर जोर दिया जाता था। कंठस्थ करने की परंपरा थी। प्रश्नोत्तर, व्याख्या और उदाहरणों द्वारा पाठ पढ़ाए जाते थे। कोई परीक्षा नहीं थी। अध्ययन अध्यापन में प्राप्त अवसरों में शिक्षक छात्रों की योग्यता और विद्वत्ता के विषय में तथ्य प्राप्त करते थे। दंड प्रयोग किया जाता था। जीविका उपार्जन के लिए भी शिक्षा दी जाती थी। दिल्ली, आगरा, बीदर, जौनपुर, मालवा मुस्लिम शिक्षा के केंद्र थे। मुसलमान शासकों के संरक्षण के अभाव में भी संस्कृत काव्य, नाटक, व्याकरण, दर्शन ग्रंथों की रचना और उनका पठन पाठन बराबर होता रहा।

आधुनिक काल

भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों से डाली गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारंभ में मद्रास ही उनका कार्यक्षेत्र रहा। धीरे धीरे कार्यक्षेत्र का विस्तार बंगाल में भी होने लगा। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे। रविवार को विद्यालय बंद रहता था। अनेक शिक्षक छात्रों की पढ़ाई अनेक श्रेणियों में कराते थे। अध्यापन का समय नियत था। साल भर में छोटी बड़ी अनेक छुट्टियाँ हुआ करती थीं।
प्राय: 150 वर्षों के बीतते बीतते व्यापारी ईस्ट इडिया कंपनी  राज्य करने लगी। विस्तार में बाधा पड़ने के डर से कंपनी शिक्षा के विषय में उदासीन रही। फिर भी विशेष कारण और उद्देश्य से 1780 में कलकत्ते में 'कलकत्ता मदरसा' और 1791 में बनारस में 'संस्कृत कालेज' कंपनी द्वारा स्थापित किए गए। धर्मप्रचार के विषय में भी कंपनी की पूर्वनीति बदलने लगी। कंपनी अब अपने राज्य के भारतीयों को शिक्षा देने की आवश्यकता को समझने लगी। 1813 के आज्ञापत्र के अनुसार शिक्षा में धन व्यय करने का निश्चय किया गया। किस प्रकार की शिक्षा दी जाए, इसपर प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों में मतभेद रहा। वाद विवाद चलता चला। अंत में लार्ड मेकाले के तर्क वितर्क और राजा राममनोहर राय के समर्थन से प्रभावित हो 1835 ई. में लार्ड बेंटिक ने निश्चय किया कि अंग्रेजी भाषा और साहित्य और यूरोपीय इतिहास, विज्ञान, इत्यादि की पढ़ाई हो और इसी में 1813 के आज्ञापत्र में अनुमोदित धन का व्यय हो। प्राच्य शिक्षा चलती चले, परंतु अंग्रेजी और पश्चिमी विषयों के अध्ययन और अध्यापन पर जोर दिया जाए।
पाश्चात्य रीति से शिक्षित भारतीयों की आर्थिक स्थिति सुधरते देख जनता इधर झुकने लगी। अंग्रेजी विद्यालयों में अधिक संख्या में विद्यार्थी प्रविष्ट होने लगे क्योंकि अंग्रेजी पढ़े भारतीयों को सरकारी पदों पर नियुक्त करने की नीति की सरकारी घोषणा हो गई थी। सरकारी प्रोत्साहन के साथ साथ अंग्रेजी शिक्षा को पर्याप्त मात्रा में व्यक्तिगत सहयोग भी मिलता गया। अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के साथ साथ अधिक कर्मचारियों की और चिकित्सकों, इंजिनियरों और कानून जाननेवालों की आवश्यकता पड़ने लगी। उपयोगी शिक्षा की ओर सरकार की दृष्टि गई। मेडिकल, इजिनियरिंग और लॉ कालेजों की स्थापना होने लगी। स्त्री शिक्षा पर ध्यान दिया जाने लगा।
1853 में शिक्षा की प्रगति की जाँच के लिए एक समिति बनी। 1854 में बुड के शिक्षासंदेश पत्र में समिति के निर्णय कंपनी के पास भेज दिए गए। संस्कृत, अरबी और फारसी का ज्ञान आवश्यक समझा गया। औद्योगिक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। प्रातों में शिक्षा विभाग अध्यापक प्रशिक्षण नारीशिक्षा इत्यादि की सिफारिश की गई। 1857 में स्वतंत्रता युद्ध छिड़ गया जिससे शिक्षा की प्रगति में बाधा पड़ी। प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित ही रही। उच्च शिक्षा की उन्नति होती गई। 1857 में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित हुए।
मुख्यत: प्राथमिक शिक्षा की दशा की जाँच करते हुए शिक्षा के प्रश्नों पर विचार करने के लिए 1882 में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में भारतीय शिक्षा आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग ने प्राथमिक शिक्षा के लिए उचित सुझाव दिए। सरकारी प्रयत्न को माध्यमिक शिक्षा से हटाकर प्राथमिक शिक्षा के संगठन में लगाने की सिफारिश की। सरकारी माध्यमिक स्कूल प्रत्येक जिले में एक से अधिक न हो; शिक्षा का माध्यम माध्यमिक स्तर में अंग्रेजी रहे। माध्यमिक स्कूलों के सुधार और व्यावसायिक शिक्षा के प्रसार के लिए आयोग ने सिफारिशें कीं। सहायता अनुदान प्रथा और सरकारी शिक्षाविभागों का सुधार, धार्मिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा, मुसलमानों की शिक्षा इत्यादि पर भी आयोग ने प्रकाश डाला।
आयोग की सिफारिशों से भारतीय शिक्षा में उन्नति हुई। विद्यालयों की संख्या बढ़ी। नगरों में नगरपालिका और गाँवों में जिला परिषद् का निर्माण हुआ और शिक्षा आयोग ने प्राथमिक शिक्षा को इनपर छोड़ दिया परंतु इससे विशेष लाभ न हो पाया। प्राथमिक शिक्षा की दशा सुधर न पाई। सरकारी शिक्षा विभाग माध्यमिक शिक्षा की सहायता करता रहा। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही रही। मातृभाषा की उपेक्षा होती गई। शिक्षा संस्थाओं और शिक्षितों की संख्या बढ़ी, परंतु शिक्षा का स्तर गिरता गया। देश की उन्नति चाहनेवाले भारतीयों में व्यापक और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता का बोध होने लगा। स्वतंत्रताप्रेमी भारतीयों और भारतप्रेमियों ने सुधार का काम उठा लिया। 1870 में बाल गंगाधर तिलक और उनके सहयोगियों द्वारा पूना में फर्ग्यूसन कालेज, 1886 में आर्यसमाज द्वारा लाहौर में दयानंद ऐंग्लो वैदिक कालेज और 1898 में काशी में श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा सेंट्रल हिंदू कालेज स्थापित किए गए।
