उपेक्षा के शिकार बुजुर्ग..............
जेनेवा में मुझे मेरे बेटे ने अपनी एक साथी से मिलवाया। वह रिसेप्शनिस्ट
थीं। उसके जाने के बाद मैं कुछ सोच में पड़ी थी कि बेटा बोला- पता है तुम क्या सोच रही हो? इनकी उम्र 87 वर्ष है। मगर इस उम्र में यहां लोग रिटायर नहीं होते। उसने कहा कि वहां की सोच कुछ अलग है। जब तक कोई काम करते रहना चाहता है तब तक कर सकता है। उस महिला को रूयूमोटाइड अर्थराइटिस की समस्या थी, फिर भी वह काम कर रही थी। हैरानी की बात लगी। हमारे यहां तो रिसेप्सन पर काम करने का मतलब है एक सुंदर सुकुमारी नारी। इस उम्र की महिला का नौकरी करना तो दूर कोई उसे दफ्तर में घुसने तक नहीं देगा और कोई अगर बीमार है तब तो नौकरी उसके लिए स्वप्न जैसी ही है। वैश्वीकरण के बाद इस तरह की बातें और अधिक बढ़ी हैं।
जेनेवा में बूढ़ों को बहुत सी सामाजिक सुरक्षाएं हासिल हैं, फिर भी वे काम करना और सक्रिय रहना चाहते हैं। आजकल हमारे यहां बुजुगरें को बोझ समझा जाता है। उनसे व्यवहार भी वैसा ही होता है। हाल ही में आई हैल्पेज फाउंडेशन की रिपोर्ट बताती है कि हमारे बुजुगरें को बाहर वाले नहीं घर वाले अधिक सताते हैं। 24 फीसद बूढ़े अपने बेटों से पिटते हैं। उनके घर और संसाधनों पर बच्चे काबिज हो जाते हैं। कई बार उन्हें घर से निकाल दिया जाता है। इस अवस्था में उन्हें खुद का पेट भरने के लिए काम करना पड़ता है। मामूली सी बीमारी उन्हें ले बैठती है। बूढ़े आदमी तो जैसे-तैसे सड़क पर रात काट भी लेते हैं, मगर बूढ़ी औरतों की स्थिति और अधिक खराब है। वे अकेली कहां जाएं? बड़े शहरों में तो आश्रयस्थल भी मिल सकते हैं, मगर छोटे शहरों और गांवों में तो वे भी नहीं हैं। रिपोर्ट में इसका बड़ा कारण संयुक्त परिवार के बिखराव को बताया गया है।
फाउंडेशन ने बूढ़ों को तीन आयु वर्ग में बांटा है। प्रथम वर्ग में 60-70 वर्ष के लोग आते हैं, मध्यम आयु वर्ग में 70-80 और सबसे बूढ़े की श्रेणी में 80 से अधिक उम्र के लोगों को शामिल किया गया। बताया गया है कि देश के 51 प्रतिशत बुजुर्ग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। इनमें भी सबसे अधिक खराब हाल 80 से अधिक आयु वालों का है। यदि पुराने किस्से-कहानियों पर नजर डालें तो पाएंगे कि प्राचीन काल में भी बुढ़ापा आते ही सारे अधिकार छीनकर राजा तक को वानप्रस्थ में भेज दिया जाता था। शायद इन्हीं बातों से सीख लेकर हमारे पुरखों ने घर के सर्वाधिक अशक्त यानी बुजुर्ग को घर की सत्ता की चाबी सौंपी थी। संयुक्त परिवार में हर एक को उनकी बात माननी पड़ती थी। असीमित शक्तियां होने के कारण बूढ़े किसी की सुनते भी नहीं थे। समय बदला। परिवार टूटे और बुजुगरें की ताकत घटती चली गई। कल तक जो हाल बूढ़ों का था वह आज युवाओं का है, जो किसी की नहीं सुनते हैं। नौकरी की मारामारी में उनके पास समय नहीं है। ऐसे में बुजुर्ग का मतलब है अतिरिक्त जिम्मेदारी, अतिरिक्त बोझ तो उसे कोई क्यों उठाए?
