Mar 24, 2015


और कितने टुकडे होगें भारत के..... ?

आशीष शुक्ला
24-3-2015
आज भारत को आजाद हुए लगभग सात दशक होने को हैं, परन्तु आज भी न तो वह आजाद है, और ना ही उसके टुकडे होने बंद हुए हैं। भारत की इस पावन धरती पर, ना सिर्फ बटवारा आज जोरो से हो रहा है, बल्कि समाज मे जातिगत-भेदभाव के आधार पर लगातार बटवारा होता आया है, वह आज भी हो रहा है। फिर एक राष्ट्र कैसे विकास करेगा? विकास तभी संभव है, जब समाज मे जातिगत भेदभाव ना हो, परन्तु भारत सदैव से ही इसका शिकार होता आया है, जिसके चलते वह विकास नही कर पाया और अगर समाज मे इसी तरह के जातिगत- भेदभाव लगातार होते रहे तो भारत कभी भी विकास नही कर पाएगा।
कहते हैं कि इंसान देखने और सुनने से समक्षता है, परन्तु भारत ना तो देखने से समझ रहा, और ना ही सुनने से, हलांकि इसमे इसका कोई दोष नहीं है। भारत मे मौजूद समाज के लोगों ने इसे अंधा बना दिया है। जब हमारे यहा कोई अमेरिका का नागरिक आता है, और जब हम उसका परिचय पूछते हैं तो, अमेरिकन बताएगा। ना कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, या इसाई। अगर हम बाहर जाते हैं, और कोई हमसे हमारा परिचय पूछता है तो, हम अपना परिचय जातिगत तरीके से देते हैं। समाज मे सदियों से पिछड़े वर्गों के साथ-लगातार अन्याय होता आया है, और गतिवत आज भी हो रहा है। हर किसी को जीने का अधिकार है, हर किसी को अपना मत रखने का अधिकार है, परन्तु जिस तरह से आज भारत पर जातिवाद हावी है, इससे ना तो पिछडा वर्ग कुछ बोल पाता है, और ना ही अपने आपको लोगों के समक्ष उठने का मौका पाता है।
क्या शिक्षा जाति को समाप्त कर सकती है? शिक्षा जाति को समाप्त कर भी सकती है और नहीं भी। जो शिक्षा आजकल दी जा रही है, अगर वही शिक्षा है, तो वह जाति पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती। जाति वैसी ही बनी रहेगी। इसका श्रेष्ठ उदाहरण ब्राह्मण जाति है। उनके अनुसार, ‘यह वह जाति है, जो शत-प्रतिशत शिक्षित है, बल्कि इसका बहुमत उच्च शिक्षितों का है। किंतु अभी तक एक भी ब्राह्मण ने स्वयं को जाति के विरुद्ध घोषित नहीं किया है। यह एक कडवा सच है कि क्षत्रिय और ब्राह्राणों ने सबसे ज्यादा दलितों का शोषण किया है। और जातिवाद को बढावा दिया है। जातिवाद ना जाने का एक कारण आरक्षण भी है, खास तौर से राजनैतिक आरक्षण। क्योंकि जातिविहीन और वर्ग- विहीन समाज के लिए नेतृत्व करने वाले बौद्धिक वर्ग को राजनैतिक आरक्षण ने निष्क्रिय बना दिया है। दूसरी ओर नौकरियों में आरक्षण ने जिस मध्यवर्ग को दलितों में विकसित किया है, उसकी सारी भागदौड़ अब उच्च वर्ग बनने की दिशा में है। जातिप्रथा ने हमें सिर्फ बर्बाद ही किया है। बुद्धिमान लोगो को तो इन जातिवादी शिक्षा के गढ़ों काशी, कांची, तिरुपति आदि के सारे पाखंडी, मक्कार, धूर्त जातिवादियों से ये सवाल करना चाहिए की ये सब बताएं की उस गुप्त ज्ञान से जो इन्हें इनका महान और दैवीय जन्म होने से भगवान से तोहफे में मिला था, इन्होने कौन सी महत्वपूर्ण खोज भारत देश और समाज की दी है? इन जात-पात के लम्पट ठेकेदारों ने इन सब विश्वप्रसिद्ध संस्थानों की महान वैज्ञानिक परंपरा का स्तर मिटटी में मिलाकर अपने घटिया किस्म की हथकंडे, तिकड़मबाजी और चालबाजी से इन्हें अपनी दक्षिणा का अड्डा बनाकर छोड़ दिया है। निष्पक्ष सोचने से पता चलेगा कि हमसे कहीं कम गुणी अंग्रेज सिर्फ हम पर ही नहीं लगभग आधी दुनिया पर केवल इसी वज़ह से राज कर पाए, कि उन्होंने अपने समाज के अन्दर नकली और घटिया भेदभाव को बिलकुल नकार दिया। और वो हमारे ढोंगी पंडो जैसे लोगों के चक्कर में नहीं पड़े। समाज मे संतुलन का आधार ज्ञान, धन और बल होता है। अगर ये तीनों किसी एक के हाथ मे केन्द्रित हो जाए तो समाज मे असंतुलन पैदा हो जाता है। इसी ज्ञान को आधार मानकर महान ऋषियों ने समाज को चार वर्णो (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) मे बांटा था। जातिवाद जैसी समस्या भारतीय समाज की एक ऐसी पहचान बन चुकी है, जिसे कई वर्षों के प्रयत्नों और शिक्षा के प्रसार-प्रचार के बावजूद मिटा पाना असंभव सा हो गया है। संविधान के अनुसार भारत के किसी भी निवासी के साथ जाति के नाम पर भेदभाव नहीं किया जाएगा और अगर कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो, उसे दंड दिया जाएगा। लेकिन संविधान का यह निर्देश मात्र एक अनुच्छेद बनकर ही रह गया और जाति प्रथा का स्वरूप दिनों-दिन घिनौना होता चला गया। आज यह एक ऐसे रूप में अपना सिर उठाए खड़ा है, जो मॉडर्न होते भारतीय समाज की दोहरी मानसिकता को साफ प्रदर्शित कर रहा है।
A.s Raja

( यह लेखक के अपने विचार हैं, लेखक युवा पत्रकार है) 

Mar 21, 2015

गीता से
(यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः भवति भारत, अभि-उत्थानम् अधर्मस्य तदा आत्मानं सृजामि अहम् । परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुस्-कृताम्, धर्म-संस्थापन-अर्थाय सम्भवामि युगे युगे ।)(टिप्पणीः श्रीमद्भगवद्गीता वस्तुतः महाकाव्य महाभारत के भीष्मपर्व का एक अंश है; इसके १८ अध्याय भीष्मपर्व के क्रमशः अध्याय २५ से ४२ हैं ।)
भावार्थः जब जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म आगे बढ़ने लगता है, तब तब मैं स्वयं की सृष्टि करता हूं, अर्थात् जन्म लेता हूं । सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनःस्थापना के लिए मैं विभिन्न युगों (कालों) मैं अवतरित होता हूं ।
मैं नहीं जानता कि ईश्वर होता है कि नहीं । जब कोई मुझसे पूछता है तो मेरा उत्तर स्पष्टतः अज्ञान का होता है, यानी साफ तौर पर मैं नहीं जानता ।हो सकता है ईश्वर हो । अथवा हो सकता है वह न हो और हम सदियों से उसके अस्तित्व का भ्रम पाले हुए हों । कोई भी व्यक्ति उसके अस्तित्व को प्रमाणित नहीं कर सकता है, और न ही उसके अनस्तित्वको । ऐसे प्रश्नों के संदर्भ में अपनी अनभिज्ञता जताना मेरी वैज्ञानिक सोच के अनुरूप है ।
जब ईश्वर के बारे में निश्चित धारणा ही न बन सकी हो तो श्रीकृष्ण के ईश्वरावतार होने-न-होने के बारे में भला क्या कहा जा सकता है ? ऐसी स्थिति में मैं युग-युग में जन्म लेता हूं ।कथन कितना सार्थक कहा जाऐगा ? लेकिन मान लेता हूं कि महाभारत का युद्ध हुआ था, उसमें भगवदावतार श्रीकृष्ण की गंभीर भूमिका थी, और उन्होंने अपने हथियार डालने को उद्यत अर्जुन को धर्मयुद्धलड़ने को प्रेरित किया । उन्होंने युद्धक्षेत्र में जो कुछ कहा क्या वह अर्जुन को युद्धार्थ प्रेरित करने भर के लिए था या उसके आगे वह एक सत्य का प्रतिपादन भी था ? दूसरे शब्दों में, उपर्युक्त दोनों श्लोकों में जो कहा गया है वह श्रीकृष्ण का वास्तविक मंतव्य था, या वह उस विशेष अवसर पर अर्जुन को भ्रमित रखने के उद्येश्य से था । जब मैं गंभीरता से चिंतन करता हूं तो मुझे यही लगता है कि ईश्वर धर्म की स्थापना के लिए पुनः-पुनः जन्म नहीं लेता है ! कैसे ? बताता हूं ।
मान्यता है कि महाभारत का युद्ध द्वापर युग के अंत में हुआ था । उसी के बाद कलियुग का आरंभ हुआ । चारों युगों में इसी युग को सर्वाधिक पाप का युग बताया जाता है । सद्व्यवहार एवं पुण्य का लोप होना इस युग की खासियत मानी जाती है । कहा जाता है पापकर्म की पराकाष्ठा के बाद फिर काल उल्टा खेल खेलेगा और युग परिवर्तन होगा । मैं बता नहीं सकता हूं कि कलियुग के पूर्ववर्ती सैकड़ों-हजारों वर्षों तक स्थिति कितनी शोचनीय थी, धर्म का ह्रास किस गति से हो रहा था, किंतु अपने जीवन में जो मैंने अनुभव किया है वह अवश्य ही निराशाप्रद रहा है । समाज में चारित्रिक पतन लगातार देखता आया हूं । देखता हूं कि लोग अधिकाधिक स्वार्थी होते जा रहे हैं और निजी स्वतंत्रता के नाम पर मर्यादाएं भंग करने में नहीं हिचक रहे हैं । सदाचरण वैयक्तिक कमजोरी के तौर पर देखा जाने लगा है । बहुत कुछ और भी हो रहा है ।
इस दशा में मेरे मन में प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण के उपर्युक्त कथनों के अनुसार तो उन्हें धर्म की स्थापना करने में सफल होना चाहिए था, तदनुसार अपने पीछे उन्हें एक धर्मनिष्ठ समाज छोड़ जाना चाहिए था । लेकिन हुआ तो इसका उल्टा ही । महाभारत की युद्धोपरांत कथा है कि कौरव-पांडवों का ही विनाश नहीं हुआ, अपितु श्रीकृष्ण के अपने वृष्णिवंशीय यादवों का भी नाश हुआ । सामर्थ्यवान्श्रीकृष्ण स्थिति को संभालने में असमर्थ सिद्ध हुए थे । अंत में निराश होकर उन्होंने अपने दायित्व अर्जुन को सौंप दिए और अग्रज बलभद्र के साथ वन में तपस्वी का जीवन बिताने चले गये । वहीं एक व्याध के हाथों उनकी मृत्यु हुई थी ।