1901 में लार्ड कर्ज़न ने शिमला में एक गुप्त शिक्षा सम्मेलन किया था जिसें 152 प्रस्ताव स्वीकृत हुए थे। इसमें कोई भारतीय नहीं बुलाया गया था और न सम्मेलन के निर्णयों का प्रकाशन ही हुआ। इसको भारतीयों ने अपने विरुद्ध रचा हुआ षड्यंत्र समझा। कर्ज़न को भारतीयों का सहयोग न मिल सका। प्राथमिक शिक्षा की उन्नति के लिए कर्ज़न ने उचित रकम की स्वीकृति दी, शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की तथा शिक्षा अनुदान पद्धति और पाठ्यक्रम में सुधार किया। कर्ज़न का मत था कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही दी जानी चाहिए। माध्यमिक स्कूलों पर सरकारी शिक्षाविभाग और विश्वविद्यालय दोनों का नियंत्रण आवश्यक मान लिया गया। आर्थिक सहायता बढ़ा दी गई। पाठ्यक्रम में सुधार किया गया। कर्जन माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में सरकार का हटना उचित नहीं समझता था, प्रत्युत सरकारी प्रभाव का बढ़ाना आवश्यक मानता था। इसलिए वह सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ाना चाहता था। लार्ड कर्जन ने विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा की उन्नति के लिए 1902 में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया। पाठ्यक्रम, परीक्षा, शिक्षण, कालेजों की शिक्षा, विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन इत्यादि विषयों पर विचार करते हुए आयोग ने सुझाव उपस्थित किए। इस आयोग में भी कोई भारतीय न था। इसपर भारतीयों में क्षोभ बढ़ा। उन्होंने विरोध किया। 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय कानून बना। पुरातत्व विभाग की स्थापना से प्राचीन भारत के इतिहास की सामग्रियों का संरक्षण होने लगा। 1905 के स्वदेशी आंदोलन के समय कलकत्ते में जातीय शिक्षा परिषद् की स्थापना हुई और नैशनल कालेज स्थापित हुआ जिसके प्रथम प्राचार्य अरविंद घोष थे। बंगाल टेकनिकल इन्स्टिट्यूट की स्थापना भी हुई।
1911 में गोपाल कृष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को नि:शुल्क और अनिवार्य करने का प्रयास किया। अंग्रेज़ सरकार और उसके समर्थकों के विरोध के कारण वे सफल न हो सके। 1913 में भारत सरकार ने शिक्षानीति में अनेक परिवर्तनों की कल्पना की। परंतु प्रथम विश्वयुद्ध के कारण कुछ हो न पाया। प्रथम महायुद्ध के समाप्त होने पर कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त हुआ। आयोग ने शिक्षकों का प्रशिक्षण, इंटरमीडिएट कालेजों की स्थापना, हाई स्कूल और इंटरमीडिएट बोर्डों का संगठन, शिक्षा का माध्यम, ढाका में विश्वविद्यालय की स्थापना, कलकत्ते में कालेजों की व्यवस्था, वैतनिक उपकुलपति, परीक्षा, मुस्लिम शिक्षा, स्त्रीशिक्षा, व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा आदि विषयों पर सिफारिशें की। बंबई, बंगाल, बिहार, आसाम आदि प्रांतों में प्राथमिक शिक्षा कानून बनाये जाने लगे। माध्यमिक क्षेत्र में भी उन्नति होती गई। छात्रों की संख्या बढ़ी। माध्यमिक पाठ्य में वाणिज्य और व्यवसाय रखे दिए गए। स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट परीक्षा चली। अंग्रेजी का महत्व बढ़ता गया। अधिक संख्या में शिक्षकों का प्रशिक्षण होने लगा।
1916 तक भारत में पाँच विश्वविद्यालय थे। अब सात नए विश्वविद्यालय स्थापित किए गए। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा मैसूर विश्वविद्यालय 1916 में, पटना विश्वविद्यालय 1917 में, ओसमानिया विश्वविद्यालय 1918 में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय 1920 में, और लखनऊ और ढाका विश्वविद्यालय 1921 में स्थापित हुए। असहयोग आंदोलन से राष्ट्रीय शिक्षा की प्रगति में बल और वेग आए। बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, गौड़ीय सर्वविद्यायतन, तिलक विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, जामिया मिल्लिया इस्लामिया आदि राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना हुई। शिक्षा में व्यावहारिकता लाने की चेष्टा की गई। 1921 से नए शासनसुधार कानून के अनुसार सभी प्रांतों में शिक्षा भारतीय मंत्रियों के अधिकार में आ गई। परंतु सरकारी सहयोग के अभाव के कारण उपयोगी योजनाओं का कार्यान्वित करना संभव न हुआ। प्राय: सभी प्रांतों में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य करने की कोशिश व्यर्थ हुई। माध्यमिक शिक्षा में विस्तार होता गया परंतु उचित संगठन के अभाव से उसकी समस्याएँ हल न हो पाईं। शिक्षा समाप्त कर विद्यार्थी कुछ करने के योग्य न बन पाते। दिल्ली (1922), नागपुर (1923) आगरा (1927), आंध्र (1926) और अन्नामलाई (1926) में विश्वविद्यालय स्थापित हुए। बंबई, पटना, कलकत्ता, पंजाब, मद्रास और इलाहबाद विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन हुआ। कालेजों की संख्या में वृद्धि होती गई। व्यावसायिक शिक्षा, स्त्रीशिक्षा, मुसलमानों की शिक्षा, हरिजनों की शिक्षा, तथा अपराधी जातियों की शिक्षा में उन्नति होती गई।
अगले शासनसुधार के लिए सायमन आयोग की नियुक्ति हुई। हर्टाग समिति इस आयोग का एक आवश्यक अंग थी। इसका काम था भारतीय शिक्षा की समस्याओं की सागोपांग जाँच करना। समिति ने रिपोर्ट में 1918 से 1927 क प्रचलित शिक्षा के गुण और दोष का विवेचन किया और सुधार के लिए निर्देश दिया।
1930-1935 के बीच संयुक्त प्रदेश में बेकारी की समस्या के समाधान के लिए समिति बनी। व्यावहारिक शिक्षा पर जोर दिया गया। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दो वर्षों में से एक वर्ष स्कूल के साथ कर दिया जाए, जिससे पढ़ाई 11 वर्ष की हो। बाकी एक वर्ष बी.ए. के साथ जोड़कर बी.ए. पाठ्यक्रम तीन वर्ष का कर दिया जाए। माध्यमिक छह वर्ष के दो भाग हों - तीन वर्ष का निम्न माध्यमिक और तीन वर्ष का उच्च माध्यमिक। अंतिम तीन वर्षों में साधारण पढ़ाई के साथ साथ कृषि, शिल्प, व्यवसाय सिखाए जायँ। समिति की ये सिफारिशें कार्यान्वित नहीं हुई।
1937 में शिक्षा की एक योजना तैयार की गई जो 1938 में बुनियादी के नाम से प्रसिद्ध हुई। सात से 11 वर्ष के बालक बालिकाओं की शिक्षा अनिवार्य हो। शिक्षा मातृभाषा में हो। हिंदुस्तानी पढ़ाई जाए। चरखा, करघा, कृषि, लकड़ी का काम शिक्षा का केंद्र हो जिसकी बुनियाद पर साहित्य, भूगोल, इतिहास, गणित की पढ़ाई हो। 1945 में इसमें परिवर्तन किए गए और परिवर्तित योजना का नाम रखा गया 'नई तालीम'। इसके चार भाग थे - (1) पूर्व बुनियादी, (2) बुनियादी, (3) उच्च बुनियादी और (4) वयस्क शिक्षा । (भारतीय शैक्षिक संघ) पर इसका संचालनभार छोड़ दिया गया।
1945 में द्वतीय विश्वयुद्ध समाप्त होते होते सार्जेट योजना का निर्माण हुआ। छह से 14 वर्ष की अवस्था के बालकों तथा बालिकाओं के लिए अनिवार्य शिक्षा हो। जूनियर बेसिक स्कूल, सीनियर बेसिक स्कूल, साहित्यिक हाई स्कूल ओर व्यावसायिक हाई स्कूल की पढ़ाई 11 वर्ष की अवस्था से 17 वर्ष की अवस्था तक हो। इसके बाद विश्वविद्यालय में प्रवेश हो। डिग्री पाठ्यक्रम तीन वर्ष का हो। इंटरमीडिएट कक्षा समाप्त कर दी जाए। पाँच से कम अवस्थावालों के लिए नर्सरी स्कूल हो। माध्यम मातृभाषा हो।

