और कितने टुकडे होगें भारत के..... ?
आशीष शुक्ला
24-3-2015
आज भारत को आजाद हुए
लगभग सात दशक होने को हैं, परन्तु आज भी न तो वह आजाद है, और ना ही उसके टुकडे
होने बंद हुए हैं। भारत की इस पावन धरती पर, ना सिर्फ बटवारा आज जोरो से हो रहा
है, बल्कि समाज मे जातिगत-भेदभाव के आधार पर लगातार बटवारा होता आया है, वह आज भी
हो रहा है। फिर एक राष्ट्र कैसे विकास करेगा? विकास तभी संभव है, जब
समाज मे जातिगत भेदभाव ना हो, परन्तु भारत सदैव से ही इसका शिकार होता आया है, जिसके
चलते वह विकास नही कर पाया और अगर समाज मे इसी तरह के जातिगत- भेदभाव लगातार होते
रहे तो भारत कभी भी विकास नही कर पाएगा।
कहते हैं कि इंसान देखने और सुनने से
समक्षता है, परन्तु भारत ना तो देखने से समझ रहा, और ना ही सुनने से, हलांकि इसमे
इसका कोई दोष नहीं है। भारत मे मौजूद समाज के लोगों ने इसे अंधा बना दिया है। जब
हमारे यहा कोई अमेरिका का नागरिक आता है, और जब हम उसका परिचय पूछते हैं तो,
अमेरिकन बताएगा। ना कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, या इसाई। अगर हम बाहर जाते हैं, और
कोई हमसे हमारा परिचय पूछता है तो, हम अपना परिचय जातिगत तरीके से देते हैं। समाज
मे सदियों से पिछड़े वर्गों के साथ-लगातार अन्याय होता आया है, और गतिवत आज भी हो
रहा है। हर किसी को जीने का अधिकार है, हर किसी को अपना मत रखने का अधिकार है,
परन्तु जिस तरह से आज भारत पर जातिवाद हावी है, इससे ना तो पिछडा वर्ग कुछ बोल
पाता है, और ना ही अपने आपको लोगों के समक्ष उठने का मौका पाता है।
क्या शिक्षा जाति को समाप्त कर सकती है? शिक्षा
जाति को समाप्त कर भी सकती है और नहीं भी। जो शिक्षा आजकल दी जा रही है, अगर वही
शिक्षा है, तो वह जाति पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती। जाति
वैसी ही बनी रहेगी। इसका श्रेष्ठ उदाहरण ब्राह्मण जाति है। उनके अनुसार, ‘यह वह जाति है, जो शत-प्रतिशत शिक्षित है, बल्कि इसका बहुमत उच्च शिक्षितों का है। किंतु अभी तक एक भी ब्राह्मण ने
स्वयं को जाति के विरुद्ध घोषित नहीं किया है। यह एक कडवा सच है कि क्षत्रिय और ब्राह्राणों
ने सबसे ज्यादा दलितों का शोषण किया है। और जातिवाद को बढावा दिया है। जातिवाद ना
जाने का एक कारण आरक्षण भी है, खास तौर से राजनैतिक आरक्षण।
क्योंकि जातिविहीन और वर्ग- विहीन समाज के लिए नेतृत्व करने वाले बौद्धिक वर्ग को
राजनैतिक आरक्षण ने निष्क्रिय बना दिया है। दूसरी ओर नौकरियों में आरक्षण ने जिस
मध्यवर्ग को दलितों में विकसित किया है, उसकी सारी भागदौड़
अब उच्च वर्ग बनने की दिशा में है। जातिप्रथा ने हमें सिर्फ बर्बाद ही किया है।
बुद्धिमान लोगो को तो इन जातिवादी शिक्षा के गढ़ों काशी, कांची,
तिरुपति आदि के सारे पाखंडी, मक्कार, धूर्त जातिवादियों से ये सवाल करना चाहिए की ये सब बताएं की उस गुप्त
ज्ञान से जो इन्हें इनका महान और दैवीय जन्म होने से भगवान से तोहफे में मिला था,
इन्होने कौन सी महत्वपूर्ण खोज भारत देश और समाज की दी है? इन
जात-पात के लम्पट ठेकेदारों ने इन सब विश्वप्रसिद्ध संस्थानों की महान वैज्ञानिक
परंपरा का स्तर मिटटी में मिलाकर अपने घटिया किस्म की हथकंडे, तिकड़मबाजी और चालबाजी से इन्हें अपनी दक्षिणा का अड्डा बनाकर छोड़ दिया
है। निष्पक्ष सोचने से पता चलेगा कि हमसे कहीं कम गुणी अंग्रेज सिर्फ हम पर ही
नहीं लगभग आधी दुनिया पर केवल इसी वज़ह से राज कर पाए, कि उन्होंने अपने समाज के
अन्दर नकली और घटिया भेदभाव को बिलकुल नकार दिया। और वो हमारे ढोंगी पंडो जैसे
लोगों के चक्कर में नहीं पड़े। समाज मे संतुलन का आधार ज्ञान, धन और बल होता है। अगर ये तीनों किसी एक के हाथ मे केन्द्रित हो जाए तो
समाज मे असंतुलन पैदा हो जाता है। इसी ज्ञान को आधार मानकर महान ऋषियों ने समाज को
चार वर्णो (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य
तथा शूद्र) मे बांटा था। जातिवाद जैसी समस्या भारतीय समाज की एक ऐसी पहचान बन चुकी
है, जिसे कई वर्षों के प्रयत्नों और शिक्षा के प्रसार-प्रचार के बावजूद मिटा पाना
असंभव सा हो गया है। संविधान के अनुसार भारत के किसी भी निवासी के साथ जाति के नाम
पर भेदभाव नहीं किया जाएगा और अगर कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो, उसे दंड दिया जाएगा।
लेकिन संविधान का यह निर्देश मात्र एक अनुच्छेद बनकर ही रह गया और जाति प्रथा का
स्वरूप दिनों-दिन घिनौना होता चला गया। आज यह एक ऐसे रूप में अपना सिर उठाए खड़ा
है, जो मॉडर्न होते भारतीय समाज की दोहरी मानसिकता को साफ प्रदर्शित कर रहा है।
A.s Raja
A.s Raja
( यह लेखक के अपने
विचार हैं, लेखक युवा पत्रकार है)

No comments:
Post a Comment