(भूमि अधिग्रहण)

ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना संशोधन बिल को राज्यसभा में पेश करने का विचार तब तक के लिए टाल दिया है जब तक कि वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी से संबंधित विधेयक न पारित हो जाए। सरकार को उम्मीद है कि जीएसटी से संबंधित बिल कम जटिल होने के कारण पारित हो सकता है। वैसे भी इसके मूल बिल का प्रारूप संप्रग सरकार ने तैयार किया था और अगर च्यादा नहीं तो यह बिल भी भूमि अधिग्रहण विधेयक जितना ही महत्वपूर्ण है।
        भूमि अधिग्रहण बिल को फिलहाल टालने से भाजपा को प्रस्तावित संशोधनों के पक्ष में सहमति वाला जमीनी आधार तैयार करने के लिए अधिक समय मिल जाएगा। यह काम काफी कुछ इस पर निर्भर करेगा कि किसानों के मन में विश्वास का भाव कैसे भरा जाता है, जिनके साथ पिछली सरकारों ने खराब बर्ताव किया है।
        यह मेरे लिए एक रहस्य ही है कि क्यों भाजपा नेतृत्व ने सुधारों की पहली कड़ी के रूप में भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन करने को अपनी प्राथमिकता बनाया, जबकि उसे अच्छी तरह पता था कि आम चुनावों के पहले इस मसले पर कितनी संवेदनशीलता थी। शायद इस हड़बड़ी का कारण वरिष्ठ नौकरशाह थे जो औद्योगिक कोरिडोर तथा बुनियादी ढांचे से जुड़ी दूसरी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने की जल्दी में थे।
 यह भी हो सकता है कि भाजपा ने इन खबरों को भी सही रूप में नहीं लिया कि संप्रग सरकार के कई वरिष्ठ मंत्री अर्थव्यवस्था की कीमत पर जयराम रमेश की राजनीतिक बढ़त लेने की चाह के विरोधी थे। अटकलों के मुताबिक उनमें से कुछ ने अपना विरोध खुले रूप में जताया और कुछ ने गोपनीय तरीके से। यह भी हो सकता है कि दिल्ली के चुनावों के पहले भाजपा में उभरी आरामतलबी ने भी कुछ असर किया हो। मैंने खुद दिसंबर में भाजपा के जश्न वाले मूड को करीब से देखा था। पार्टी के लिए अब यह साफ हो जाना चाहिए कि यह एक गलती थी। इस समय विपक्षी दलों में से
अधिकांश अपनी अवसरवादिता के कारण ही सही, लेकिन इस एक मुद्दे पर एक दूसरे के करीब आ गए हैं फिर चाहे वह तृणमूल कांग्रेस से लेकर माकपा हो अथवा कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी। यह आश्चर्यजनक है कि मोदी सरकार ने यह कैसे सोच लिया कि वह 2013 में संप्रग सरकार द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून की खामियों को उभारकर इस मसले को एक प्रशासनिक मुद्दे की तरह हल करने में कामयाब हो जाएगी? निश्चित ही सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 राजनीतिक दलों का संयुक्त मार्च एक बड़ी चेतावनी है जिसने भाजपा के अभिमान और आत्मसंतुष्टि को हिलाने का काम किया। वैसे तो संशोधन वाला विधेयक यथार्थपरक है, लेकिन भाजपा को विपक्ष के सामने यह बात अनिवार्य तौर पर साफ करनी चाहिए कि वह भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधनों से पीछे नहीं हटेगी।
        2013 में बनाए गए खराब भूमि अधिग्रहण कानून में यह संशोधन इसलिए भी आवश्यक हैं ताकि इसके मुख्य आर्थिक लक्ष्य को हासिल किया जा सके। इससे बुनियादी ढांचे संबंधी बाधाओं को दूर किया जा सकेगा और विनिर्माण तथा आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी। इसके साथ ही मोदी सरकार को गरीब किसानों के एक बड़े समूह को इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे विपक्षी दलों से मुकाबले की प्रतिबद्धता दिखानी होगी। किसान इस समय अपनी जमीन से मिलने वाले कम लाभ, मौसमी कृषि श्रमिकों को कम भुगतान तथा मनरेगा पर निर्भरता के चलते मुश्किल से अपना जीवन निर्वाह कर पाने की स्थिति में हैं।

 भाजपा को अवश्य ही लोगों को स्पष्ट करना चाहिए कि भूमि अधिग्रहण कानून ग्रामीण आबादी के लिए चिंता का विषय नहीं बनेगा, क्योंकि आखिरकार उसे भी अपने क्षेत्र में उद्योगीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास का लाभ मिलेगा। लोगों को यह बताए जाने की जरूरत है कि भूमि अधिग्रहण के बजाय भारतीय कृषि के लिए कुछ अन्य मुद्दे अधिक चिंताजनक हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि भूमि अधिग्रहण से बमुश्किल 10 फीसद किसान ही प्रभावित होंगे जिनके पास शहरी क्षेत्रों के आसपास वाले इलाकों में बड़े आकार वाले भूखंड हैं।
शेष 90 फीसद किसान खराब फसल उत्पादन, बाजार तक पहुंच की सुविधा के अभाव, मूल्यों में अस्थिरता, कम मजदूरी, अस्थिर मौसमी रोजगार और व्यापक बुनियादी और शैक्षिक सुविधाओं की कमी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन से इन सभी कमजोर किसानों को लाभ होगा।
यह भाजपा और उसके सहयोगी दलों पर निर्भर करता है कि वे इस घटनाक्रम को ग्रामीण क्षेत्र के हित में पेश करें और आर्थिक विकास के समर्थन में गरीब किसानों को अपने पक्ष में करें। इस तरह अवसरवादी राजनीतिक नेताओं द्वारा लोगों को बरगलाने से निजात पाई जा सकेगी। भारतीय किसान सदैव राष्ट्रवादी रहे हैं। निश्चित ही वे विकास के लिए ईमानदार प्रयासों का पूरे दिल से समर्थन करेंगे। वे इसमें अपनी सहभागिता चाहेंगे, न कि राजनीति का एक मोहरा बनना। उन्हें संगठित करने के प्रयासों से न केवल इसे आर्थिक मुद्दा बनाया जा सकेगा, बल्कि नैतिक स्तर पर लोगों के मौलिक अधिकारों की चिंताओं का भी समाधान किया जाना संभव होगा। यह एक कठिन कार्य है, लेकिन इसे छोड़ा भी नहीं जा सकता।

 भाजपा को चाहिए कि वह सदस्यता अभियान के तहत बनाए गए अपने छह करोड़ नए पार्टी सदस्यों से इस बारे में बात करे और उनके विचारों को जाने। संभवत: यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक आंदोलन है जिसमें वे लंबे समय के लिए भाग लेंगे। जमीन का मामला सदैव ही भावनात्मक और राजनीतिक मुद्दा बना रहेगा। हालांकि इसका कुछ हद तक गैर राजनीतिकरण किया जा सकता है। पहले कदम के तौर पर किसानों को समझाना होगा कि सरकार नहीं चाहेगी कि व्यापक राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में उनके साथ संघर्ष हो।
 बुनियादी ढांचे के तीव्र और टिकाऊ विकास से अंतत: वे भी लाभान्वित होंगे। दूसरी बात, किसानों को आश्वस्त करें कि उन्हें क्षतिपूर्ति का लाभ मिलेगा और आजीविका प्रभावित होने पर रोजगार देने के वादे पर ईमानदारी से अमल होगा। तीसरी बात, प्रधानमंत्री खुद इस बारे में किसानों को आश्वस्त करें।
चौथी बात, सरकार जिला प्रशासन के माध्यम से कम से कम समय में सरकारी जमीन तथा जिले में स्थित सार्वजनिक इकाइयों की सूची तैयार करे। नई परियोजनाओं को अतिरिक्त पड़ी सरकारी भूमि पर ही लगाया जाए। पांचवीं बात यह कि राच्य सरकारें शहरी क्षेत्रों में खाली पड़ी जमीनों की जानकारी दें और बहुउद्देश्यीय उपयोग की छूट दें। यह भी सुनिश्चित किया जाए कि कोई भी अधिग्रहण बाजार दर से कम पर नहीं होगा। इससे तमाम भ्रष्टाचार पर रोक लग सकेगी। भारत में अनिवार्य रूप से भूमि बाजार का विकास होना चाहिए। इस काम के लिए संभवत: यह बिल्कुल सही समय है। भाजपा को चाहिए कि वह इस चुनौती को स्वीकार करे और किसी भी तरह अवसरवादी राजनीतिक विपक्ष के षड्यंत्रों का शिकार न हो।

[लेखक राजीव कुमार, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं]



गरीबी की राजनीति

22-3-2015


दिल्ली विधानसभा चुनावों के चौंकाने वाले परिणामों ने भारत में गरीबी की राजनीति को एक नई दिशा दी है। शायद यही वजह रही कि 2015-16 के आम बजट के बाद प्रत्येक विपक्षी दल ने भारतीय जनता पार्टी को गरीब और किसान विरोधी यानी अमीरों की पार्टी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बीते साल हुए लोकसभा चुनावों में सूपड़ा साफ होने के बाद अनिश्चितता से भरे राजनीतिक भविष्य को निहार रहे उत्तार प्रदेश और बिहार के क्षेत्रीय दलों को दिल्ली के चुनाव के बाद गरीबी की राजनीति में आशा की नई किरण दिखी है। भाजपा को अमीर समर्थक पार्टी बताकर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जदयू और राजद सभी इस नव वामपंथी विचारधारा के झंडाबरदार बन रहे हैं। लेकिन जिस आम आदमी पार्टी की सफलता को आधार मानकर ये दल इस रास्ते चलने की कोशिश कर रहे हैं वह रणनीति क्या उत्तार प्रदेश और बिहार में कारगर साबित होगी? भारत में समय के साथ गरीब और गरीबी के बदलते स्वरूप पर गौर करें तो लगता नहीं है कि इन दलों की यह रणनीति अधिक प्रभावी होगी। तथ्यों पर जाएं तो अर्थशास्त्री बीएस मिन्हास ने 1960 में गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 59 फीसद होने का अनुमान लगाया था। देश की जनसंख्या के इतने बड़े हिस्से के गरीब होने के कारण राजनेताओं को गरीबी की राजनीति करने का अवसर मिल गया। शायद इसी का नतीजा था कि उस वक्त की पूरी राजनीति गरीब समर्थक नीतियों के आसपास टिकी और इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा देकर 1971 के आम चुनावों को जीता। देश में गरीबों की तेजी से घटती संख्या ने निश्चित रूप से विशुद्ध गरीबी की राजनीति की चुनावी मारक क्षमता को कम किया है।