भारत के लिये अंग्रेजों की शिक्षा नीति

प्राय: लोग इसे मैकाले की शिक्षा प्रणाली के नाम से पुकारते हैं। लार्ड मैकाले ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के ऊपरी सदन (हाउस आफ लार्ड्स) का सदस्य था। 1857 की क्रान्ति के बाद जब 1860 में भारत के शासन को ईस्ट इण्डिया कम्पनी से छीनकर महारानी विक्टोरिया के अधीन किया गया तब मैकाले को भारत में अंग्रेजों के शासन को मजबूत बनाने के लिये आवश्यक नीतियां सुझाने का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया था। उसने सारे देश का भ्रमण किया। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यहां झाडू देने वाला, चमड़ा उतारने वाला, करघा चलाने वाला, कृषक, व्यापारी (वैश्य), मंत्र पढ़ने वाला आदि सभी वर्ण के लोग अपने-अपने कर्म को बड़ी श्रद्धा से हंसते-गाते कर रहे थे। सारा समाज संबंधों की डोर से बंधा हुआ था। शूद्र भी समाज में किसी का भाई, चाचा या दादा था तथा ब्राहमण भी ऐसे ही रिश्तों से बंधा था। बेटी गांव की हुआ करती थी तथा दामाद, मामा आदि रिश्ते गांव के हुआ करते थे। इस प्रकार भारतीय समाज भिन्नता के बीच भी एकता के सूत्र में बंधा हुआ था। इस समय धार्मिक सम्प्रदायों के बीच भी सौहार्दपूर्ण संबंध था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1857 की क्रान्ति में हिन्दू-मुसलमान दोनों ने मिलकर अंग्रेजों का विरोध किया था। मैकाले को लगा कि जब तक हिन्दू-मुसलमानों के बीच वैमनस्यता नहीं होगी तथा वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत संचालित समाज की एकता नहीं टूटेगी तब तक भारत पर अंग्रेजों का शासन मजबूत नहीं होगा।
भारतीय समाज की एकता को नष्ट करने तथा वर्णाश्रित कर्म के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए मैकाले ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बनाया। अंग्रेजों की इस शिक्षा नीति का लक्ष्य था - संस्कृत फारसी तथा लोक भाषाओं के वर्चस्व को तोड़कर अंग्रेजी का वर्चस्व कायम करना। साथ ही सरकार चलाने के लिए देशी अंग्रेजों को तैयार करना। इस प्रणाली के जरिए वंशानुगत कर्म के प्रति घृणा पैदा करने और परस्पर विद्वेष फैलाने की भी कोशिश की गई थी। इसके अलावा पश्चिमी सभ्यता एवं जीवन पद्धति के प्रति आकर्षण पैदा करना भी मैकाले का लक्ष्य था। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में ईसाई मिशनरियों ने भी महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। ईसाई मिशनरियों ने ही सर्वप्रथम मैकाले की शिक्षा-नीति को लागू किया।


स्वतंत्रता के बाद

आजादी के बाद राधा कृष्ण आयोग (१९४८-४९), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग  (१९५३), कोठारी शिक्षा आयोग (१९६४), शिक्षा की राष्ट्रीय नीति (१९६८) एवं नवीन शिक्षा नीति (१९८६) आदि के द्वारा भारतीय शिक्षा व्यवस्था को समय-समय पर सही दिशा देनें की गंभीर कोशिश की गयी।
1948-49 में विश्वविद्यालयों के सुधार के लिए विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग की सिफारिशों को बड़ी तत्परता के साथ कार्यान्वित किया गया। उच्च शिक्षा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। पंजाब, गौहाटी, पूना, रुड़की, कश्मीर, बड़ौदा, कर्णाटक, गुजरात, महिला विश्वविद्यालय, विश्वभारती, बिहार, श्रीवेकंटेश्वर, यादवपुर, वल्लभभाई, कुरुक्षेत्र, गोरखपुर, विक्रम, संस्कृत वि.वि. आदि अनेक नए विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात्‌ शिक्षा में प्रगति होने लगी। विश्वभारती, गुरुकुल, अरविंद आश्रम, जामिया मिल्लिया इसलामिया, विद्याभवन, महिला विश्वक्षेत्र में प्रशंसनीय वनस्थली विद्यापीठ आधुनिक भारतीय शिक्षा के विद्यालय, और प्रयोग हैं।
1952-53 में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की उन्नति के लिए अनेक सुझाव दिए। माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन से शिक्षा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई।
 

Dec 14, 2013

 

 मनमोहन, सोनिया और राहुल की "दीवार"


1975 की प्रसिद्द फिल्म ‘दीवार’ का वह दृश्य याद कीजिये, जिसमें मंदिर में मां की पूजा के बाद अमिताभ और शशिकपूर दो अलग अलग रास्तों पर नौकरी के लिये निकल जाते हैं। अमिताभ एक ऐसे रास्ते चल पड़ता है, जहां पैसा है, सुविधा है। वहीं पैसा बनाने के इस धंधे में अपराध करते अमिताभ को रोकने के लिये उसी का भाई शशि कपूर सामने आता है। न्याय और अपराध के खिलाफ शशिकपूर की पहल को मां की हिम्मत मिलती है। अमिताभ मारा जाता है लेकिन उसका दम उसी मां की गोद में निकलता है, जिसकी हिम्मत से शशिकपूर अमिताभ पर गोली दागता है।

कांग्रेस को लेकर जनादेश के डायलॉग भी कुछ इसी तरह की एक नयी राजनीति गढ़ रहे हैं। जिसमें मनमोहन और राहुल गांधी के कामकाज के रास्ते अलग अलग हैं। मनमोहन उस अर्थव्यवस्था से समाज को विकसित बनाने निकले हैं, जिसमें देश के भीतर दो देश बनने ही हैं। वहीं, राहुल देश के भीतर चौड़ी होती इस खाई को पाटना चाहते हैं। वह न्याय और सुशासन का ऐसा मेल राजनीति में चाहते हैं, जहां चकाचौंध से पहले सबका पेट भरा हुआ हो। और सोनिया राहुल को हिम्मत दे रही हैं।

मनमोहन, राहुल और सोनिया गांधी की इस राजनीति को पांच साल के कामकाज के बाद ही ऐसी सफलता मिलेगी, यह उन राजनीतिक दलो ने सोचा भी न था जो मंडल-कमंडल के फार्मूले तले सत्ता की मलाई पिछले बीस साल से चखते रहे। असल में राहुल न्याय और सुशासन के जरिये जिस अलोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल उठा रहे हैं, वह मनमोहन की राजनीति का ही किया-धरा है। कह सकते है- पैसे से पैसा बनाने के मनमोहनोमिक्स के सामानांतर राहुल की रोजी रोटी की इमानदारी को कुछ इस तरीके से खड़ा किया गया है, जो बीस साल के फार्मूले को तोड़ सकती है।

सवाल यह नही है कि इस बार चुनाव में जनादेश के जरिये वोटर ने ही राजनीतिक दलों की उस मुश्किल को आसान कर दिया जो गठबंधन के दौर में सौदेबाजी दर सौदेबाजी में उलझती जा रही थी। और हर राजनीतिक दल मुश्किल के दौर में हाथ खड़ा कर संसदीय राजनीति की त्रासदी भरी वर्तमान स्थिति का आईना सभी को दिखाता रहा। दरअसल, इस दौर में पहली बार कांग्रेस के भीतर ही उस राजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयास शुरु हुआ, जिसमें कांग्रेस के महज बड़ी पार्टी होने भर का मिथ टूटे और एकला चलो की रणनीति का राजनीतिक प्रयोग सफल हो। लेकिन सत्ता तक पहुंचने और सत्ता चलाने की चुनौती अब उसी दो राहे पर कांग्रेस को खड़ा करेगी, जैसे अमिताभ को अंडरवर्ल्ड की कुर्सी ऐसे वक्त मिलती है, जब शशिकपूर को पुलिस की नौकरी इधर उधर भटकने और दर दर नौकरी के लिये ठोंकरे खाने के बाद मिलती है । मनमोहन सिंह की जीत उस अनिश्चय भरे माहौल से निजात पाने वालों को सुकून दे रही है, जो आर्थिक मंदी के दौर में लगातार सबकुछ गंवाते हुये समझ ही नहीं पा रहे थे कि राजनीति का उलटफेर उन्हें खुदकुशी की तरफ न ले जाये । उसपर वामपंथियो की हार ने उन्हे उल्लास से भर दिया। वजह भी यही है कि जनादेश के बाद सोमवार को जब शेयर बाजार खुला तो एक मिनट में तीन हजार करोड के वारे-न्यारे का लाभ छह लाख करोड रुपये तक जा पहुंचा।

