Mar 21, 2015

भरोसा जीतने का समय

22-3-2015


ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना संशोधन बिल को राज्यसभा में पेश करने का विचार तब तक के लिए टाल दिया है जब तक कि वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी से संबंधित विधेयक न पारित हो जाए। सरकार को उम्मीद है कि जीएसटी से संबंधित बिल कम जटिल होने के कारण पारित हो सकता है। वैसे भी इसके मूल बिल का प्रारूप संप्रग सरकार ने तैयार किया था और अगर च्यादा नहीं तो यह बिल भी भूमि अधिग्रहण विधेयक जितना ही महत्वपूर्ण है। भूमि अधिग्रहण बिल को फिलहाल टालने से भाजपा को प्रस्तावित संशोधनों के पक्ष में सहमति वाला जमीनी आधार तैयार करने के लिए अधिक समय मिल जाएगा। यह काम काफी कुछ इस पर निर्भर करेगा कि किसानों के मन में विश्वास का भाव कैसे भरा जाता है, जिनके साथ पिछली सरकारों ने खराब बर्ताव किया है।
यह मेरे लिए एक रहस्य ही है कि क्यों भाजपा नेतृत्व ने सुधारों की पहली कड़ी के रूप में भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन करने को अपनी प्राथमिकता बनाया, जबकि उसे अच्छी तरह पता था कि आम चुनावों के पहले इस मसले पर कितनी संवेदनशीलता थी। शायद इस हड़बड़ी का कारण वरिष्ठ नौकरशाह थे जो औद्योगिक कोरिडोर तथा बुनियादी ढांचे से जुड़ी दूसरी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने की जल्दी में थे। यह भी हो सकता है कि भाजपा ने इन खबरों को भी सही रूप में नहीं लिया कि संप्रग सरकार के कई वरिष्ठ मंत्री अर्थव्यवस्था की कीमत पर जयराम रमेश की राजनीतिक बढ़त लेने की चाह के विरोधी थे। अटकलों के मुताबिक उनमें से कुछ ने अपना विरोध खुले रूप में जताया और कुछ ने गोपनीय तरीके से। यह भी हो सकता है कि दिल्ली के चुनावों के पहले भाजपा में उभरी आरामतलबी ने भी कुछ असर किया हो। मैंने खुद दिसंबर में भाजपा के जश्न वाले मूड को करीब से देखा था। पार्टी के लिए अब यह साफ हो जाना चाहिए कि यह एक गलती थी। इस समय विपक्षी दलों में से अधिकांश अपनी अवसरवादिता के कारण ही सही, लेकिन इस एक मुद्दे पर एक दूसरे के करीब आ गए हैं फिर चाहे वह तृणमूल कांग्रेस से लेकर माकपा हो अथवा कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी। यह आश्चर्यजनक है कि मोदी सरकार ने यह कैसे सोच लिया कि वह 2013 में संप्रग सरकार द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून की खामियों को उभारकर इस मसले को एक प्रशासनिक मुद्दे की तरह हल करने में कामयाब हो जाएगी? निश्चित ही सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 राजनीतिक दलों का संयुक्त मार्च एक बड़ी चेतावनी है जिसने भाजपा के अभिमान और आत्मसंतुष्टि को हिलाने का काम किया। वैसे तो संशोधन वाला विधेयक यथार्थपरक है, लेकिन भाजपा को विपक्ष के सामने यह बात अनिवार्य तौर पर साफ करनी चाहिए कि वह भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधनों से पीछे नहीं हटेगी।
2013 में बनाए गए खराब भूमि अधिग्रहण कानून में यह संशोधन इसलिए भी आवश्यक हैं ताकि इसके मुख्य आर्थिक लक्ष्य को हासिल किया जा सके। इससे बुनियादी ढांचे संबंधी बाधाओं को दूर किया जा सकेगा और विनिर्माण तथा आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी। इसके साथ ही मोदी सरकार को गरीब किसानों के एक बड़े समूह को इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे विपक्षी दलों से मुकाबले की प्रतिबद्धता दिखानी होगी। किसान इस समय अपनी जमीन से मिलने वाले कम लाभ, मौसमी कृषि श्रमिकों को कम भुगतान तथा मनरेगा पर निर्भरता के चलते मुश्किल