यह भी सच है कि आजादी के बाद से गरीबों की इच्छा, आकांक्षा का स्वरूप काफी हद तक बदला है। हरित क्रांति और आर्थिक उदारीकरण के पहले तक गरीबों की इच्छा-आकांक्षा रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित थी। लेकिन देश के विकास के साथ शिक्षा और संचार के साधनों की पहुंच ने इन आकांक्षाओं में भारी बदलाव ला दिया है। यह दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों से भली-भांति समझा जा सकता है। योजना आयोग के अनुमान के मुताबिक 2011-12 में दिल्ली में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या मात्र 9.9 फीसद है। इसके बावजूद आम आदमी पार्टी ने अपना पूरा चुनावी एजेंडा गरीबों को लक्ष्य बनाकर लोक-लुभावन बनाए रखा, क्योंकि दिल्ली में मध्यम वर्ग का एक बड़ा तबका गरीबी की मनोदशा का शिकार है। दिल्ली के सामाजिक परिवेश में इस श्रेणी के लोगों की आकांक्षाएं उच्च-मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की जीवन शैली से प्रभावित होती हैं। इसलिए दिल्ली में बीस-पच्चीस हजार रुपये मासिक कमाने वाला कोई भी परिवार खुद को मानसिक रूप से गरीबी की श्रेणी में ही रखता है और राजनीतिक दलों के ऐसे लोक-लुभावन वायदों से प्रभावित होता है, जो आप ने दिल्ली चुनाव में किए। वही दूसरी ओर उत्तार प्रदेश और बिहार में रहने वाले छोटे किसान और उद्यमी भी सामाजिक गौरव की वजह से दिल्लीवासियों की तर्ज पर गरीबी की मानसिकता में नहीं जीते इसलिए विशुद्ध गरीबी के नारे उन्हें तब तक प्रभावित नहीं करेंगे जब तक उनकी महत्वाकांक्षा को न संबोधित किया जाए। इसलिए सपा, बसपा, राजद और जदयू जैसे दलों को मुफ्त दवा, शिक्षा और आहार से आगे बढ़कर संपूर्ण विकास की दिशा में सोचना होगा।
1989 में मंडल राजनीति और 1992 के बाद देश में भाजपा के प्रसार में बढ़त होने तक कांग्रेस ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक गठबंधन के साथ गरीबी के नारे का पूरा राजनीतिक लाभ लेने में सफल रही। लेकिन मुलायम सिंह, मायावती, लालू यादव, नीतीश कुमार और कल्याण सिंह जैसे नेताओं के उभरने और सामाजिक न्याय की राजनीति के प्रभाव में आने के बाद उत्तार भारत के हिंदी भाषी इलाकों की राजनीतिक संरचना में बदलाव आया। पिछले तीन दशकों में धर्म और जाति के आधार पर हुए ध्रुवीकरण ने चुनावी राजनीति का चेहरा बदल कर गरीबी और आर्थिक विभाजन की राजनीति की प्रासंगिकता को काफी सीमित कर दिया है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण वामपंथी दलों का तेजी से घटता जनाधार है। राजनीति की इस दौड़ में विपक्षी दलों ने भाजपा को गरीब और किसान विरोधी पार्टी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जबकि सच्चाई सबके सामने है कि 2014 लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों को सिर्फ जनता की आकांक्षाओं तक ही सीमित रखकर भारी सफलता पाई। यहां यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि मोदी के समक्ष देश का विकास पहली प्राथमिकता है। चूंकि भाजपा को केंद्र की सत्ता में रहते हुए हर साल किसी न किसी राज्य में विधानसभा चुनाव लड़ना है इसलिए मोदी सरकार भी जनता की आकांक्षाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती। यही वजह है कि बजट में एक संतुलित नजरिया रखते हुए वित्तामंत्री अरुण जेटली ने हर वर्ग का ध्यान रखा है। हालांकि इसके बावजूद विपक्ष इसे मोदी सरकार की अमीर समर्थक छवि के तौर पर प्रस्तुत कर रहा है। सबके लिए पेंशन के तौर पर सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य बीमा, बचत को प्रोत्साहन और छोटे उद्यमियों के लिए मुद्रा बैंक जैसे उपायों की घोषणा खासतौर पर मध्य और निम्न वर्ग को ध्यान में रखते हुए की गई है। संसद में भाषण और भाजपा सांसदों को दिए गए निर्देशों में मोदी ने स्पष्ट कर दिया है कि आने वाले दिनों में भाजपा ने विपक्ष के इन प्रहारों का डटकर जवाब देने और सरकार के आमजन को लाभ देने वाले प्रयासों के प्रचार का मन बना लिया है।
पिछले कुछ वषरें में भारतीय मतदाता ने चुनावी पंडितों को लगातार चौंकाया है। इसलिए उत्तार प्रदेश और बिहार के आगामी चुनावों में गरीबी की राजनीति कितनी सफल होगी, यह बताना अभी जल्दी होगा, परंतु इतना निश्चित है कि जन आकांक्षाएं और सामाजिक ध्रुवीकरण अभी भी इन राज्यों की चुनावी राजनीति का अभिन्न हिस्सा है।

पानी का बंटवारा
22-3-2015


पानी के बंटवारे पर हरियाणा का विवाद केवल पंजाब और राजस्थान से ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से भी है। हालांकि भौगोलिक कारणों से स्थितियां एकदम विपरीत भी है। हरियाणा के पानी का हिस्सा पंजाब दबाए बैठा है और दिल्ली का आरोप रहा है कि हरियाणा उसके हिस्से का पानी देने में हमेशा आनाकानी करता रहा है जिसके कारण राष्ट्रीय राजधानी के लोगों को जल संकट झेलना पड़ रहा है। नवीनतम घटनाक्रम के तहत अपर यमुना रिवर बोर्ड की बैठक में हरियाणा के मुख्यमंत्री ने दो टूक कह दिया है कि दिल्ली को उतना ही पानी दिया जाएगा जितना उसका हिस्सा बनता है। प्रदेश के लोगों के हक को मार कर पड़ौसी को पानी देना किसी स्तर पर व्यावहारिक नहीं है।

 दिल्ली के मुख्यमंत्री हरियाणा से अतिरिक्त पानी की अपेक्षा कर रहे हैं दोनों सीएम के बीच अभी वार्ताओं का सिलसिला चलने की संभावना है लेकिन मुख्य सवाल यह है कि यमुना के जल पर दिल्ली और हरियाणा का जितना हिस्सा नियत किया गया, क्या आज के संदर्भ में उसकी प्रासंगिकता को परखा जा रहा है? क्या विविध कारण बता कर अतिरिक्त पानी के लिए दबाव बनाया जा सकता है? क्या इस दबाव का कोई कानूनी आधार बन सकता है? बात सीधी और स्पष्ट है कि दबाव की राजनीति का कोई असर या लाभ होने वाला नहीं।

हरियाणा अपने हिस्से का पानी मांगने के लिए पंजाब पर लगातार दबाव बनाता रहा लेकिन उसे मिला क्या? सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा जीतने, केंद्र, पंजाब और हरियाणा में एक ही पार्टी की सरकार होने जैसे अधिकतम अनुकूल कारकों-कारणों-आधारों के बावजूद हरियाणा की उम्मीदों-अपेक्षाओं पर हमेशा पानी फिरता रहा। राजस्थान भी जब-तब आंखें तरेरता है। दिल्ली भी यदि दबाव बनाने की मुद्रा में दिखे तो जरूरी हो जाता है कि हरियाणा अपना पक्ष, दावा और हक मजबूत करने के लिए तार्किक, व्यावहारिक और न्यायिक मोर्चाबंदी करे। दिल्ली को उसके हिस्से का पानी देने में संकोच न किया जाए पर साथ ही यह भी देखना होगा कि इस आपूर्ति से स्वयं उसके हित प्रभावित न हों। दिल्ली में पानी की मांग लगातार बढ़ रही है और आपूर्ति के परंपरागत स्त्रोत सिकुड़ रहे हैं, स्वाभाविक है कि पानी के लिए हरियाणा से उसकी अपेक्षाएं बढ़ती जाएंगी। जल बंटवारे पर प्रदेश को अपनी नीति व नीयत स्पष्ट रखते हुए यह भी सुनिश्चित करना होगा कि किसी तरह का दबाव प्रदेशवासियों के हितों को प्रभावित न कर पाए।