जाहिर है यह सलामी मनमोहनोमिक्स को है, लेकिन यह चकाचौंध राहुल की राजनीति के लिये टीस भी है। राजनीतिक तौर पर जो प्राथमिकता मनमोहन सिंह की है, उसी पर तिरछी रेखा की तरह राहुल की प्राथमिकता उभरती है। मनमोहन सिंह को मंदी का डर लोगों के जहन से निकालना है। सरकारी पूंजी के जरीये बेल-आउट की व्यवस्था पहले करनी है फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर की मजबूती का सवाल उठाकर उन सेक्टरों को मजबूती देनी है, जो मंदी की मार से निढाल हैं। अंतराष्ट्रीय बाजार से आहत निर्यात करने वालो के मुनाफे को देश के भीतर की अर्थव्यवस्था से भी जोड़ना है और बीपोओ से लेकर रोजगार की उसी लकीर को मजबूत करते हुये दिखाना-बताना है, जिससे राहुल के चकाचौंध युवा तबके का सपना बरकरार रहे। इन सवालो में आंतरिक सुरक्षा से लेकर शेयर बाजार की गारंटी सुरक्षा का ढांचा भी खड़े करना है, जिससे लचीली अर्थव्यवस्था की मजबूती नजर आने लगे।

वहीं, राहुल गांधी का राजनीतिक संवाद ठीक उसके उलट है। सरकार का पैसा आम आदमी तक बिना रोक-टोक के पहुंच जाये, इसकी व्यवस्था उन्हें पहले करनी है। इस व्यवस्था का मतलब है नौकशाही पर लगाम और सामूहिक जिम्मदारी का खांचा खड़ा करना। दूसरा सवाल दलित-पिछड़ों की रोजी रोटी के जुगाड़ से लेकर रोजगार की व्यवस्था का एक ऐसा खांका खड़ा करना है, जो नरेगा से आगे ले जाये और सामाजिक विकास में एक तबके को दूसरे तबके से जोड़ सके। यह ग्रामीण परिवेश में स्वालंबन देने सरीखा भी है। किसान को बाबुओ की फाइल से होते हुये मुख्यधारा से जोड़ना कितना मुश्किल काम है, इसका एहसास राहुल गांधी को विदर्भ में किसानों से मुलाकात में भी मिला होगा। जहां मनमोहन सरकार का राहत पैकेज किसानों को आहत ज्यादा कर गया। खुदकुशी करने वाले किसानो की संख्या में पैकेज के ऐलान के बाद इजाफा हो गया। असल में राहत के नाम पर बडे उघोगों को ही राहत मिल सकती है, जो बेल-आउट को कम होते अपने मुनाफे से जोडते हैं, जबकि किसान के लिये राहत न्यूनतम जरुरत से जुड़ा होता है, जिसके बदले राजनीति अपना लाभ साधती है। राहुल की राजनीति को इसमें सेंध लगानी है। मनमोहन की प्राथमिकता औघोगिक विकास को बढाना होगा । जिसके लिये कृर्षि अर्थव्यवस्था पर चोट होगी। खेती योग्य जमीन भी उघोगो और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये खत्म की जायेगी। जबकि राहुल की सोच को अमली जामा पहनाने के लिये खेती से औघोगिक विकास को जोड़ना होगा। कृषि उत्पादन में वृद्दि किये बगैर औघोगिक विकास संभव तो है, लेकिन इसे भारत जैसे देश में बरकरार नही रखा जा सकता है। पारंपरिक अर्थव्यवस्था अपनानी होगी। कपास की पैदावार बढती है, तो कपडा उघोग बढ़ता है। जूट की पैदावार बढेगी तो जूट उघोग बढेगा। चीनी,खाने के तेल का उत्पादन,घी, बीडी, सरीखे सैकडो ऐसे उघोग है जो कृषि पर टिके है ।

राहुल की जिस थ्योरी को जनादेश मिला है उसमें देश की वर्तमान स्थिति पर सवालिया निशान लगाना भी है। क्योकि मनमोहनोमिक्स तले जो बेकारी, असमानता , गैरबराबरी बढ़ती गयी है, उससे समाज के भीतर आर्थिक कुंठा की स्थिति भी पैदा हुई है। इससे विकास भी रुका है और गतिरोध की स्थिति में कई ऐसे बुरे नतीजे भी निकले हैं, जो राहुल की राजनीति में भी दुबारा सेंध लगा सकते हैं। समाज के अंदर विभिन्न वर्ग है, आर्थिक विभाग है,धार्मिक अल्पसंख्यक गुट है और खास कर के प्रादेशिक और भाषिक गुट है, इनमें तनाव बहुत तेजी से बढ़ा है।

सवाल यह नहीं है कि मनमोहन की अर्थव्यवस्था सिर्फ आर्थिक खुशहाली के जरीये समाधान देखती है। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी की थ्योरी भी आर्थिक समृद्दि के जरीये सामाजिक, भाषिक, धार्मिक, राष्ट्रीय जैसे सारे सवालो का हल देख रही है । असल में राहुल की थ्योरी लागू हो जाये तो इन सवालो को सुलझाना आसान हो जायेगा। अन्यथा आर्थिक तनाव इतने ज्यादा हैं कि आंदोलन की राह पर हर तबका चल पड़ेगा और जिस जनादेश ने कांग्रेस को राजनीतिक राहत दी है, पांच साल बाद फिर बंदर बांट की राजनीति शुरु हो जायेगी । सवाल है कि अगर वाकई न्याय और सुशासन की हिमम्त राहुल को मिली है तो उसी कांग्रेस को उस भूमि सुधार के मुद्दे को छूना होगा, जिससे नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी तक ने परहेज किया। राहुल को भूमि-धारण सीमा के कानून को, वितरण के कानून को लागू करने की इच्छा शक्ति दिखानी होगी। जमींदारो का प्रभाव अभी भी अदालतो पर है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। राजनीति के सामानातंर अदालते भी पहल करें तो संपत्ति के प्रति मोह और पूंजीपरस्त वातावरण का वह मिथ टूट सकता है, जिसमें सत्ता और सरकार चलाने या डिगाने के पीछे पूंजी की सोच रेंगती रहती है। राजनीति ने तो हिम्मत नहीं दिखायी लेकिन जनादेश ने अर्से बाद यह महसूस कराया कि कारपोरेट सेक्टर की पूंजी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार कह तो सकती है, लेकिन बनाना उसी जनता के हाथ में है, जो सरकार की कारपोरेट नीतियो की मार तले दबा जा रहा है।

