Mar 21, 2015

गरीबी की राजनीति

22-3-2015


दिल्ली विधानसभा चुनावों के चौंकाने वाले परिणामों ने भारत में गरीबी की राजनीति को एक नई दिशा दी है। शायद यही वजह रही कि 2015-16 के आम बजट के बाद प्रत्येक विपक्षी दल ने भारतीय जनता पार्टी को गरीब और किसान विरोधी यानी अमीरों की पार्टी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बीते साल हुए लोकसभा चुनावों में सूपड़ा साफ होने के बाद अनिश्चितता से भरे राजनीतिक भविष्य को निहार रहे उत्तार प्रदेश और बिहार के क्षेत्रीय दलों को दिल्ली के चुनाव के बाद गरीबी की राजनीति में आशा की नई किरण दिखी है। भाजपा को अमीर समर्थक पार्टी बताकर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जदयू और राजद सभी इस नव वामपंथी विचारधारा के झंडाबरदार बन रहे हैं। लेकिन जिस आम आदमी पार्टी की सफलता को आधार मानकर ये दल इस रास्ते चलने की कोशिश कर रहे हैं वह रणनीति क्या उत्तार प्रदेश और बिहार में कारगर साबित होगी? भारत में समय के साथ गरीब और गरीबी के बदलते स्वरूप पर गौर करें तो लगता नहीं है कि इन दलों की यह रणनीति अधिक प्रभावी होगी। तथ्यों पर जाएं तो अर्थशास्त्री बीएस मिन्हास ने 1960 में गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 59 फीसद होने का अनुमान लगाया था। देश की जनसंख्या के इतने बड़े हिस्से के गरीब होने के कारण राजनेताओं को गरीबी की राजनीति करने का अवसर मिल गया। शायद इसी का नतीजा था कि उस वक्त की पूरी राजनीति गरीब समर्थक नीतियों के आसपास टिकी और इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा देकर 1971 के आम चुनावों को जीता। देश में गरीबों की तेजी से घटती संख्या ने निश्चित रूप से विशुद्ध गरीबी की राजनीति की चुनावी मारक क्षमता को कम किया है।

यह भी सच है कि आजादी के बाद से गरीबों की इच्छा, आकांक्षा का स्वरूप काफी हद तक बदला है। हरित क्रांति और आर्थिक उदारीकरण के पहले तक गरीबों की इच्छा-आकांक्षा रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित थी। लेकिन देश के विकास के साथ शिक्षा और संचार के साधनों की पहुंच ने इन आकांक्षाओं में भारी बदलाव ला दिया है। यह दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों से भली-भांति समझा जा सकता है। योजना आयोग के अनुमान के मुताबिक 2011-12 में दिल्ली में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या मात्र 9.9 फीसद है। इसके बावजूद आम आदमी पार्टी ने अपना पूरा चुनावी एजेंडा गरीबों को लक्ष्य बनाकर लोक-लुभावन बनाए रखा, क्योंकि दिल्ली में मध्यम वर्ग का एक बड़ा तबका गरीबी की मनोदशा का शिकार है। दिल्ली के सामाजिक परिवेश में इस श्रेणी के लोगों की आकांक्षाएं उच्च-मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की जीवन शैली से प्रभावित होती हैं। इसलिए दिल्ली में बीस-पच्चीस हजार रुपये मासिक कमाने वाला कोई भी परिवार खुद को मानसिक रूप से गरीबी की श्रेणी में ही रखता है और राजनीतिक दलों के ऐसे लोक-लुभावन वायदों से प्रभावित होता है, जो आप ने दिल्ली चुनाव में किए। वही दूसरी ओर उत्तार प्रदेश और बिहार में रहने वाले छोटे किसान और उद्यमी भी सामाजिक गौरव की वजह से दिल्लीवासियों की तर्ज पर गरीबी की मानसिकता में नहीं जीते इसलिए विशुद्ध गरीबी के नारे उन्हें तब तक प्रभावित नहीं करेंगे जब तक उनकी महत्वाकांक्षा को न संबोधित किया जाए। इसलिए सपा, बसपा, राजद और जदयू जैसे दलों को मुफ्त दवा, शिक्षा और आहार से आगे बढ़कर संपूर्ण विकास की दिशा में सोचना होगा।
1989 में मंडल राजनीति और 1992 के बाद देश में भाजपा के प्रसार में बढ़त होने तक कांग्रेस ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक गठबंधन के साथ गरीबी के नारे का पूरा राजनीतिक लाभ लेने में सफल रही। लेकिन मुलायम सिंह, मायावती, लालू यादव, नीतीश कुमार और कल्याण सिंह जैसे नेताओं के उभरने और सामाजिक न्याय की राजनीति के प्रभाव में आने के बाद उत्तार भारत के हिंदी भाषी इलाकों की राजनीतिक संरचना में बदलाव आया। पिछले तीन दशकों में धर्म और जाति के आधार पर हुए ध्रुवीकरण ने चुनावी राजनीति का चेहरा बदल कर गरीबी और आर्थिक विभाजन की राजनीति की प्रासंगिकता को काफी सीमित कर दिया है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण वामपंथी दलों का तेजी से घटता जनाधार है। राजनीति की इस दौड़ में विपक्षी दलों ने भाजपा को गरीब और किसान विरोधी पार्टी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जबकि सच्चाई सबके सामने है कि 2014 लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों को सिर्फ जनता की आकांक्षाओं तक ही सीमित रखकर भारी सफलता पाई। यहां यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि मोदी के समक्ष देश का विकास पहली प्राथमिकता है। चूंकि भाजपा को केंद्र की सत्ता में रहते हुए हर साल किसी न किसी राज्य में विधानसभा चुनाव लड़ना है इसलिए मोदी सरकार भी जनता की आकांक्षाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती। यही वजह है कि बजट में एक संतुलित नजरिया रखते हुए वित्तामंत्री अरुण जेटली ने हर वर्ग का ध्यान रखा है। हालांकि इसके बावजूद विपक्ष इसे मोदी सरकार की अमीर समर्थक छवि के तौर पर प्रस्तुत कर रहा है। सबके लिए पेंशन के तौर पर सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य बीमा, बचत को प्रोत्साहन और छोटे उद्यमियों के लिए मुद्रा बैंक जैसे उपायों की घोषणा खासतौर पर मध्य और निम्न वर्ग को ध्यान में रखते हुए की गई है। संसद में भाषण और भाजपा सांसदों को दिए गए निर्देशों में मोदी ने स्पष्ट कर दिया है कि आने वाले दिनों में भाजपा ने विपक्ष के इन प्रहारों का डटकर जवाब देने और सरकार के आमजन को लाभ देने वाले प्रयासों के प्रचार का मन बना लिया है।
पिछले कुछ वषरें में भारतीय मतदाता ने चुनावी पंडितों को लगातार चौंकाया है। इसलिए उत्तार प्रदेश और बिहार के आगामी चुनावों में गरीबी की राजनीति कितनी सफल होगी, यह बताना अभी जल्दी होगा, परंतु इतना निश्चित है कि जन आकांक्षाएं और सामाजिक ध्रुवीकरण अभी भी इन राज्यों की चुनावी राजनीति का अभिन्न हिस्सा है।

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