भरोसा जीतने का समय

22-3-2015


ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना संशोधन बिल को राज्यसभा में पेश करने का विचार तब तक के लिए टाल दिया है जब तक कि वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी से संबंधित विधेयक न पारित हो जाए। सरकार को उम्मीद है कि जीएसटी से संबंधित बिल कम जटिल होने के कारण पारित हो सकता है। वैसे भी इसके मूल बिल का प्रारूप संप्रग सरकार ने तैयार किया था और अगर च्यादा नहीं तो यह बिल भी भूमि अधिग्रहण विधेयक जितना ही महत्वपूर्ण है। भूमि अधिग्रहण बिल को फिलहाल टालने से भाजपा को प्रस्तावित संशोधनों के पक्ष में सहमति वाला जमीनी आधार तैयार करने के लिए अधिक समय मिल जाएगा। यह काम काफी कुछ इस पर निर्भर करेगा कि किसानों के मन में विश्वास का भाव कैसे भरा जाता है, जिनके साथ पिछली सरकारों ने खराब बर्ताव किया है।
यह मेरे लिए एक रहस्य ही है कि क्यों भाजपा नेतृत्व ने सुधारों की पहली कड़ी के रूप में भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन करने को अपनी प्राथमिकता बनाया, जबकि उसे अच्छी तरह पता था कि आम चुनावों के पहले इस मसले पर कितनी संवेदनशीलता थी। शायद इस हड़बड़ी का कारण वरिष्ठ नौकरशाह थे जो औद्योगिक कोरिडोर तथा बुनियादी ढांचे से जुड़ी दूसरी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने की जल्दी में थे। यह भी हो सकता है कि भाजपा ने इन खबरों को भी सही रूप में नहीं लिया कि संप्रग सरकार के कई वरिष्ठ मंत्री अर्थव्यवस्था की कीमत पर जयराम रमेश की राजनीतिक बढ़त लेने की चाह के विरोधी थे। अटकलों के मुताबिक उनमें से कुछ ने अपना विरोध खुले रूप में जताया और कुछ ने गोपनीय तरीके से। यह भी हो सकता है कि दिल्ली के चुनावों के पहले भाजपा में उभरी आरामतलबी ने भी कुछ असर किया हो। मैंने खुद दिसंबर में भाजपा के जश्न वाले मूड को करीब से देखा था। पार्टी के लिए अब यह साफ हो जाना चाहिए कि यह एक गलती थी। इस समय विपक्षी दलों में से अधिकांश अपनी अवसरवादिता के कारण ही सही, लेकिन इस एक मुद्दे पर एक दूसरे के करीब आ गए हैं फिर चाहे वह तृणमूल कांग्रेस से लेकर माकपा हो अथवा कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी। यह आश्चर्यजनक है कि मोदी सरकार ने यह कैसे सोच लिया कि वह 2013 में संप्रग सरकार द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून की खामियों को उभारकर इस मसले को एक प्रशासनिक मुद्दे की तरह हल करने में कामयाब हो जाएगी? निश्चित ही सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 राजनीतिक दलों का संयुक्त मार्च एक बड़ी चेतावनी है जिसने भाजपा के अभिमान और आत्मसंतुष्टि को हिलाने का काम किया। वैसे तो संशोधन वाला विधेयक यथार्थपरक है, लेकिन भाजपा को विपक्ष के सामने यह बात अनिवार्य तौर पर साफ करनी चाहिए कि वह भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधनों से पीछे नहीं हटेगी।
2013 में बनाए गए खराब भूमि अधिग्रहण कानून में यह संशोधन इसलिए भी आवश्यक हैं ताकि इसके मुख्य आर्थिक लक्ष्य को हासिल किया जा सके। इससे बुनियादी ढांचे संबंधी बाधाओं को दूर किया जा सकेगा और विनिर्माण तथा आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी। इसके साथ ही मोदी सरकार को गरीब किसानों के एक बड़े समूह को इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे विपक्षी दलों से मुकाबले की प्रतिबद्धता दिखानी होगी। किसान इस समय अपनी जमीन से मिलने वाले कम लाभ, मौसमी कृषि श्रमिकों को कम भुगतान तथा मनरेगा पर निर्भरता के चलते मुश्किल से अपना जीवन निर्वाह कर पाने की स्थिति में हैं। भाजपा को अवश्य ही लोगों को स्पष्ट करना चाहिए कि भूमि अधिग्रहण कानून ग्रामीण आबादी के लिए चिंता का विषय नहीं बनेगा, क्योंकि आखिरकार उसे भी अपने क्षेत्र में उद्योगीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास का लाभ मिलेगा। लोगों को यह बताए जाने की जरूरत है कि भूमि अधिग्रहण के बजाय भारतीय कृषि के लिए कुछ अन्य मुद्दे अधिक चिंताजनक हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि भूमि अधिग्रहण से बमुश्किल 10 फीसद किसान ही प्रभावित होंगे जिनके पास शहरी क्षेत्रों के आसपास वाले इलाकों में बड़े आकार वाले भूखंड हैं। शेष 90 फीसद किसान खराब फसल उत्पादन, बाजार तक पहुंच की सुविधा के अभाव, मूल्यों में अस्थिरता, कम मजदूरी, अस्थिर मौसमी रोजगार और व्यापक बुनियादी और शैक्षिक सुविधाओं की कमी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन से इन सभी कमजोर किसानों को लाभ होगा।
यह भाजपा और उसके सहयोगी दलों पर निर्भर करता है कि वे इस घटनाक्रम को ग्रामीण क्षेत्र के हित में पेश करें और आर्थिक विकास के समर्थन में गरीब किसानों को अपने पक्ष में करें। इस तरह अवसरवादी राजनीतिक नेताओं द्वारा लोगों को बरगलाने से निजात पाई जा सकेगी। भारतीय किसान सदैव राष्ट्रवादी रहे हैं। निश्चित ही वे विकास के लिए ईमानदार प्रयासों का पूरे दिल से समर्थन करेंगे। वे इसमें अपनी सहभागिता चाहेंगे, न कि राजनीति का एक मोहरा बनना। उन्हें संगठित करने के प्रयासों से न केवल इसे आर्थिक मुद्दा बनाया जा सकेगा, बल्कि नैतिक स्तर पर लोगों के मौलिक अधिकारों की चिंताओं का भी समाधान किया जाना संभव होगा। यह एक कठिन कार्य है, लेकिन इसे छोड़ा भी नहीं जा सकता। भाजपा को चाहिए कि वह सदस्यता अभियान के तहत बनाए गए अपने छह करोड़ नए पार्टी सदस्यों से इस बारे में बात करे और उनके विचारों को जाने। संभवत: यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक आंदोलन है जिसमें वे लंबे समय के लिए भाग लेंगे। जमीन का मामला सदैव ही भावनात्मक और राजनीतिक मुद्दा बना रहेगा। हालांकि इसका कुछ हद तक गैर राजनीतिकरण किया जा सकता है। पहले कदम के तौर पर किसानों को समझाना होगा कि सरकार नहीं चाहेगी कि व्यापक राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में उनके साथ संघर्ष हो। बुनियादी ढांचे के तीव्र और टिकाऊ विकास से अंतत: वे भी लाभान्वित होंगे। दूसरी बात, किसानों को आश्वस्त करें कि उन्हें क्षतिपूर्ति का लाभ मिलेगा और आजीविका प्रभावित होने पर रोजगार देने के वादे पर ईमानदारी से अमल होगा। तीसरी बात, प्रधानमंत्री खुद इस बारे में किसानों को आश्वस्त करें।
चौथी बात, सरकार जिला प्रशासन के माध्यम से कम से कम समय में सरकारी जमीन तथा जिले में स्थित सार्वजनिक इकाइयों की सूची तैयार करे। नई परियोजनाओं को अतिरिक्त पड़ी सरकारी भूमि पर ही लगाया जाए। पांचवीं बात यह कि राच्य सरकारें शहरी क्षेत्रों में खाली पड़ी जमीनों की जानकारी दें और बहुउद्देश्यीय उपयोग की छूट दें। यह भी सुनिश्चित किया जाए कि कोई भी अधिग्रहण बाजार दर से कम पर नहीं होगा। इससे तमाम भ्रष्टाचार पर रोक लग सकेगी। भारत में अनिवार्य रूप से भूमि बाजार का विकास होना चाहिए। इस काम के लिए संभवत: यह बिल्कुल सही समय है। भाजपा को चाहिए कि वह इस चुनौती को स्वीकार करे और किसी भी तरह अवसरवादी राजनीतिक विपक्ष के षड्यंत्रों का शिकार न हो।
[लेखक राजीव कुमार, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं]
वर्ष 1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा जब सत्ता में आया तो उससे लोगों को काफी उम्मीदें थीं। आम धारणा यही थी कि यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी, लेकिन यह सपना एक वर्ष में ही बिखरने लगा। मंडल आयोग का मुद्दा राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के लिए वाटरलू का युद्ध बन गया और अंतत: यह सरकार धराशायी हो गई। 10 महीने पहले जब राजग सरकार की सत्ता में वापसी हुई तो एक बार फिर धारणा यही बनी कि यह सरकार लंबे समय तक बरकरार रहेगी। उस समय कोई यह कल्पना भी नहीं कर सका कि केंद्रीय सत्ता के इतने निकट स्थित दिल्ली विधानसभा चुनावों में इस तरह के नतीजे सामने आएंगे। किसी भी सत्ताधारी राजनीतिक दल के लिए कोई भी एक मुद्दा निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है। जैसा कि पश्चिम बंगाल में माकपा के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा के मामले में हुआ। नंदीग्राम और सिंगुर में तत्कालीन सरकार द्वारा किसानों की जमीन का जबरन अधिग्रहण करने तथा ममता बनर्जी के नेतृत्व में चलाए गए शक्तिशाली जन आंदोलन के परिणामस्वरूप तत्कालीन बंगाल सरकार 2011 के विधानसभा चुनावों में पराजित हुई और 34 वषरें से चली आ रही वाम मोर्चा सरकार का अंत हुआ। अध्यादेश के रूप में वर्तमान भूमि अधिग्रहण विधेयक में भी वे सभी संभावनाएं निहित हैं जो केंद्र की भाजपा सरकार के लिए वाटरलू का युद्ध साबित हो सकती हैं। इस विधेयक ने न केवल बंटे हुए विपक्ष को एकजुट कर दिया है, बल्कि सत्ताधारी पार्टी के कुछ सांसदों और उसके अपने घटक दलों में भी दरार पैदा करने का काम किया है। विशेषकर उन लोगों में जो ग्रामीण क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
लोकतंत्र में केवल साध्य ही नहीं, बल्कि इस तक पहुंचने का साधन भी महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए बनाए जाने वाले कानून की निर्माण प्रक्रिया भी लोकतांत्रिक होनी चाहिए। वर्तमान मामले में एलएआरआर बिल अथवा भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास एवं पुर्नस्थापना विधेयक को शीत सत्र के तत्काल बाद अध्यादेश के रूप में लाया गया, जिसकी राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी आलोचना की। उन्होंने कहा कि जब संसद बिना किसी विचार-विमर्श के कोई कानून बनाती है तो यह उन लोगों के विश्वास को तोड़ना है जिन्होंने इस पर अपना भरोसा जताया है। वर्ष 2014 में पूर्व विधायी परामर्श नीति मसले पर सचिवों की समिति ने निर्णय लिया था कि प्रत्येक मंत्रालय अनिवार्य रूप से प्रस्तावित विधेयकों के प्रारूप को सार्वजनिक तौर पर प्रकाशित करेगा, जिसमें विधेयक के अत्यावश्यक प्रावधानों को भी शामिल किया जाएगा। इसमें व्यापक वित्तीय प्रभावों, पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन, लोगों के मौलिक अधिकारों तथा प्रभावित लोगों के जीवन और आजीविका पर भी प्रकाश डाला जाएगा। यह भी निर्णय लिया गया था कि सभी संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श किया जाएगा। और यह सब भी विधेयक के प्रारूप को अंतिम रूप से संसद में पेश करने से पहले किया जाएगा।
वर्तमान भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में भी न तो किसानों और भूस्वामियों से बात की गई और न ही प्रभावित होने वाले परिवारों से रायशुमारी की गई। इस विधेयक को मूर्त रूप देने से पूर्व आम चर्चा से भी बचा गया और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित पक्षों को बातचीत की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया। यह विधेयक भाजपा के घोषणापत्र के भी विरुद्ध है, क्योंकि इसमें कहा गया है कि भाजपा राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति बनाएगी जिसमें किसानों के हितों को संरक्षित किया जाएगा और यह भी कि कृषि योग्य जमीन का औद्योगिक या व्यापारिक परियोजनाओं अथवा सेज के लिए अधि‌र्ग्रहण नहीं होने देगी। सेज अथवा विशेष आर्थिक क्षेत्र का पूरा मुद्दा और औद्योगिक उद्देश्य के लिए भूमि का अधिग्रहण कृषि क्षेत्र के हितों को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा तथा कोशिश की जाएगी कि खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि हो।