सवाल है फिल्म दीवार में तो न्याय की बात करने वाले शशिकपूर को मेडल दे कर पोयेटिक जस्टिस किया गया लेकिन वहां अमिताभ की मौत में मां की हार भी छुपी रही। वहीं, कांग्रेस में सोनिया का संकट यही है कि जबतक मनमोहन की नीतियां हैं तभी तक राहुल गांधी के पोयटिक जस्टिस के सवाल हैं। ऐसे में राहुल जिस दिन कमान थामेंगे, उस दिन सोनिया जीत कर हारेंगी या हार कर जीतेंगी यह राहुल के अब के कामकाज पर टिका है, जिस पर जनता की बडी पैनी निगाह है।
वाजपेयी-आडवाणी की राह पर मोदी ?
पीएम की दौड़ में नरेन्द्र मोदी जिस तेजी से सरदार पटेल को हथियाने में लगे हैं, उसने पहली बार यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि कहीं वाजपेयी और आडवाणी की राह पर ही तो मोदी नहीं चल पड़े हैं। क्योंकि जिस धर्मनिरपेक्षता को वैचारिक स्तर पर सरदार पटेल ने रखा उससे आरएसएस ने कभी इत्तेफाक नहीं किया। और संघ ने राष्ट्रवाद की जो परिभाषा गढ़ी उससे बिलकुल अलग सरदार पटेल का राष्ट्रवाद था। पटेल ने भारत के इतिहास को स्वर्णिम बनाने में सम्राट अशोक के बराबर ही मुगल सम्राट अकबर को भी मान्यता दी। और विभाजन के बाद जब दंगों को लेकर देश जल रहा था जब कई सभाओ में सरदार पटेल ने मुस्लिमो को यह कहकर चेताया कि जिन्हें पाकिस्तान जाना है, वह अब भी जा सकते है। लेकिन जब आप भारत में है तो फिर देश की अखंडता और संप्रभुता से खिलवाड करने नहीं दिया जायेगा। लेकिन साथ ही मुस्लिमों को यह भरोसा भी दिलाया कि हिन्दुओ के बराबर ही मुस्लिमों को भी अधिकार मिलेंगे। और इसमे सरकार कोई कोताही नहीं बरतेगी। ध्यान दे तो मोदी बेहद बारीकी से उसी राह को पकड़ना चाह रहे हैं जिस राह पर अटल बिहारी वाजपेयी पीएम बनते ही चल पड़े थे। पीएम बनने के बाद वाजपेयी ने संघ के मुद्दों पर कभी ध्यान नहीं दिया। आडवाणी ने जिन्ना के जरीये धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहना। और नरेन्द्र मोदी जब से पीएम पद के उम्मीदवार बने हैं, उन्होंने मंदिर मुद्दे को कभी नहीं उठाया। मंदिर से पहले शौचालय का मुद्दा उठाया। बुर्का और टोपी के साथ मुस्लिमों को रैली का खुला आमंत्रण भेजा। और अब सरदार पटेल की धर्मनिरपेक्षता की खुली वकालत कर दी। जाहिर है यह रास्ता संघ के स्वयंसेवक का नहीं हो सकता। तो क्या मोदी पीएम की दौड़ के लिये संघ का रास्ता छोड़ खुद को स्टेटसमैन के तौर पर रखना चाहते हैं। यानी मोदी सरदार पटेल के जरीये जो लकीर खींच रहे हैं, वह संघ को फुसलाती भी है और संघ को एक वक्त के बाद झिड़कने के संकेत भी देती है। लेकिन आरएसएस इस हकीकत को समझ रहा है कि मोदी इस वक्त सबसे लोकप्रिय स्वयंसेवक हैं तो सत्ता संघ के हाथ आ सकती है और मोदी इस सच को समझते हैं कि सत्ता पाने के लिये संघ का साथ जरुरी है। तो मोदी घालमेल की सियासी बिसात बिछा कर पहले राउंड में कांग्रेस के पांसे से ही कांग्रेस को घेरना चाह रहे हैं। जिससे संघ भी खुश रहे और उनकी छवि भी धर्मनिरपेक्ष बने।

ऐसा नही है कि मोदी ने पटेल के उन पत्रों को नहीं पढ़ा होगा, जो महात्मा गांधी की हत्या के बाद लिखे गये। पटेल ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद कहा था ,मेरे दिमाग में कोई शंका नहीं है कि हिन्दू महासभा के कद्दरवादी गुट ही इस सजिश में सामिल हैं। फिर कहा संघ की पहल सरकार और राज्य के लिये खतरा है। और यह भी कहा कि संघ के नेताओं के भाषण जहरीले होते हैं। उन्हीं के जहर का परिणाम है कि महात्मा गांधी की हत्या हुई। इतिहास के पन्नों को पलटने पर तब के सरसंघ चालक गुरु गोलवरकर के जवाब भी सामने आते हैं, जिसमें वह राष्ट्रवाद का जिक्र करते हैं।

लेकिन पहली बार नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को घेरेते हुये जो सवाल खड़ा किया उससे आरएसएस खुश हो सकता है क्योंकि मोदी ने सरदार पटेल की धर्मनिरपेक्षता को सोमनाथ मंदिर से यह कहकर जोड़ा कि "देश को सरदार पटेल वाला सेक्युलरिज़्म चाहिए. सोमनाथ का मंदिर बनाते हुए उनका सेक्युलरिज़्म आड़े नहीं आया." मोदी ने अपने भाषण में बार-बार जाति, क्षेत्र समेत तमाम तरह की एकता का जिक्र कर संघ के स्वयंसेवक से इतर अपने लिये एक राजनीतिक बिसात बिछाने की कोशिश जरुर की। जिससे यह ना लगे कि मोदी संघ के एजेडे पर है और मैसेज यही जाये कि पटेल के आसरे उनका कद भी गुजरात से बाहर बढ़ रहा है।

देरी से दस्तावेज पेश करने पर सीबीआइ पर 10 हजार रुपये का जुर्माना

 
(राज्य ब्यूरो, नई दिल्ली :आशीष शुक्ला ) राष्ट्रमंडल खेल घोटाले में केस से जुड़े दस्तावेजों को देरी से अदालत के समक्ष पेश करने पर पटियाला हाउस कोर्ट ने सीबीआइ को कड़ी फटकार लगाई है।
विशेष जज रविंद्र कौर ने उक्त मामले को गंभीरता से लेते हुए सीबीआइ पर 10 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया है। अदालत ने फैसले में कहा कि सीबीआइ को यह राशि प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा करानी होगी।
अदालत ने यह आदेश उस समय जारी किया, जब सीबीआइ ने इस केस में राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति द्वारा आइटीडीसी और टाइम लाइन प्रोडक्शन को दिए गए पैसे से संबंधित दस्तावेजों को अदालत के समक्ष पेश करने की अनुमति मांगी। यह पैसा समारोह की वीडियो कवरेज के लिए दिया गया था। अदालत ने कहा कि ऐसी स्थिति में जब केस की लगभग आधी सुनवाई हो चुकी हो, कोई दस्तावेज पेश करना उचित नहीं है। मामले में सीबीआइ को ये दस्तावेज काफी पहले ही चार्जशीट के साथ पेश करने चाहिए थे। ऐसे में दस्तावेजों को अदालत के समक्ष दाखिल करने में की गई देरी दंडनीय अपराध है।

Dec 13, 2013


अब आदमपुर में 2500 टन सोने की खोज करवाना चाहते हैं शोभन सरकार

 (आशीष शुक्ला )

उन्नाव के डौंडियाखेड़ा स्थित किले के नीचे अरबों का खजाना दबा होने का दावा करने वाले संत शोभन सरकार ने अब आदमपुर में गंगा किनारे 2500 टन सोना दबा होने और इसका सर्वे करवाने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर फतेहपुर के आदमपुर में गंगा किनारे 2500 टन सोना दबा होने का दावा करते हुए सर्वे कराने की अनुमति मांगी है। उनका कहना है कि इसके लिए खुदाई और सुरक्षा में होने वाले खर्च को वे वहन करने को तैयार हैं।

संत शोभन सरकार की ओर से याचिका उनके शिष्य ओमबाबा ने दाखिल की है। याचिका बुधवार को न्यायमूर्ति वीके शुक्ल और न्यायमूर्ति सुमित कुमार की कोर्ट में पेश हुई। हालांकि दोनों जजों ने निजी कारणों से इस याचिका की सुनवाई करने से इनकार कर दिया और इसे अन्य पीठ को दिए जाने का आदेश करते हुए मुख्य न्यायाधीश के पास भेज दिया। याची की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता उमेश नारायण शर्मा व चंदन शर्मा बहस करेंगे।
याची शोभन सरकार का कहना है कि उन्होंने आदमपुर में सोना दबा होने का सर्वे कराने के लिए प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री व जिलाधिकारी सहित कई विभागों को पत्र लिखा है। इस पर 20 अक्टूबर को टीम कानपुर के लिए रवाना भी हुई थी। सर्वे का खर्च 7 लाख 86 हजार 652 रुपये याची ने जमा भी कर दिए हैं। इस राशि के अलावा यातायात खर्च 84 हजार 400 व आईआईटी, कानपुर को 3 लाख 37 हजार 80 रुपये दिए गए हैं। वह सुरक्षा से भी जुड़े खर्च उठाने को तैयार हैं। जिला प्रशासन से उन्हें अनुमति दिलाई जाए।