हैल्पेज ने जिन बुजुगरें से सवाल पूछे उनमें 71 फीसद बेटों के पास और 9.8 फीसद बेटियों के साथ रहते हैं। जवाब देने वालों में से 80 फीसद ने माना कि उनके साथ बुरा व्यवहार, गाली-गलौज होती है। 24 फीसद बुजुगरें को बेटों से मार खानी पड़ती है। कुछ ने कहा कि बेटियां और नाती-पोते भी हिंसा करते हैं। महानगरों में अक्सर पुलिस बुजुगरें के लिए सुरक्षा-सलाह जारी करती है। यह सलाह अक्सर बाहरी हमलों से बचने के लिए होती है। मगर जब अपने ही सताएं तो ये बूढ़े क्या करें और कहां जाएं? कोई इनकी सुनता भी नहीं है। भाग-दौड़ करने की ताकत नहीं होती। पैसे की तंगी रहती है। ऊपर से तरह-तरह की बीमारियों की परेशानियां रहती ही हैं। बूढ़े हिंसा के साथ-साथ अकेलेपन और अवसाद से भी पीड़ित हैं।
दिल्ली के पार्को में अक्सर बूढ़े लोग बड़ी संख्या में ताश खेलते दिखाई देते हैं। उनके पास समय काटने का कोई और साधन नहीं होता। शहरों में ही अगर इनकी संख्या को देखा जाए, इन्होंने जिंदगी भर जो काम किया है उसके आंकड़े निकाले जाएं, तो पता चलेगा कि कोई बड़ा पुलिस अधिकारी है, कोई डॉक्टर है, कोई अध्यापक तो कोई सीए अथवा अन्य प्रोफेशनल। क्यों नहीं सरकार इनके अनुभव और कुशलता का लाभ उठाती। नौकरी से बड़ा सवाल इनकी व्यस्तता और अकेलेपन को दूर करने का है। बुजुगरें को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए सरकार को योजनाएं बनानी चाहिए। इन्हें विभिन्न संगठनों, शिक्षा, प्रशिक्षण संस्थानों आदि से जोड़ा जा सकता है, जहां शारीरिक श्रम के मुकाबले दिमागी काम की जरूरत अधिक हो।
एक आकलन के अनुसार देश में दस करोड़ बुजुर्ग हैं। वर्ष 2050 तक इनकी आबादी बहुत अधिक बढ़ने वाली है। इतनी बड़ी आबादी के लिए सरकार को कुछ न कुछ करना होगा। पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था करनी चाहिए जो फिलहाल बहुत मामूली है। कई राज्यों में दो सौ रुपये महीना पेंशन मिलती है, वह भी छह माह में। गोवा जरूर इसका अपवाद है जहां दो हजार रुपये प्रति महीने राशि दी जाती है। भारत में पेंशन सिर्फ 25 प्रतिशत बुजुगरें को मिल पाती है जबकि नेपाल में 47 प्रतिशत और चीन में 74 प्रतिशत बुजुर्ग पेंशन के दायरे में आते हैं। भारत में बीमारी की स्थिति में भी बूढ़े अपने परिजनों पर ही निर्भर होते हैं। चिकित्सा के लिए इन्हें किसी भी प्रकार की विशेष सुविधा प्राप्त नहीं है। चिकित्सा का खर्च भी इतना ज्यादा है कि गरीब बुजुर्ग अपना इलाज नहीं करा पाते। वैसे भी बूढ़ों के लिए तो सब जल्दी से जल्दी स्वर्गवासी होने की कामना करते हैं तो उनके इलाज पर कोई क्यों खर्च करे। सरकारी नीतियों से जब तक बुजुर्ग गायब रहेंगे तब तक उनकी कौन सुनेगा।
[लेखिका क्षमा शर्मा, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
A.s Raja
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