भूमि अधि‌र्ग्रहण पर विधेयक लाकर सरकार न केवल अपने खुद के घोषणापत्र के खिलाफ चली गई, बल्कि इसने कानून मंत्रालय की उस सलाह को भी नजरंदाज कर दिया जिसमें उसने नया विधेयक लाने से पहले तमाम संबंधित पक्षों से बातचीत की सलाह दी थी। यह अलोकतांत्रिक है। चीनी मॉडल लोकतांत्रिक भारत में काम नहीं करता। विधेयक की बात करें तो इसके प्रावधान विवादपूर्ण हैं। एक प्रमुख प्रावधान है कि भूमि अधिग्रहण से पहले प्रभावित परिवार की सहमति की कतई जरूरत नहीं है। यह तो भूमि अधिग्रहण के बजाय भूमि हड़पना हुआ। कोई व्यवहार तब तक न्यायपूर्ण कैसे हो सकता है, जब तक कि एक पक्ष की बात भी न सुनी जाए। इस मामले में तो न केवल किसानों, बल्कि जमीन पर निर्भर कामगारों का पक्ष भी सुना जाचा चाहिए। इस प्रावधान से सरकार सत्ता की दबंगई से एक व्यक्ति के अधिकार को कुचलना चाहती है।
भारत में अमीर और शक्तिशाली लोगों का गुट बड़ा मजबूत है। जब किसी की जमीन लेने की बात आती है तो यह गुट बड़ा उदार हो जाता है। किंतु जब इनकी जमीन पर आंच आती है, तो यह उसे छोड़ना नहीं चाहता। दिल्ली गोल्फ क्लब का उदाहरण देखें। यह जमीन केंद्र सरकार की है। सरकार इस पर एम्स अस्पताल बनाना चाहती है, किंतु पूरा जोर लगाने के बाद भी क्या वह कामयाब हो जाएगी? भारतीय लोकतंत्र इस सिद्धांत पर चलता है कि वोट गरीब की और शासन अमीर का। नए विधेयक से भूमि अधिग्रहण के सामाजिक प्रभावों के अध्ययन का प्रावधान भी हटा लिया गया है। इस अध्ययन में भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले परिवारों की संख्या, उनके जीविकोपार्जन पर पड़ने वाले असर आदि का आकलन किया जाता है। अगर इन बातों पर पुनवर््िाचार ही नहीं किया जाएगा तो प्रभावितों के पुनर्वास और पुनस्र्थापना की योजना कैसे तैयार की जा सकती है। इसके अलावा विधेयक बहुफसली सिंचित भू्मि के अधिग्रहण को भी हरी झंडी देता है। इससे देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी।
जहां तक भूमि अधिग्रहण का सवाल है, हमें यह पूछना चाहिए कि हमने खुद को इस स्थिति में कैसे फंसा लिया। पहले भी रक्षा और ढांचागत सुविधाओं के विकास के लिए विभिन्न सरकारें जमीन का अधिग्रहण करती रही हैं। कभी कोई परेशानी नहीं आई। किसानों को सबसे कटु अनुभव हुआ है सेज के लिए भूमि छीन ली जाने पर। पूंजीपतियों ने अपना साम्राज्य खड़ा करने के लिए गरीब किसानों की जमीन हड़प ली है।
जमीन जैसे मुद्दे पर लोगों की याददाश्त बड़ी तेज होती है। हम कैसे भूल सकते हैं कि महाभारत का युद्ध जमीन के मुद्दे पर ही हुआ था। जब श्रीकृष्ण ने पांडवों के लिए कुल पांच गांव मांगे तो दुर्योधन ने सुई की नोक के बराबर जमीन देने से भी इंकार कर दिया। कौरवों के अहंकार के कारण यह महायुद्ध हुआ, जिसमें कोई भी विजेता नहीं था। दोनों पक्ष हारे थे। कितना विचित्र है कि महाभारत की भूमि पर हम इस महान ग्रंथ से कोई सीख नहीं ले रहे हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि दूसरा महाभारत न छिड़े। इसमें कोई नहीं जीतेगा और सबसे बड़ी हार तो देश की होगी।
[लेखक दिनेश त्रिवेदी, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]
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वर्ष 1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा जब सत्ता में आया तो उससे लोगों को काफी उम्मीदें थीं। आम धारणा यही थी कि यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी, लेकिन यह सपना एक वर्ष में ही बिखरने लगा। मंडल आयोग का मुद्दा राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के लिए वाटरलू का युद्ध बन गया और अंतत: यह सरकार धराशायी हो गई। 10 महीने पहले जब राजग सरकार की सत्ता में वापसी हुई तो एक बार फिर धारणा यही बनी कि यह सरकार लंबे समय तक बरकरार रहेगी। उस समय कोई यह कल्पना भी नहीं कर सका कि केंद्रीय सत्ता के इतने निकट स्थित दिल्ली विधानसभा चुनावों में इस तरह के नतीजे सामने आएंगे। किसी भी सत्ताधारी राजनीतिक दल के लिए कोई भी एक मुद्दा निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है। जैसा कि पश्चिम बंगाल में माकपा के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा के मामले में हुआ। नंदीग्राम और सिंगुर में तत्कालीन सरकार द्वारा किसानों की जमीन का जबरन अधिग्रहण करने तथा ममता बनर्जी के नेतृत्व में चलाए गए शक्तिशाली जन आंदोलन के परिणामस्वरूप तत्कालीन बंगाल सरकार 2011 के विधानसभा चुनावों में पराजित हुई और 34 वषरें से चली आ रही वाम मोर्चा सरकार का अंत हुआ। अध्यादेश के रूप में वर्तमान भूमि अधिग्रहण विधेयक में भी वे सभी संभावनाएं निहित हैं जो केंद्र की भाजपा सरकार के लिए वाटरलू का युद्ध साबित हो सकती हैं। इस विधेयक ने न केवल बंटे हुए विपक्ष को एकजुट कर दिया है, बल्कि सत्ताधारी पार्टी के कुछ सांसदों और उसके अपने घटक दलों में भी दरार पैदा करने का काम किया है। विशेषकर उन लोगों में जो ग्रामीण क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
लोकतंत्र में केवल साध्य ही नहीं, बल्कि इस तक पहुंचने का साधन भी महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए बनाए जाने वाले कानून की निर्माण प्रक्रिया भी लोकतांत्रिक होनी चाहिए। वर्तमान मामले में एलएआरआर बिल अथवा भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास एवं पुर्नस्थापना विधेयक को शीत सत्र के तत्काल बाद अध्यादेश के रूप में लाया गया, जिसकी राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी आलोचना की। उन्होंने कहा कि जब संसद बिना किसी विचार-विमर्श के कोई कानून बनाती है तो यह उन लोगों के विश्वास को तोड़ना है जिन्होंने इस पर अपना भरोसा जताया है। वर्ष 2014 में पूर्व विधायी परामर्श नीति मसले पर सचिवों की समिति ने निर्णय लिया था कि प्रत्येक मंत्रालय अनिवार्य रूप से प्रस्तावित विधेयकों के प्रारूप को सार्वजनिक तौर पर प्रकाशित करेगा, जिसमें विधेयक के अत्यावश्यक प्रावधानों को भी शामिल किया जाएगा। इसमें व्यापक वित्तीय प्रभावों, पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन, लोगों के मौलिक अधिकारों तथा प्रभावित लोगों के जीवन और आजीविका पर भी प्रकाश डाला जाएगा। यह भी निर्णय लिया गया था कि सभी संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श किया जाएगा। और यह सब भी विधेयक के प्रारूप को अंतिम रूप से संसद में पेश करने से पहले किया जाएगा।
वर्तमान भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में भी न तो किसानों और भूस्वामियों से बात की गई और न ही प्रभावित होने वाले परिवारों से रायशुमारी की गई। इस विधेयक को मूर्त रूप देने से पूर्व आम चर्चा से भी बचा गया और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित पक्षों को बातचीत की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया। यह विधेयक भाजपा के घोषणापत्र के भी विरुद्ध है, क्योंकि इसमें कहा गया है कि भाजपा राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति बनाएगी जिसमें किसानों के हितों को संरक्षित किया जाएगा और यह भी कि कृषि योग्य जमीन का औद्योगिक या व्यापारिक परियोजनाओं अथवा सेज के लिए अधि‌र्ग्रहण नहीं होने देगी। सेज अथवा विशेष आर्थिक क्षेत्र का पूरा मुद्दा और औद्योगिक उद्देश्य के लिए भूमि का अधिग्रहण कृषि क्षेत्र के हितों को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा तथा कोशिश की जाएगी कि खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि हो।
भूमि अधि‌र्ग्रहण पर विधेयक लाकर सरकार न केवल अपने खुद के घोषणापत्र के खिलाफ चली गई, बल्कि इसने कानून मंत्रालय की उस सलाह को भी नजरंदाज कर दिया जिसमें उसने नया विधेयक लाने से पहले तमाम संबंधित पक्षों से बातचीत की सलाह दी थी। यह अलोकतांत्रिक है। चीनी मॉडल लोकतांत्रिक भारत में काम नहीं करता। विधेयक की बात करें तो इसके प्रावधान विवादपूर्ण हैं। एक प्रमुख प्रावधान है कि भूमि अधिग्रहण से पहले प्रभावित परिवार की सहमति की कतई जरूरत नहीं है। यह तो भूमि अधिग्रहण के बजाय भूमि हड़पना हुआ। कोई व्यवहार तब तक न्यायपूर्ण कैसे हो सकता है, जब तक कि एक पक्ष की बात भी न सुनी जाए। इस मामले में तो न केवल किसानों, बल्कि जमीन पर निर्भर कामगारों का पक्ष भी सुना जाचा चाहिए। इस प्रावधान से सरकार सत्ता की दबंगई से एक व्यक्ति के अधिकार को कुचलना चाहती है।
भारत में अमीर और शक्तिशाली लोगों का गुट बड़ा मजबूत है। जब किसी की जमीन लेने की बात आती है तो यह गुट बड़ा उदार हो जाता है। किंतु जब इनकी जमीन पर आंच आती है, तो यह उसे छोड़ना नहीं चाहता। दिल्ली गोल्फ क्लब का उदाहरण देखें। यह जमीन केंद्र सरकार की है। सरकार इस पर एम्स अस्पताल बनाना चाहती है, किंतु पूरा जोर लगाने के बाद भी क्या वह कामयाब हो जाएगी? भारतीय लोकतंत्र इस सिद्धांत पर चलता है कि वोट गरीब की और शासन अमीर का। नए विधेयक से भूमि अधिग्रहण के सामाजिक प्रभावों के अध्ययन का प्रावधान भी हटा लिया गया है। इस अध्ययन में भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले परिवारों की संख्या, उनके जीविकोपार्जन पर पड़ने वाले असर आदि का आकलन किया जाता है। अगर इन बातों पर पुनवर््िाचार ही नहीं किया जाएगा तो प्रभावितों के पुनर्वास और पुनस्र्थापना की योजना कैसे तैयार की जा सकती है। इसके अलावा विधेयक बहुफसली सिंचित भू्मि के अधिग्रहण को भी हरी झंडी देता है। इससे देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी।
जहां तक भूमि अधिग्रहण का सवाल है, हमें यह पूछना चाहिए कि हमने खुद को इस स्थिति में कैसे फंसा लिया। पहले भी रक्षा और ढांचागत सुविधाओं के विकास के लिए विभिन्न सरकारें जमीन का अधिग्रहण करती रही हैं। कभी कोई परेशानी नहीं आई। किसानों को सबसे कटु अनुभव हुआ है सेज के लिए भूमि छीन ली जाने पर। पूंजीपतियों ने अपना साम्राज्य खड़ा करने के लिए गरीब किसानों की जमीन हड़प ली है।
जमीन जैसे मुद्दे पर लोगों की याददाश्त बड़ी तेज होती है। हम कैसे भूल सकते हैं कि महाभारत का युद्ध जमीन के मुद्दे पर ही हुआ था। जब श्रीकृष्ण ने पांडवों के लिए कुल पांच गांव मांगे तो दुर्योधन ने सुई की नोक के बराबर जमीन देने से भी इंकार कर दिया। कौरवों के अहंकार के कारण यह महायुद्ध हुआ, जिसमें कोई भी विजेता नहीं था। दोनों पक्ष हारे थे। कितना विचित्र है कि महाभारत की भूमि पर हम इस महान ग्रंथ से कोई सीख नहीं ले रहे हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि दूसरा महाभारत न छिड़े। इसमें कोई नहीं जीतेगा और सबसे बड़ी हार तो देश की होगी।
[लेखक दिनेश त्रिवेदी, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]
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My First Add For Print Media 21-3-2015Trying To Make ...