आइसीसी अवॉ‌र्ड्स 2013: पुजारा को 'इमर्जिग क्रिकेटर ऑफ द इयर' अवॉर्ड



 चर्चित आइसीसी अवॉ‌र्ड्स 2013 का आखिरकार आज ऐलान हो गया। इस बार इन अवॉ‌र्ड्स में भारत को सिर्फ दो ही पुरस्कारों से संतोष करना पड़ा है। भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धौनी को जहां पहले ही 'पीपुल्स च्वाइस अवॉर्ड' दिया जा चुका था वहीं, अवॉ‌र्ड्स के मुख्य समारोह में चेतेश्वर पुजारा को 'इमर्जिग क्रिकेटर ऑफ द् इयर' के पुरस्कार से नवाजा गया है। ऑस्ट्रेलियाई कप्तान माइकल क्लार्क ने इस बार के अवॉर्ड समारोह में सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरीं।
टीवी प्रसारण सेआइसीसी ने अपने जारी बयान में बताया, 'ऑस्ट्रेलियाई कप्तान माइकल क्लार्क को आज सर गार्फील्ड सोबर्स आइसीसी क्रिकेटर ऑफ द इयर की ट्रॉफी से सम्मानित किया गया है और उन्हीं को आइसीसी क्रिकेटर ऑफ द इयर के पुरस्कार से भी नवाजा गया है। इस बार के शो के मेजबानी पूर्व ऑस्ट्रेलियाई कप्तान रिकी पोंटिंग ने की है।' आपको बात दें कि इससे पहले मुंबई में घोषणा के दौरान भी माइकल क्लार्क को आइसीसी वनडे और टेस्ट टीम में जगह दी गई थी, जबकि उसी दौरान भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धौनी को 'पीपुल्स च्वाइस अवॉर्ड' से सम्मानित किया गया।
इस समारोह में क्लार्क को जहां टेस्ट क्रिकेटर ऑफ द इयर चुना गया वहीं, श्रीलंकाई दिग्गज कुमार संगकारा को वनडे क्रिकेटर ऑफ द इयर के पुरस्कार से नवाजा गया। भारतीय बल्लेबाज चेतेश्वर पुजारा ने अपना पहला आइसीसी अवॉर्ड भी जीत लिया। पुजारा को 'इमर्जिग क्रिकेटर ऑफ द इयर' का पुरस्कार दिया गया। गौैरतलब है कि पुजारा इसी साल मार्च में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ दोहरा शतक लगाने के बाद सबसे तेज 1000 रन बनाने वाले दूसरे भारतीय बल्लेबाज भी बने। 15 टेस्ट मैचों में पुजारा ने 65.50 की औसत से 1310 रन बनाए हैं। आइसीसी प्रमुख एलेन आइसैक ने सभी ज्यूरी सदस्यों, तमाम वोटिंग अकादमी और विजेताओं को धन्यवाद कहा।
विजेताओं की सूची:
आइसीसी क्रिकेटर ऑफ द इयर: माइकल क्लार्क (ऑस्ट्रेलिया)
आइसीसी टेस्ट क्रिकेटर ऑफ द इयर: माइकल क्लार्क (ऑस्ट्रेलिया)
आइसीसी महिला क्रिकेटर ऑफ द इयर: सूजी बेट्स (न्यूजीलैंड)
आइसीसी वनडे क्रिकेटर ऑफ द इयर: कुमार संगकारा (श्रीलंका)
आइसीसी इमर्जिग क्रिकेटर ऑफ द इयर: चेतेश्वर पुजारा (भारत)
आइसीसी एसोसिएट एंड एफीलिएट क्रिकेटर ऑफ द इयर: केविन ओ ब्रायन (आयरलैंड)
आइसीसी ट्वंटी20 इंटरनेश्नल परफॉरमेंस ऑफ द इयर: उमर गुल (पाकिस्तान)
आइसीसी महिला अंतरराष्ट्रीय टी20 क्रिकेटर ऑफ द इयर: साराह टेलर (इंग्लैंड)
आइसीसी स्पिरिट ऑफ क्रिकेट अवॉर्ड: महेला जयवर्धने (श्रीलंका)
आइसीसी अंपायर ऑफ द इयर: रिचर्ड केटेलबोरो
पीपल्स च्वाइस अवॉर्ड: महेंद्र सिंह धौनी (भारत


केजरीवाल से दूरी बना रहे अन्ना


नई दिल्ली।आशीष शुक्ला । वरिष्ठ समाजसेवी अन्ना हजारे ने इंडिया अगेंस्ट करप्शन के अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक मंच से दूरी बनाने के स्पष्ट संकेत दे दिए हैं। उन्होंने कहा है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जुड़ने के इच्छुक लोग सीधे रालेगण सिद्धि आकर उनसे मिलें। उन्होंने कहा कि राजनीति समाज को बेहतर भविष्य नहीं दे सकती। अब तक हजारे के नेतृत्व में चलाए जा रहे इस आंदोलन का मुख्यालय दिल्ली में था।
अन्ना ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के राजनीतिक रूप अख्तियार करने को लेकर पिछले तीन दिन में दूसरी बार टिप्पणी की है। पहली बार उन्हें एक वीडियो में दिखाया गया था, जबकि इस बार उन्होंने ब्लॉग के जरिये अपनी बात कही है। उन्होंने लिखा है कि पक्ष और विपक्ष में कोई भी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने को लेकर गंभीर नहीं है। हाल में जारी की गई पार्टियों की आय की सूची में छुपाए गए दानदाताओं के नाम से भी दलों की मंशा साफ पता चल रही है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर केंद्र में सत्तारूढ़ दल सहित कुछ अन्य दलों का कहना है कि इससे देश की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा, जबकि विपक्ष का कहना है कि इससे नुकसान होगा। दोनों ही वर्ष 2014 के आम चुनावों को ध्यान में रखकर एक-दूसरे की काट करने में लगे हैं। संसद में आठ से 25 सांसदों वाले कई क्षेत्रीय दल केंद्र सरकार पर विभिन्न पैकेज हासिल करने के लिए आए दिन दबाव बनाते रहते हैं। ऐसे लोग समाज के हित के लिए क्या कर सकते हैं।

Dec 12, 2013


दुनिया छोड़ गए अफ्रीका के गांधी

 (आशीष शुक्ला )


