Dec 14, 2014

ज्ञान और सत्य में अंतर क्या....?
आशीष शुक्ला
 ज्ञान का स्वरूप : सम्मति, विश्वास है, जब हम किसी धारणा को सुनते हैं या उसका चिंतन करते हैं तो उस सबंध में हमारी वृत्ति इस प्रकार की होती है - हम उसे सत्य स्वीकार करते हैं या उसे असत्य समझकर अस्वीकार करते हैं। सत्य और असत्य में निश्चय नही कर पाते, तो स्वीकृति अस्वीकृति दोनों को विराम में रखते हैं। मनुष्य का लक्ष्य अनंत है, इसकी सिद्धि के लिये अनंतकाल की आवश्यकता है। आत्मा अमर है।
 जर्मनी के प्रसिद्ध  वैज्ञानिक, नीतिशास्त्री एवं दार्शनिक इमानुएल कांट ने अपनी विख्यात पुस्तक "शुद्ध बुद्धि की समालोचना" को इन शब्दों के साथ आरंभ किया है, इस बात में तो संदेह ही नहीं हो सकता कि हमारा सारा ज्ञान अनुभव के साथ आरंभ होता है। क्योंकि यह कैसे संभव है कि बोध शक्ति कुछ करने लगे, सिवाय इसके कि हमारी इंद्रियों को प्रभावित करनेवाले पदार्थ इसे यह क्षमता दें। परंतु यद्यपि हमारा सारा ज्ञान अनुभव के साथ आरंभ होता है, इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि सारा ज्ञान अनुभव की ही देन है। कांट ने अनुभव की बनावट में बुद्धि के भागदान पर बल दिया है। ऐसा करने पर भी, उसने आरंभ में कहा कि हमारा विचार प्रकटनों की दुनिया से परे नहीं जा सकता। मनुष्य सारभूत रूप में नैतिक प्राणी है। नीति की माँगें ये हैं- मनुष्य के कर्तव्य हैं, इसलिये उसमें कर्तव्यपालन की क्षमता है। वह स्वाधीन है। नीति की माँग यह है कि सदाचार और सुख संयुक्त हों। ऐसा संयोग हमारे वश में नहीं, परमात्मा ही ऐसा संयोग करने में समर्थ है,परमात्मा का अस्तित्व है। विज्ञानवाद बाह्य जगत् को कल्पना मात्र कहता है, इसके अनुसार सत्ता में चेतनाओं और चेतन अवस्थाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यदि कोई निर्णय शेष ज्ञान से संसक्त हो सकता है, तो वह सत्य है। यह अविरोधवाद है। आधुनिकवाद काल में अमरीका में व्यवहारवाद का प्रसार हुआ है। इसके अनुसार, जो धारणा व्यवहार में सफल सिद्ध होती है, वह सत्य है। सत्य कोई स्थायी वस्तु नहीं, जिसे हम देखते हैं, यह बनता है। ज्ञान के चार प्रत्यय हैं- आलंबन, समनंतर, अधिपति और सहकारी। बाह्य वस्तु ज्ञान का आलंबन कारण है। मानसिक आकृतियाँ उन्हीं से निर्मित होती हैं। ज्ञान के अव्यवहित पूर्ववर्ती मानसिक अवस्था से उत्पन्न चेतना समनंतर कारण है। इसके बिना ज्ञान की प्रतीति हो ही नहीं सकती है। प्लेटो ने अपना मत संवादों में व्यक्त किया है ज्ञानमीमांसा में विवेचन का विषय वैयक्तिक चेतना नहीं, अपितु सामाजिक चेतना बन जाती है। ज्ञान का अपना अस्तित्व तो असंदिग्ध है। ज्ञान का विषय ज्ञान से भिन्न है। धार्मिक विश्वासों पर जमें रहने के लिये मनुष्य हर प्रकार का कष्ट सहन कर लेता है। विश्वास और सम्मति दोनों वैयक्तिक कृतियाँ हैं, ज्ञान में यह परिसीमन नहीं होता। ज्ञान में संमति की आत्मपरकता का स्थान वस्तुपरकता ले लेती है। अनुभववाद के अनुसार सारा ज्ञान अंत में प्रभावों और उनके चित्रों से बनता है। प्रभाव में गुणबोध और वस्तुवाद का भेद कर सकते हैं, चित्र में प्रतिबिंब और प्रत्यय का भेद होता है। वास्तववाद के दो रूप हैं- साक्षातात्मक वास्तववाद और प्रतिबिंबात्मक वास्तववाद। पहले रूप में भ्रांति का अस्तित्व समस्या बन जाता है, दूसरे रूप में सत्य ज्ञान का समाधान नहीं होता। विज्ञानवाद अंदर और बाहर के भेद को समाप्त कर देता है।

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