Mar 19, 2015

Though of the day 

20-3-2015

When confidence is in your eyes and hope is your wings then sky is your

                                       A.s Raja

कूटनीति का महासागर

19-3-2015


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले सप्ताह सेशल्स, मॉरीशस और श्रीलंका की यात्रा पर रहे। ये तीनों ही हिंद महासागर में महत्वपूर्ण द्वीपीय देश हैं। यह भी कहा जा रहा था कि प्रधानमंत्री मालदीव की भी यात्रा पर जाएंगे, लेकिन यह कार्यक्रम बाद में टाल दिया गया, क्योंकि इस देश में लोकतांत्रिक रूप से चुने गए पहले राष्ट्रपति और वर्तमान में विपक्ष के नेता मोहम्मद नशीद को भारत द्वारा नाराजगी जाहिर किए जाने के बाद भी गिरफ्तार कर लिया गया। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी यात्रा के दौरान इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के लिए सेशल्स, मॉरीशस और श्रीलंका को सैन्य और नागरिक सहयोग दिए जाने का संकेत दिया। चीन इन द्वीपीय देशों में न केवल हाईवे बनाने के साथ बिजली संयत्र लगाना चाहता है, बल्कि समुद्री बंदरगाह स्थापित करने की भी तमन्ना रखता है। चीन के इरादे को देखते हुए भारत हिंद महासागर क्षेत्र में सुरक्षा नेटवर्क मुहैया कराना चाहता है जिसके लिए वह इन देशों को गश्ती जहाज, निगरानी वाले राडार देने के साथ-साथ सी-मैपिंग की सुविधा भी मुहैया कराने को तत्पर है।
भारतीय प्रधानमंत्री का अपने समुद्री पड़ोसी देशों की यात्रा किया जाना इस बात को प्रतिध्वनित करता है कि भारत हिंद महासागर क्षेत्र में इन देशों के साथ अपने संबंध मजबूत करना चाहता है। यह क्षेत्र भारत के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन नई दिल्ली का प्रभाव क्रमिक रूप से यहां कम होता गया। दक्षिण एशिया में चीन भारत को कड़ी चुनौती दे रहा है फिर चाहे वह कूटनीतिक रूप से हो अथर्वा ंहद महासागर में स्थित इन छोटे द्वीपीय देशों में अपनी उपस्थिति के माध्यम से। भारत के आसपास स्थित देशों से चीन अपनी घनिष्ठता बढ़ा रहा है, जिसमें श्रीलंका, सेशल्स और मॉरीशस शामिल हैं। चीन र्को ंहद महासागर में वर्ष 2012 में तब बड़ी सफलता मिली जब इस क्षेत्र में सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण देश सेशल्स ने अपने यहां चीनी सेना को मदद और अन्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए अड्डा बनाने की अनुमति दी। हालांकि बीजिंग ने ऐसी किसी भी बात से इन्कार किया है। सेशल्स से चीन को मिला प्रस्ताव इस क्षेत्र में बदलते शक्ति संतुलन को दर्शाता है, जिसे कमतर नहीं आंका जा सकता। भारत परंपरागत रूप से सेशल्स को हथियार मुहैया कराने वाला मुख्य देश रहा है। इतना ही नहीं भारत सेशल्स के एसपीडीएफ या पीपुल्स डिफेंस फोर्सेज को हथियार देने के साथ ही उसे प्रशिक्षण भी देता रहा है।
वर्ष 2012 में भारत ने सेशल्स के साथ सामरिक रिश्तों को मजबूती देने के लिए उसे पांच करोड़ डॉलर का ऋण और करीब 2.5 करोड़ डॉलर की अनुदान राशि मुहैया कराई। भारतीय नौसेना चारों तरफ जल से घिरे इन द्वीपीय देशों का चक्कर लगाती रहती है। मोदी की यात्रा इस रूप में भी महत्वपूर्ण है कि 34 वर्ष बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री सेशल्स आया। मोदी की यात्रा के दौरान सेशेल्स के साथ चार समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, जिनमें हाइड्रोग्राफी में सहयोग, नवीकरणीय ऊर्जा, बुनियादी ढांचे में विकास और नौपरिवहन तथा इलेक्ट्रॉनिक नौपरिवहन चार्ट की बिक्री शामिल है। सेशल्स के लिए एक और डोर्नियर एयरक्राफ्ट, तटीय निगरानी राडार परियोजना की घोषणा बढ़ते द्विपक्षीय सहयोग का प्रतीक है। मोदी ने इस बात पर भी बल दिया कि दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय समझौते आम लोगों के समान उद्देश्यों पर आधारित हैं, जिससे इस क्षेत्र में शांति और समृद्धि बढ़ेगी। मॉरीशस के राष्ट्रीय दिवस के अवसर पर भारतीय प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि थे। इस दौरान भारत से निर्यात किए गए युद्धपोत का जलावतरण किया गया। यह भारत में निर्मित एक गश्ती जहाज है, जिसकी क्षमता 1300 टन है। इस मौके पर प्रधानमंत्री ने कहा कि यहां रह रहे लोगों की यह प्राथमिक जवाबदेही है कि क्षेत्र में शांति और स्थिरता बरकरार रहे तथा समृद्धि बढ़े। इसके लिए उन्होंने भारत समेत दूसरे अन्य क्षेत्रीय देशों की बड़ी जिम्मेदारी पर बल दिया। मोदी ने यह भी कहा र्कि ंहद महासागर क्षेत्र में मजबूत शुरुआत का समय अब आ गया है और आने वाले वषरें में इस संदर्भ में अधिक उत्साह दिखेगा। नई दिल्ली की ओर से आने वाले वषरें में मॉरीशस को 13 और युद्धक जहाजों की आपूर्ति की जाएगी। मॉरीशस में महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के विकास के लिए भारत ने उसे 50 करोड़ डॉलर आसान किश्तों पर कर्ज देने की बात कही है। दोनों देशों ने पांच समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जिनमें समुद्री अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए व्यापक सहयोग तथा हिंद महासागर में महत्वपूर्ण क्षेत्रों के टिकाऊ विकास पर ध्यान देने की बात कही गई है।
मोदी की श्रीलंका यात्रा भी ऐतिहासिक है, क्योंकि 28 साल बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री वहां गया। मोदी ने ऐसे समय में यात्रा की जब र्मंहदा राजपक्षे की हार के कारण श्रीलंका में चीन की बढ़ती उपस्थिति को धक्का पहुंचा है। इस वर्ष जनवरी माह में हुए राष्ट्रपति चुनावों में मैत्रीपाल सिरिसेना को जीत मिली। सिरिसेना सरकार ने खुले तौर पर यह इच्छा जताई कि वह राजपक्षे के शासनकाल में चीन के साथ हुए समझौतों पर नए सिरे से विचार करेंगे। उन्होंने भारत के साथ रिश्ते सुधारने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। नए राष्ट्रपति ने अपनी प्रथम विदेश यात्रा के तौर पर भारत का चुनाव किया और परिणामस्वरूप दोनों देशों के बीच नागरिक परमाणु ऊर्जा सहयोग समझौता हुआ। सिरिसेना सरकार ने इस बात को भी रेखांकित किया कि वह पूर्व राजपक्षे सरकार द्वारा सितंबर 2014 में कोलंबो समुद्री बंदरगाह पर चीनी पनडुब्बी को रुकने संबंधी अनुमति पर पुनर्विचार करेगी, क्योंकि इस पर भारत ने अपनी चिंता जताई थी। इस दिशा में कूटनीतिक जोखिम उठाते हुए भी श्रीलंका ने कोलंबो में चीन द्वारा बनाई जाने वाले 1.5 अरब डॉलर की रियल इस्टेट परियोजना को रद कर दिया। यह श्रीलंका के बंदरगाह और बुनियादी ढांचों के विकास में सबसे बड़ा चीनी निवेश था। श्रीलंका सरकार ने इन समझौतों में पारदर्शिता का अभाव होने के साथ-साथ पर्यावरण मानकों पर खरा न उतरने की बात कही। मोदी की यात्रा के दौरान दोनों देशों ने चार समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जिनमें राजनयिक पासपोर्ट रखने वालों को वीजा अनुमति से छूट, पारस्परिक कस्टम सहयोग में इजाफा, युवाओं से संबंधित समझौता और रवींद्रनाथ टैगोर को समर्पित म्यूजियम का निर्माण शामिल है।
भारत ने श्रीलंका के रेलवे क्षेत्र को 38 करोड़ डॉलर की वित्तीय मदद का प्रस्ताव दिया। भारत ने त्रिंकोमाली को पेट्रोलियम केंद्र के तौर विकसित करने का वादा किया जो सामरिक भंडारण की दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा। मोदी युद्ध से प्रभावित क्षेत्र जाफना भी गए और वहां भारतीय मदद से तैयार किए गए घरों को सौंपा। कुल मिलाकर भारत ने चीन सिल्क मार्ग परियोजना की चुनौती के मद्देनजर कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। मोदी की यात्रा एक अच्छी शुरुआत है।
[लेखक हर्ष वी. पंत, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ हैं]