95 वर्षीय मंडेला ने अंतिम सांस अपने घर में ली। उनके निधन पर भारत सहित अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, इजरायल, मैक्सिको, जर्मनी और स्वीडन सहित कई देशों ने शोक व्यक्त किया। राजनीतिक हस्तियों के साथ ही खेल व मनोरंजन की दुनिया से जुड़े लोगों ने भी मंडेला की मृत्यु पर दुख जताया। शुक्रवार को उनका पार्थिव शरीर सैन्य अस्पताल ले जाया गया। शांतिनायक का अंतिम संस्कार 15 दिसंबर को पूर्वी केप प्रांत के कुनू में किया जाएगा।
दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जैकब जुमा ने गुरुवार रात मंडेला के निधन की घोषणा की। टेलीविजन पर राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने बताया कि हमारे प्रिय और लोकतांत्रिक देश के पहले संस्थापक राष्ट्रपति नेल्सन रोलिहलहला डालीभुंगा मंडेला अब हमारे बीच नहीं रहे। हमारे देश ने एक महान बेटे को खो दिया। हमारी जनता के सिर से पिता का साया उठ गया। मंडेला को राजकीय सम्मान के साथ विदाई दी जाएगी और राष्ट्रीय ध्वज झुका रहेगा। स्वतंत्रता के लिए उनके अथक संषर्घ और इंसानियत ने उन्हें महान बनाया।
अपने लोकप्रिय नेता के निधन से पूरा देश आहत हो उठा है। देश भर से लोग उनके अंतिम दर्शन और श्रद्धांजलि देने के लिए ह्यूटन स्थित उनके घर पहुंच रहे हैं। दुनिया भर में जहां उनके निधन पर शोक जताया जा रहा है, वहीं उनके चाहने वालों में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उन्हें सम्मान देने के लिए उनकी गौरव गाथाओं के गीतों पर नाच-गा रहे हैं। ऐसे लोग मंडेला की पार्टी अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) के हरी, पीली और काली पट्टी वाले झंडे ओढ़कर उनके संघर्ष के गीत गा रहे थे।
अल्पसंख्यक श्वेत शासन से दक्षिण अफ्रीका को मुक्ति दिलाने के लिए आंदोलन की अगुआई करने वाले मंडेला ने अपनी उम्र का एक चौथाई से ज्यादा समय कारागार में काटा। 27 साल तक जेल में बंद रहे पेशे से वकील और पूर्व बॉक्सर मंडेला ने ज्यादातर समय राबेन द्वीप स्थित जेल में बिताया था। दुनिया बेशक उन्हें संत की संज्ञा देती रही, लेकिन खुद उनके शब्दों में वह कोई संत नहीं थे। उन्होंने कहा था कि उन्हें संत के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है और जेल में बिताए दिनों के दौरान इसी बात ने उन्हें सबसे ज्यादा परेशान किया। 1994 में हुए दक्षिण अफ्रीका के पहले लोकतांत्रिक चुनाव में वह पहले अश्वेत राष्ट्रपति चुने गए।
1993 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जबकि भारत ने 1990 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा। मंडेला का जन्म 1918 में केप ऑफ साउथ अफ्रीका के पूर्वी हिस्से के एक छोटे से गांव म्वेजो के थेंबू समुदाय में हुआ था। उन्हें उनके कबीले वाले मदीबा नाम से पुकारते थे।
मंडेला फेफड़ों के संक्रमण से पीड़ित थे और वह करीब तीन महीने तक प्रिटोरिया अस्पताल में भर्ती रहे। इसके बाद सितंबर, 2013 से घर पर ही डॉक्टरों की टीम उनकी देखभाल कर रही थी। मंडेला महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत से प्रेरित थे। इसी वजह से उन्हें दूसरा गांधी भी कहा जाता है। उन्होंने हिंसा पर आधारित रंगभेदी शासन के खिलाफ संघर्ष के लिए अहिंसा को अपना हथियार बनाया। उनके निधन पर दक्षिण अफ्रीका में 10 दिन के शोक की घोषणा की गई है, जबकि भारत और अमेरिका ने अपने राष्ट्रध्वज को मंडेला के सम्मान में आधा झुकाने का एलान किया है। दक्षिण अफ्रीका में 8 दिसंबर को पूरे दिन प्रार्थना सभा होगी।


[आशीष शुक्ला] नई दिल्ली।

                 दिल्ली विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिलने और पार्टियों का एक-दूसरे को समर्थन न देने की स्थिति के बाद दिल्ली में नई सरकार के गठन को लेकर अनिश्चितता कायम है। वहीं, भाजपा और 'आप' एक-दूसरे को इस हालात के लिए जिम्मेदार भी ठहरा रहे हैं। ऐसी स्थिति में दिल्ली राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। इसबीच गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा कि उपराज्यपाल फैसला करने से पहले नई सरकार गठन के लिए सारे विकल्पों को तलाशेंगे।

वास्तविक स्थिति

दरअसल नई सरकार की गठन में आ रही अड़चन और इसके पीछे जो राजनीति दिखाई दे रही है वह यह कि विधानसभा परिणाम के बाद दोनों बड़ी पार्टियां भाजपा और 'आप' एक-दूसरे को इस हालात का जिम्मेदार तो ठहरा ही रहे हैं। साथ ही भाजपा 'आप' को सरकार न चलाने का अनुभव होने की बात कह रही है तो वहीं 'आप' भाजपा को कांग्रेस की तरह ही मान कर समर्थन देने से बच रही है। जबकि कांग्रेस हालात पर अपनी नजरें गड़ाए हुए है। दोनों पार्टी इस बात को लेकर आश्वस्त है कि यदि ऐसे हालात में नई सरकार का गठन नहीं होता है तो आगामी लोकसभा चुनाव के साथ ही फिर से दिल्ली विधानसभा का चुनाव हो ताकि वह पूर्ण बहुमत के साथ सरकार का बना सकें।
भाजपा के दिल्ली में पार्टी प्रभारी नितिन गडकरी ने कहा कि हमारे पास संख्या नहीं है। हम किसी विधायक को खरीदना नहीं चाहते हैं।' हर्षवर्धन ने कहा कि अगर गतिरोध जारी रहा तो भाजपा नये सिरे से चुनाव में जाने को तरजीह दे सकती है। उधर, अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वे विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे और अगर हालात बने तो चुनाव का सामना करना पसंद करेंगे। जहां भाजपा और आप दोनों ने कहा कि वे न तो किसी को समर्थन देंगे और न ही किसी से समर्थन लेंगे। वहीं, निवर्तमान मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने केजरीवाल के उस बयान का उल्लेख किया जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी न तो किसी से समर्थन लेगी और न ही किसी को समर्थन देगी।

भाजपा की रणनीति

वहीं, भाजपा ने अपनी रणनीति में यह साफ कर दिया है कि वे जोड़-तोड़ की राजनीति नहीं करेंगे। पार्टी हाईकमानों के अनुसार कांग्रेस इस समय नजरें गड़ाए बैठी है। अगर भाजपा कुछ भी इस तरह की हरकत करती है तो वे भाजपा पर निशाना साधेगी। हां, ये भी साफ कर दिया गया है कि अगर कोई विधायक अपने मन से भाजपा को समर्थन करने आएंगे तो इसमें उन्हें कोई ऐतराज नहीं होगा।

आप की मजबूरी

दूसरी तरफ अगर, आप पर विचार किया जाए तो उनके पास सत्ता चलाने का कोई अनुभव नहीं है। विपक्ष में बैठना और सत्ता चलाना, दोनों बहुत-बहुत अलग है। आप के लिए विरोध करना आसान काम है, जबकि सत्ता चलाना फिलहाल मुश्किल, क्योंकि उसके पास अनुभव की कमी है। ऐसे में भाजपा यह चाहेगी कि आप बाहरी समर्थन ही सही, लेकिन कांग्रेस का साथ लेकर आप सत्ता संभाले, जिससे जनता को उनकी असली ताकत का पता चल सके।

किसे मिलेगा फायदा

अगर दिल्ली में विधानसभा चुनाव दोबारा होता है तो इस बात की पूरी संभावना है कि वह लोकसभा चुनाव के साथ-साथ ही होगी। ऐसे में पूरा समीकरण ही दूसरा रहेगा। आप के लिए दोबारा चुनाव जीतना कतई आसान नहीं होगा। हां, इतना जरूर है कि आप को इस बात का भरोसा है कि उन्हें कुछ अन्य मध्यवर्गीय वोटर ग्रुप जरूर वोट डालेंगे, लेकिन भाजपा के पास भी यह हथियार है कि वे वोटर से यह बात कहकर पूरा समर्थन मांग सकते हैं कि हम मजबूत पार्टी हैं और अगर आपने पहले ही पूरा समर्थन दिया होता तो ऐसी नौबत नहीं आती। हमने सरकार इसलिए नहीं बनाया, क्योंकि हम जोड़-तोड़ की राजनीति नहीं करना चाहते।