से अपना जीवन निर्वाह कर पाने की स्थिति में हैं। भाजपा को अवश्य ही लोगों को स्पष्ट करना चाहिए कि भूमि अधिग्रहण कानून ग्रामीण आबादी के लिए चिंता का विषय नहीं बनेगा, क्योंकि आखिरकार उसे भी अपने क्षेत्र में उद्योगीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास का लाभ मिलेगा। लोगों को यह बताए जाने की जरूरत है कि भूमि अधिग्रहण के बजाय भारतीय कृषि के लिए कुछ अन्य मुद्दे अधिक चिंताजनक हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि भूमि अधिग्रहण से बमुश्किल 10 फीसद किसान ही प्रभावित होंगे जिनके पास शहरी क्षेत्रों के आसपास वाले इलाकों में बड़े आकार वाले भूखंड हैं। शेष 90 फीसद किसान खराब फसल उत्पादन, बाजार तक पहुंच की सुविधा के अभाव, मूल्यों में अस्थिरता, कम मजदूरी, अस्थिर मौसमी रोजगार और व्यापक बुनियादी और शैक्षिक सुविधाओं की कमी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन से इन सभी कमजोर किसानों को लाभ होगा।
यह भाजपा और उसके सहयोगी दलों पर निर्भर करता है कि वे इस घटनाक्रम को ग्रामीण क्षेत्र के हित में पेश करें और आर्थिक विकास के समर्थन में गरीब किसानों को अपने पक्ष में करें। इस तरह अवसरवादी राजनीतिक नेताओं द्वारा लोगों को बरगलाने से निजात पाई जा सकेगी। भारतीय किसान सदैव राष्ट्रवादी रहे हैं। निश्चित ही वे विकास के लिए ईमानदार प्रयासों का पूरे दिल से समर्थन करेंगे। वे इसमें अपनी सहभागिता चाहेंगे, न कि राजनीति का एक मोहरा बनना। उन्हें संगठित करने के प्रयासों से न केवल इसे आर्थिक मुद्दा बनाया जा सकेगा, बल्कि नैतिक स्तर पर लोगों के मौलिक अधिकारों की चिंताओं का भी समाधान किया जाना संभव होगा। यह एक कठिन कार्य है, लेकिन इसे छोड़ा भी नहीं जा सकता। भाजपा को चाहिए कि वह सदस्यता अभियान के तहत बनाए गए अपने छह करोड़ नए पार्टी सदस्यों से इस बारे में बात करे और उनके विचारों को जाने। संभवत: यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक आंदोलन है जिसमें वे लंबे समय के लिए भाग लेंगे। जमीन का मामला सदैव ही भावनात्मक और राजनीतिक मुद्दा बना रहेगा। हालांकि इसका कुछ हद तक गैर राजनीतिकरण किया जा सकता है। पहले कदम के तौर पर किसानों को समझाना होगा कि सरकार नहीं चाहेगी कि व्यापक राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में उनके साथ संघर्ष हो। बुनियादी ढांचे के तीव्र और टिकाऊ विकास से अंतत: वे भी लाभान्वित होंगे। दूसरी बात, किसानों को आश्वस्त करें कि उन्हें क्षतिपूर्ति का लाभ मिलेगा और आजीविका प्रभावित होने पर रोजगार देने के वादे पर ईमानदारी से अमल होगा। तीसरी बात, प्रधानमंत्री खुद इस बारे में किसानों को आश्वस्त करें।
चौथी बात, सरकार जिला प्रशासन के माध्यम से कम से कम समय में सरकारी जमीन तथा जिले में स्थित सार्वजनिक इकाइयों की सूची तैयार करे। नई परियोजनाओं को अतिरिक्त पड़ी सरकारी भूमि पर ही लगाया जाए। पांचवीं बात यह कि राच्य सरकारें शहरी क्षेत्रों में खाली पड़ी जमीनों की जानकारी दें और बहुउद्देश्यीय उपयोग की छूट दें। यह भी सुनिश्चित किया जाए कि कोई भी अधिग्रहण बाजार दर से कम पर नहीं होगा। इससे तमाम भ्रष्टाचार पर रोक लग सकेगी। भारत में अनिवार्य रूप से भूमि बाजार का विकास होना चाहिए। इस काम के लिए संभवत: यह बिल्कुल सही समय है। भाजपा को चाहिए कि वह इस चुनौती को स्वीकार करे और किसी भी तरह अवसरवादी राजनीतिक विपक्ष के षड्यंत्रों का शिकार न हो।
[लेखक राजीव कुमार, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं]

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