jagrun se

जेलों में कुव्यवस्था

19-3-2015

सूबे में कानून-व्यवस्था में सुधार की बड़ी चुनौती सरकार के 

समक्ष आ खड़ी हुई है। विधानसभा चुनाव सिर पर है और अपराधी बेलगाम हो गए हैं। चोरी, डकैती, हत्या और सड़क पर लूट की घटनाएं जिस तरह से बढ़ी हैं, उससे लोगों को फिर आठ साल पुराना बिहार दिखाई देने लगा है। दो दिन पहले विधानसभा में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर आमजनों को यह आश्वासन दिया है कि अब वे आ गए हैं तो डरने की जरूरत नहीं है, लेकिन उनके आश्वासन के बाद पुलिस विभाग ने अभी कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई है, जिससे इस मोर्चे पर आवाम को चिंता सता रही है। प्रशासन की सुस्ती से अपराधी जहां नित नई जरायम शैली को जन्म दे रहे हैं, वहीं अपराधियों को पकड़ने के बाद बांधकर रखने के इंतजाम की पोल भी खुलती जा रही है। देश की गिनी-चुनी जेलों में बेउर का नाम है, इसे आदर्श कारा का दर्जा है। बहरहाल यहां कामकाज ऐसे हो गए हैं कि आदर्श ताक पर नजर आ रहा है। यूं तो पैसे के बल पर जेल में कैदियों की मौज-मस्ती के किस्से आम हैं, पर अभी तक ऐसी कहानी हाईप्रोफाइल अपराधी या किसी राजनीतिक हस्ती के सलाखों के पीछे जाने पर ही सुनी जाती थी, परंतु अब आम कैदी बेउर जेल में साथियों के साथ मौज-मस्ती की तस्वीरें सोशल मीडिया पर अपलोड कर रहे हैं। बेउर जेल में बंद दुष्कर्म और चोरी के एक नाबालिग कैदी ने ऐसे फोटो फेसबुक पर तो शेयर किए ही हैं, अश्लील तस्वीरें भी लोड की हैं। यह गंभीर मामला प्रदेश की राजधानी पटना के एसएसपी की नजर तक पहुंच चुका है। इस प्रकरण ने जेल में आदर्श व्यवस्था की पोल खोल दी है।
वैसे आदर्श मानी जाने वाली बेउर जेल में जब-तब प्रशासन के छापे पड़ते रहते हैं। इस जेल में कई कुख्यात और नक्सली भी बंद हैं। इनके वार्ड में जब छापे पड़ते हैं तो बड़ी संख्या में चाकू, सेलफोन, सिम कार्ड आदि बरामद होते हैं। कुछ दिन पहले एक हकीकत सामने आई थी कि कैदी बाहर से खाने के लिए जो मुर्गा मंगाते हैं, उसी में सेलफोन सेट आ जाता है। जेलों में अव्यवस्था का एक और उदाहरण छपरा मंडल कारा में सामने आया है। यहां जिलाधिकारी दीपक आनंद को गुमराह कर जेल अधीक्षक ने चैता का आयोजन कर बार बालाओं को बुला लिया। किसी ने जिलाधिकारी तक सूचना पहुंचा दी तो कारा अधीक्षक सत्येंद्र कुमार के रंगीन मिजाज की पोल खुल गई। जिलाधिकारी के आदेश पर जेल में सदर के अनुमंडल अधिकारी और पुलिस उपाधीक्षक ने छापेमारी की। उन्हें चैता गाने वाली टीम मौके पर मिली। दोनों की जांच रिपोर्ट में जेल अधीक्षक दोषी पाए गए हैं। जिलाधिकारी ने जेल अधीक्षक के विरुद्ध कठोर कार्रवाई के लिए कारा महानिरीक्षक से अनुशंसा की है। ताज्जुब यह कि जांच टीम से कारा अधीक्षक ने हकीकत को तोड़-मरोड़कर पेश किया। जांच टीम को उन्होंने बताया कि जिलाधिकारी के मौखिक आदेश पर चैता का आयोजन किया गया, ताकि कैदियाें का मनोरंजन हो सके। बहरहाल, जांच रिपोर्ट पर कारा महानिरीक्षक ने उनसे दो दिन के भीतर स्पष्टीकरण मांगा है। फिलवक्त आवाम राजनीतिक दलों का कुछ बनाने और बिगाड़ने की हैसियत में आ चुकी है। इसलिए अच्छा यही होगा कि सरकार के आला अफसर कम से कम जेलों की दीवारें सुरक्षित रखें, क्योंकि बाहर अपराध में संलग्न लोगों पर उनकी लगाम ढीली नजर आ रही है।



उपेक्षा के शिकार बुजुर्ग..............


जेनेवा में मुझे मेरे बेटे ने अपनी एक साथी से मिलवाया। वह रिसेप्शनिस्ट


थीं। उसके जाने के बाद मैं कुछ सोच में पड़ी थी कि बेटा बोला- पता है तुम क्या सोच रही हो? इनकी उम्र 87 वर्ष है। मगर इस उम्र में यहां लोग रिटायर नहीं होते। उसने कहा कि वहां की सोच कुछ अलग है। जब तक कोई काम करते रहना चाहता है तब तक कर सकता है। उस महिला को रूयूमोटाइड अर्थराइटिस की समस्या थी, फिर भी वह काम कर रही थी। हैरानी की बात लगी। हमारे यहां तो रिसेप्सन पर काम करने का मतलब है एक सुंदर सुकुमारी नारी। इस उम्र की महिला का नौकरी करना तो दूर कोई उसे दफ्तर में घुसने तक नहीं देगा और कोई अगर बीमार है तब तो नौकरी उसके लिए स्वप्न जैसी ही है। वैश्वीकरण के बाद इस तरह की बातें और अधिक बढ़ी हैं।
जेनेवा में बूढ़ों को बहुत सी सामाजिक सुरक्षाएं हासिल हैं, फिर भी वे काम करना और सक्रिय रहना चाहते हैं। आजकल हमारे यहां बुजुगरें को बोझ समझा जाता है। उनसे व्यवहार भी वैसा ही होता है। हाल ही में आई हैल्पेज फाउंडेशन की रिपोर्ट बताती है कि हमारे बुजुगरें को बाहर वाले नहीं घर वाले अधिक सताते हैं। 24 फीसद बूढ़े अपने बेटों से पिटते हैं। उनके घर और संसाधनों पर बच्चे काबिज हो जाते हैं। कई बार उन्हें घर से निकाल दिया जाता है। इस अवस्था में उन्हें खुद का पेट भरने के लिए काम करना पड़ता है। मामूली सी बीमारी उन्हें ले बैठती है। बूढ़े आदमी तो जैसे-तैसे सड़क पर रात काट भी लेते हैं, मगर बूढ़ी औरतों की स्थिति और अधिक खराब है। वे अकेली कहां जाएं? बड़े शहरों में तो आश्रयस्थल भी मिल सकते हैं, मगर छोटे शहरों और गांवों में तो वे भी नहीं हैं। रिपोर्ट में इसका बड़ा कारण संयुक्त परिवार के बिखराव को बताया गया है।
फाउंडेशन ने बूढ़ों को तीन आयु वर्ग में बांटा है। प्रथम वर्ग में 60-70 वर्ष के लोग आते हैं, मध्यम आयु वर्ग में 70-80 और सबसे बूढ़े की श्रेणी में 80 से अधिक उम्र के लोगों को शामिल किया गया। बताया गया है कि देश के 51 प्रतिशत बुजुर्ग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। इनमें भी सबसे अधिक खराब हाल 80 से अधिक आयु वालों का है। यदि पुराने किस्से-कहानियों पर नजर डालें तो पाएंगे कि प्राचीन काल में भी बुढ़ापा आते ही सारे अधिकार छीनकर राजा तक को वानप्रस्थ में भेज दिया जाता था। शायद इन्हीं बातों से सीख लेकर हमारे पुरखों ने घर के सर्वाधिक अशक्त यानी बुजुर्ग को घर की सत्ता की चाबी सौंपी थी। संयुक्त परिवार में हर एक को उनकी बात माननी पड़ती थी। असीमित शक्तियां होने के कारण बूढ़े किसी की सुनते भी नहीं थे। समय बदला। परिवार टूटे और बुजुगरें की ताकत घटती चली गई। कल तक जो हाल बूढ़ों का था वह आज युवाओं का है, जो किसी की नहीं सुनते हैं। नौकरी की मारामारी में उनके पास समय नहीं है। ऐसे में बुजुर्ग का मतलब है अतिरिक्त जिम्मेदारी, अतिरिक्त बोझ तो उसे कोई क्यों उठाए?
हैल्पेज ने जिन बुजुगरें से सवाल पूछे उनमें 71 फीसद बेटों के पास और 9.8 फीसद बेटियों के साथ रहते हैं। जवाब देने वालों में से 80 फीसद ने माना कि उनके साथ बुरा व्यवहार, गाली-गलौज होती है। 24 फीसद बुजुगरें को बेटों से मार खानी पड़ती है। कुछ ने कहा कि बेटियां और नाती-पोते भी हिंसा करते हैं। महानगरों में अक्सर पुलिस बुजुगरें के लिए सुरक्षा-सलाह जारी करती है। यह सलाह अक्सर बाहरी हमलों से बचने के लिए होती है। मगर जब अपने ही सताएं तो ये बूढ़े क्या करें और कहां जाएं? कोई इनकी सुनता भी नहीं है। भाग-दौड़ करने की ताकत नहीं होती। पैसे की तंगी रहती है। ऊपर से तरह-तरह की बीमारियों की परेशानियां रहती ही हैं। बूढ़े हिंसा के साथ-साथ अकेलेपन और अवसाद से भी पीड़ित हैं।
दिल्ली के पार्को में अक्सर बूढ़े लोग बड़ी संख्या में ताश खेलते दिखाई देते हैं। उनके पास समय काटने का कोई और साधन नहीं होता। शहरों में ही अगर इनकी संख्या को देखा जाए, इन्होंने जिंदगी भर जो काम किया है उसके आंकड़े निकाले जाएं, तो पता चलेगा कि कोई बड़ा पुलिस अधिकारी है, कोई डॉक्टर है, कोई अध्यापक तो कोई सीए अथवा अन्य प्रोफेशनल। क्यों नहीं सरकार इनके अनुभव और कुशलता का लाभ उठाती। नौकरी से बड़ा सवाल इनकी व्यस्तता और अकेलेपन को दूर करने का है। बुजुगरें को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए सरकार को योजनाएं बनानी चाहिए। इन्हें विभिन्न संगठनों, शिक्षा, प्रशिक्षण संस्थानों आदि से जोड़ा जा सकता है, जहां शारीरिक श्रम के मुकाबले दिमागी काम की जरूरत अधिक हो।
एक आकलन के अनुसार देश में दस करोड़ बुजुर्ग हैं। वर्ष 2050 तक इनकी आबादी बहुत अधिक बढ़ने वाली है। इतनी बड़ी आबादी के लिए सरकार को कुछ न कुछ करना होगा। पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था करनी चाहिए जो फिलहाल बहुत मामूली है। कई राज्यों में दो सौ रुपये महीना पेंशन मिलती है, वह भी छह माह में। गोवा जरूर इसका अपवाद है जहां दो हजार रुपये प्रति महीने राशि दी जाती है। भारत में पेंशन सिर्फ 25 प्रतिशत बुजुगरें को मिल पाती है जबकि नेपाल में 47 प्रतिशत और चीन में 74 प्रतिशत बुजुर्ग पेंशन के दायरे में आते हैं। भारत में बीमारी की स्थिति में भी बूढ़े अपने परिजनों पर ही निर्भर होते हैं। चिकित्सा के लिए इन्हें किसी भी प्रकार की विशेष सुविधा प्राप्त नहीं है। चिकित्सा का खर्च भी इतना ज्यादा है कि गरीब बुजुर्ग अपना इलाज नहीं करा पाते। वैसे भी बूढ़ों के लिए तो सब जल्दी से जल्दी स्वर्गवासी होने की कामना करते हैं तो उनके इलाज पर कोई क्यों खर्च करे। सरकारी नीतियों से जब तक बुजुर्ग गायब रहेंगे तब तक उनकी कौन सुनेगा।
[लेखिका क्षमा शर्मा, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
A.s Raja

Mar 16, 2015

अब सांस लेना दुषवार

कितना प्रदूषित होगा भारत.....?