अच्छे लोग अपनी पार्टी छोड़कर आएं, हम उनका स्वागत करेंगें _केजरीवाल

नई दिल्ली। आम आदमी पार्टी [आप] के संयोजक और विधायक दल के नेता अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि अच्छे लोग अगर अपनी पार्टी छोड़कर आएं तो हम उनका स्वागत करेंगे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पूरी पार्टी की राय है कि हम न तो किसी का समर्थन लेंगे और न ही किसी को समर्थन देंगे। वहीं, उन्होंने प्रशांत भूषण के बयान पर टिप्पणी करते हुए कहा कि वह उनका निजी बयान है। इससे पार्टी का कोई सरोकार नहीं है। गौरतलब है कि प्रशांत भूषण ने भाजपा को समर्थन की पेशकश की बात कही थी।
इससे पूर्व आप के नेता प्रशांत भूषण अपने दिए गए बयान से पलट गए। भाजपा को समर्थन की पेशकश वाले बयान पर अब उनका कहना है कि मेरे बयान को गलत ढंग से पेश किया गया है। उन्होंने कहा कि हम न तो समर्थन लेंगे और न ही किसी पार्टी को समर्थन देंगे। इसके पूर्व उन्होंने भाजपा को समर्थन की पेशकश की थी, जिसे पहले उनके ही दल ने और फिर भाजपा ने खारिज कर दिया था। मामला बढ़ता देख प्रशांत भूषण ने भी पलटी मारना ही उचित समझा।

Dec 10, 2013

संस्कृति का निर्माण

किसी देश की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। यह किसी खास व्यक्ति के पुरुषार्थ का फल नहीं, अपितु असंख्य ज्ञात तथा अज्ञात व्यक्तियों के भगीरथ प्रयत्न का परिणाम होती है। सब व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार संस्कृति के निर्माण में सहयोग देते हैं। संस्कृति की तुलना आस्ट्रेलिया के निकट समुद्र में पाई जाने वाली मूँगे की भीमकाय चट्टानों से की जा सकती है। मूँगे के असंख्य कीड़े अपने छोटे घर बनाकर समाप्त हो गए। फिर नए कीड़ों ने घर बनाये, उनका भी अन्त हो गया। इसके बाद उनकी अगली पीढ़ी ने भी यही किया और यह क्रम हजारों वर्ष तक निरन्तर चलता रहा। आज उन सब मूगों के नन्हे-नन्हे घरों ने परस्पर जुड़ते हुए विशाल चट्टानों का रूप धारण कर लिया है। संस्कृति का भी इसी प्रकार धीरे-धीरे निर्माण होता है और उनके निर्माण में हजारों वर्ष लगते हैं। मनुष्य विभिन्न स्थानों पर रहते हुए विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थाओं, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म, दर्शन, लिपि, भाषा तथा कलाओं का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करते हैं। भारतीय संस्कृति की रचना भी इसी प्रकार हुई है।

Dec 9, 2013

ये हैं जिंदगी
हसतें रहना हैं जिंदगी , खुद को पाना हैं जिदगी
मौसम से सुहाना हैं जिंदगी,अच्छा बुरा दिखाना हैं जिंदगी
कभी खुशी कभी गम ये फसाना है जिंदगी .......
ख्वाब को पाना हैं जिंदगी ,कर्तव्य कों निभाना हैं जिंदगी
कभी खुश कर जाती है जिंदगी ,कभी रुला जाती हैं जिंदगी
ये फसाना हैं जिंदगी ..ये फसाना हैं जिंदगी
खुद को दिखाना हैं जिंदगी ,खुद को छिपाना हैं जिंदगी
सब कुछ लाती हैं जिंदगी ,सब कुछ ले जाती हैं जिंदगी
कभी आसमा पर चढ़ाती हैं जिंदगी ,कभी जमी पर गिराती हैं जिंदगी
फूलो सी खिल जाती हैं जिंदगी ,कभी झा़र बन जाती हैं जिंदगी
क्या कुछ नही कराती हैं जिंदगी ,अच्छे-अच्छे को सबक सिखाती हैं जिंदगी
ये फसाना हैं जिंदगी................2
मौसम की तरह बदल जाती हैं जिंदगी ,पत्तो की तरह बिखर जाती हैं जिंदगी
सब कुछ कराती हैं जिंदगी ,मेरे दोस्त मुड़ कर देखो बुलाती हैं जिंदगी
संर्घष ही हैं जिंदगी .....ये फसाना हैं जिंदगी  ...............2
जीवन सुख-दु:ख खेल है ।
 
दुःख तथा सुख किस प्रकार हमारे भाग्य की दिशा तय करते हैं ।हमारे पास दुःख का सामना करने के सरल उपाय हमेशा मौजूद होते हैं । कभी हम शराब पीते हैं तो कभी सिगरेट । जबकि कुछ ऐसे भी लोग हैं , जो मानसिक दबाव का मुकाबला व्यायाम ,सैर आदि उपायों द्वरा करते है ।हमारे सपनों पर अक्सर असफलता के बादल छाए रहने की कोशिश करते हैं । हम अपने सपनों तथा उद्देश्यों के लिए जोखिम उठाने की अपेक्षा अपने पास जो कुछ है , उससे चिपके रहना चाहते हैं।  परन्तु अगर हम परेशानियों/दुःखों को दोस्त के रुप में स्वीकार करे तो फिर परेशानिया हमारा साथ छोड़ सकती है ।  हम यह सोचते हैं कि कुछ भी करें उससे कोई फर्क नही पडता परन्तु ऐसा करके तो हमें सिर्फ दुःख ही प्राप्त हैं। यह सच्चाई हैं कि संबंधों में बंधे रहना दुखद तो हैं ।लेकिन यदि हम इससे बाहर निकलते है । तब अपने आप को अकेला व सबसे अभागा महसूस करते हैं । पुराने दुखद अनुभवो को याद करते है  ,फिर इस बारे में कुछ करने के लिए आतुर हो जाते हैं ।परन्तु जब  कुछ नही कर पाते,तब अपने आप को भावुकता की दहलीज पर पाते है,व भावुकता के चरम बिंदु को छूने के बाद ही हम परेशानियों का सामना करने में सामर्थ हो पाते है । जीवन में हम कभी न कभी स्वयं को  क्रुद्ध ,कुंठित तथा संकट में पड़ा हुआ अवश्य महसूस करते हैं ।हमें अपने ध्यान के केंद्र बिंदु में परिवर्तन लाना होगा । शारीरिक अवस्था में बदलाव भी महत्वपूर्ण होता है, जब कोई गुस्सा तनाव या अवसाद की स्थिति में होता है ,तब प्रायःवह धूम्रपान , मद्धपान आदि नकारात्मक क्रियाओं की तरफ मुड़ जाता है । परन्तु इस नकारात्मक  अवस्था से निकलनें का सहज उपाय है,हम प्रायः व्यायाम, करके संगीत सुनके इससे छुटकारा पा सकते हैं ।   हमारा क्रेंदित ध्यान हमारी भावनाओं को निश्चित करता हैं ,हमारी भावनाएं ,सोच और हमारे ख्याल हमारी भावनाओं को निश्चित करता है । जीवन तो बस दुःख सुख का एक हिस्सा हैं।
पृथ्वी शॉ
            
मबंई के महज चौदह वर्ष के इस होनहार बच्चे नें रच डाला इतिहास ।
मुबंई के आजाद मौदान पर  शील्ड टूर्नामेंट में 330 गेंदो में 546 रन बना डाले
यह पहला अवसर है ।  जब किसी भारतीय बल्लेबाज ने यह कारनामा किया हो
पृथ्वी नें अपनी पारी में 85 चौके और 5 छंके लगाये ।
पृथ्वी अडंर -16 के कप्तान भी है ।यह वही टूर्नामेंट है जिसमे सचिन और कांबली नें
664 रन की साजेदारी की थी । कही न कही पृथ्वी में सचिन की छवि नजर आती है।