आशीष शुक्ला

आज इस आधुनिक युग मे काम-काज के चलते हम इतने व्यस्त हैं, कि अपनी सेहत का सही से ख्याल भी नहीं रख पाते, आये दिन बीमार पडते हैं। चारो तरफ धुंआ- धुंआ, वायु पूरी तरह से प्रदूषित हो चुकी है, सासं लेना दुषवार हो गया है। पर्यावरण को प्रदूषित करने का ठेका लोगों ने ले लिया है, आज भारत भले विकास के मार्ग पर अग्रसर हो, परन्तु लोगों का विकास आज तक नहीं हो पाया है। लोग जहां मन करता है वाहां कचरा डाल देते हैं, मौका मिलते ही सड़कों पर मल-मूत्र करते हैं। गांव के मुकाबले शहरों का प्रदूषण लगभग दुगना या उससे भी अधिक है। आज जिस तरह जल, वायु, ध्वनि आदि प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है, इसके पीछे ना सिर्फ कार्पोरेट जगत का हाथ है, बल्कि इसे प्रदूषित करने मे लोगों का भी बडा योगदान है।

दिल्ली मे रहने वाले लोगों को प्रदूषण का सबसे ज्यादा सामना करना पड रहा है, अन्य राज्यों के मुकाबले। प्रत्येक व्यक्ति लगभग 30 सिगरेट पीने के बराबर जितनी परेशानियां उत्पन्न होती हैं, उतना बिना पिए ही दिल्ली वाले प्रदूषण के चलते झेल रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ओर से कराए गए एक अध्ययन मे दिल्ली को दुनिया का सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर माना गया है। दिल्ली की हवाओं में PM2.5 (सांस के साथ अंदर जाने वाले पार्टिकल, 2.5 माइक्रोन्स से छोटे पार्टिकल) का कॉन्सनट्रेशन सबसे ज्यादा (153 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) है। जल, वायु, ध्वनि हर तरफ का प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। शहरों से प्रतिदिन लगभग 622 टन करचा निकलता है, यह धरती के लिए खतरा बनता जा रहा है। सड़क किनारे बिखरा कूड़ा पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है, इन कचरो से निकलने वाला धुआं पर्यावरण और लोगों के लिए खतरनाक है। कूड़े के जलने से निकलने वाली जहरीली गैसें कई प्रकार की बीमारियों को जन्म देती हैं। 
जमीन पर पड़ा कूड़ा बरसात के पानी को रीचार्ज करने के साथ भूजल तक उन खतरनाक रसायनों को पहुंचा जाता है, जो पानी में मिलने के बाद भूजल को जहरीला बना देता है। कूड़े के जलने से निकलने वाला धुंआ मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा है। धुंए में कार्बन मोनोऑक्साड गैस भारी मात्रा में होती है। जो हवा की तुलना में भारी होती है, धुआं उस समय और खतरनाक हो जाता है, जब कूड़े में पॉलिथिन, कपड़े व प्लास्टिक जलता है। इसके जलने से सल्फाइड व नाइट्रोजन की खतरनाक यौगिक गैस निकलती है। जो स्वास्थ्य के लिए खतरा है। सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कम्प्युटरों, और मोबाइल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट और कई जहरीले रसायन होते हैं। 
एक कम्प्यूटर का वजन लगभग 3.15 किग्रा होता है। इसमें 1.90 किग्रा लेड और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है, शेष हिस्सा प्लास्टिक, इसमें अधिकांश सामग्री गलती- सड़ती नही हैं, जमीन के संपर्क में आकर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं और भूगर्भ जल को जहरीला बनाती हैं। देश को विकास चाहिए और विकास की हर गाथा कुछ न कुछ कीमत जरुर मांगती है। लेकिन, उस कीमत को टिकाऊ बनाना भी मनुष्य का ही काम है। देश में करीब 50 प्रतिशत सड़कें वन क्षेत्रों में बन रही हैं। इनमें राष्ट्रीय पार्क हैं, वाइल्डलाइफ सेंचुरी हैं, और विस्तृत रुप में अन्य आरक्षित वन भी शामिल हैं। 

पारिस्थितिकीय स्थिति आज बहुत नाजुक हो चुकी है, इतनी नाजुक कि शीघ्र ही हमने कोई कदम नहीं उठाया तो स्थिति वश से बाहर हो जाएगी। देश की आबोहवा को अगर सफाई की चादर से नहीं ढका गया तो खुली हवा में भी सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। वाहनों का धुआं हवा में पांच गुना अतिरिक्त गंदगी घोल देगा।  पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई कंपनियां अपने परिसर से औद्यौगिक कचरे को ट्रीट किए बिना ही, हिंडन काली और कृष्णा नदियों में डाल रही हैं, जिसके चलते भूमिगत जल दूषित हो रहा है। 
पूरे पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में स्थिति विकराल है। पर्यावरणीय समस्या एक गंभीर समस्या है, इसे हलके मे नहीं लिया जाना चाहिए, पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त होने के लिए जितना प्रयास केंद्र सरकार द्वारा किया जा रहा है वह ना के बराबर है। भारत को पदूषण मुक्त बनाने के लिए सरकार को गंभीर कदम उठाने पड़ेंगे।
(लेखक युवा पत्रकार है)

Mar 15, 2015

क्रिकेट का भूत ..... Ashish shukla
युवावो में बढ़ती क्रिकेट की लोकप्रियता ने अन्य खेलों को पीछे छोडते हुए इसे दुनिया का सर्वाधिक खेला जाने वाला खेल बना दिया हैं । क्रिकेट दुनिया में एक प्रमुख खेल के रूप में विद्यमान है । यह भरतीय उपमहाद्वीप में दर्शकों का सबसे लोकप्रिय खेल हैं । क्रिकेट का जुनून आज युवावो पर सर चढ़कर बोल रहा हैं । अगर दस युवावो से उनके पसंदीता खेल के बारे में जाने तो शायद सात का जावाब क्रिकेट होगा । 16 वीं शताब्दी से आज तक इस खेल की लोकप्रियता लोगो के बीच अत्यन्त बिस्तृत रूप में विद्यमान हैं । खेल की शुरुआत वील्ड में रहने वाले बच्चों ने सक्सोन या नोर्मन के दौरान , इंग्लैंड के दक्षिण-पूरब के घंने जंगलों में किया था । यह खेल कई पीढ़ियो तक बच्चो के आवश्यक खेल के रूप में विद्यमान रहा वयस्कों की भागीदारी 17 वीं शताब्दी से पूर्व अज्ञात है । संभवतः क्रिकेट की ,शुरुआत लकड़ी के गेंद से हुई परन्तु कुछ समय पश्चात इसमे बदलाव आया लकड़ी की जगह भेड़ के ऊन के गोले आदि क्रिकेट खेलने के लिए प्रयुक्त करने लगे थे । छड़ी अंकुनी कृषि औजारो को बल्ले रूप में प्रयोग करते थे । क्रिकेट का बुनियादी नियम जैसे बल्ले और गेंद , विकेट, पिच आयामों,ओवरों, आउट के तरीके इत्यादि आदि काल से अस्तित्व में आये । 1844 में सबसे पहला अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैंच सयुक्त राज्य अमरीका और कनाड़ा के मध्य खेला गया । एक क्रिकेट मुकाबला दो टीमों के बीच खेला जाता है। हर टीम में ग्यारह खिलाड़ी होते हैं। टीम का उद्देश्य होता है दूसरी टीम से अधिक रन बनाना और दूसरी टीम के सभी खिलाड़ियों को आउट करना । क्रिकेट में खेल को ज्यादा रन बना कर भी जीता जा सकता है, दूसरे रूप में खेल को जीतने के लिए अधिक रन बनाना और दूसरी टीम को आउट करना जरुरी होता बल्लेबाजी वाला पक्ष गेंदबाजी के लिए मैदान में जाता है । पेशेवर मैचों में खेल के दौरान मैदान पर १५ लोग होते हैं। इनमें से दो अंपायर होते हैं जो मैदान में होने वाली गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं। दो बल्लेबाज होते हैं उनमें से एक 'स्ट्राइकर होता है जो गेंद का सामना करता है और और दूसरा " नॉन स्ट्राइकर "कहा जाता है। बल्लेबाजों की भूमिका रन बनने के साथ और ओवर पूरे होने के साथ बदलती रहती है। क्षेत्ररक्षण टीम के सभी ११ खिलाड़ी एक साथ मैदान पर होते हैं। उनमें से एक गेंदबाज होता है, दूसरा विकेटकीपर और अन्य नौ क्षेत्ररक्षक कहलाते हैं। आज क्रिकेट विश्व के कई देशो में खेला जाता हैं दिनो – दिन इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही हैं । भारत वा अन्य देश के कई खिलाड़ियो ने विश्व में देश का वह अपना नाम उज्जवल किया हैं जिसमे सें सचिन तेदुलकर का नाम सबसे पहले आता हैं इस महान खिलाड़ी ने क्रिकेट के बिभिन्न बड़े असंभव रिकार्ड को अपने नाम अर्जित किया हैं । कपिल देव , रवि शास्त्री , लाला अमरनाथ ,मोहमद अजरुद्दीन सुनील गॉवस्कर , बिसन सिंह वेदी ,राहुल द्रविड़ , सनत जयसूर्या , वसीम अकरम , शोएब अख्तर आदि क्रिकेट के दिग्गज खिलाड़ी रहे हैं । इन्होने क्रिकेट के प्रति सच्ची श्रद्धा रखी और इसेपर अपना सब कुछ अर्पित कर दिया । विश्व में आज कई ऐसे स्टेडियम हैं जो खिलाड़ियो के नाम से जाने जाते हैं जिनमे से विशेन सिहं बेदी स्टेडियम ( जलंधर पंजाब ) प्रमुख हैं । आज ज्यादातर युवा इसमे कैरियर बनाने के लिए आतुर हैं । उन्हे लगता हैं कि जल्दी नाम वह पैसा कमाने का यह अच्छा क्षेत्र हैं यह काफी हद तक सही भी हैं पर इसमे कैरियर बनाना उताना आसान नही जितना की आज के युवावो को लगता हैं । पर इस क्षेत्र में कैरियर बनाने की आपार संभावनाये हैं । बस जरुरत हैं आत्मविश्वास की सच्ची लगन और भरपूर मेहनत की । आज हर कोई सचिन बनना चाहता हैं पर सचिन वही बन सकता हैं जिसके पास , सागर की तरह आत्मविश्वास हो देश के प्रति सच्ची निष्ठा वह लगन हो । ब्रेट ली जैसे गेंदबाजो को छक्के छुडाने का जजबा हो वही सचिन बन सकता हैं । जब विश्वास तुम्हारी आंखो मे होगा और आशांये तुम्हारे पंख होगे तो आकश तुम्हारा हैं । ...