गीता से
(यदा यदा हि धर्मस्य
ग्लानिः भवति भारत, अभि-उत्थानम् अधर्मस्य तदा आत्मानं
सृजामि अहम् । परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुस्-कृताम्, धर्म-संस्थापन-अर्थाय
सम्भवामि युगे युगे ।)(टिप्पणीः
श्रीमद्भगवद्गीता वस्तुतः महाकाव्य महाभारत के भीष्मपर्व का एक अंश है; इसके १८ अध्याय भीष्मपर्व के क्रमशः अध्याय २५ से ४२ हैं ।)
भावार्थः जब जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म आगे बढ़ने लगता है, तब तब मैं स्वयं की सृष्टि करता हूं, अर्थात् जन्म
लेता हूं । सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनःस्थापना के लिए
मैं विभिन्न युगों (कालों) मैं अवतरित होता हूं ।
मैं नहीं जानता कि ईश्वर होता है कि नहीं । जब कोई मुझसे
पूछता है तो मेरा उत्तर स्पष्टतः अज्ञान का होता है, यानी साफ
तौर पर “मैं
नहीं जानता ।” हो सकता है ईश्वर हो । अथवा हो सकता
है वह न हो और हम सदियों से उसके अस्तित्व का भ्रम पाले हुए हों । कोई भी व्यक्ति
उसके अस्तित्व को प्रमाणित नहीं कर सकता
है, और न ही उसके ‘अनस्तित्व’ को । ऐसे प्रश्नों के संदर्भ में अपनी अनभिज्ञता जताना मेरी वैज्ञानिक सोच के अनुरूप है ।
जब ईश्वर
के बारे में निश्चित धारणा ही न बन सकी हो तो श्रीकृष्ण के ईश्वरावतार होने-न-होने के बारे में भला क्या
कहा जा सकता है ? ऐसी स्थिति में “मैं युग-युग में जन्म लेता हूं ।”
कथन कितना सार्थक कहा जाऐगा ? लेकिन मान
लेता हूं कि महाभारत
का युद्ध हुआ था, उसमें भगवदावतार श्रीकृष्ण की गंभीर भूमिका थी,
और उन्होंने अपने हथियार डालने को उद्यत अर्जुन को ‘धर्मयुद्ध’ लड़ने को प्रेरित किया । उन्होंने युद्धक्षेत्र में जो कुछ कहा क्या वह
अर्जुन को युद्धार्थ प्रेरित करने भर के लिए था या उसके आगे वह एक सत्य का
प्रतिपादन भी था ? दूसरे शब्दों में, उपर्युक्त
दोनों श्लोकों में जो कहा गया है वह श्रीकृष्ण का वास्तविक मंतव्य था, या वह उस विशेष अवसर पर अर्जुन को भ्रमित रखने के
उद्येश्य से था । जब मैं गंभीरता से चिंतन करता हूं तो मुझे यही लगता है कि ईश्वर
धर्म की स्थापना के लिए पुनः-पुनः जन्म नहीं लेता है ! कैसे ? बताता हूं ।
मान्यता
है कि महाभारत का युद्ध द्वापर युग के अंत में हुआ था । उसी के बाद कलियुग का आरंभ हुआ । चारों युगों में
इसी युग को सर्वाधिक पाप का युग बताया जाता है । सद्व्यवहार एवं पुण्य का लोप होना
इस युग की खासियत मानी जाती है । कहा जाता है पापकर्म की पराकाष्ठा के बाद फिर काल
उल्टा खेल खेलेगा और युग परिवर्तन होगा । मैं बता नहीं सकता हूं कि कलियुग के
पूर्ववर्ती सैकड़ों-हजारों वर्षों तक स्थिति कितनी शोचनीय थी, धर्म का ह्रास किस गति से हो रहा था, किंतु अपने
जीवन में जो मैंने अनुभव किया है वह अवश्य ही निराशाप्रद रहा है । समाज में
चारित्रिक पतन लगातार देखता आया हूं । देखता हूं कि लोग अधिकाधिक स्वार्थी होते जा
रहे हैं और निजी स्वतंत्रता के नाम पर मर्यादाएं भंग करने में नहीं हिचक रहे हैं ।
सदाचरण वैयक्तिक कमजोरी के तौर पर देखा जाने लगा है । बहुत कुछ और भी हो रहा है ।
इस दशा
में मेरे मन में प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण के उपर्युक्त कथनों के अनुसार तो
उन्हें धर्म की स्थापना करने में सफल होना चाहिए था, तदनुसार
अपने पीछे उन्हें एक धर्मनिष्ठ समाज छोड़ जाना चाहिए था । लेकिन हुआ तो इसका उल्टा
ही । महाभारत की युद्धोपरांत कथा है कि कौरव-पांडवों का ही विनाश नहीं
हुआ, अपितु श्रीकृष्ण के अपने वृष्णिवंशीय यादवों का भी नाश हुआ । ‘सामर्थ्यवान्’ श्रीकृष्ण स्थिति को संभालने में
असमर्थ सिद्ध हुए थे । अंत में निराश होकर उन्होंने अपने दायित्व अर्जुन को सौंप
दिए और अग्रज बलभद्र के साथ वन में तपस्वी का जीवन बिताने चले गये । वहीं एक व्याध के हाथों उनकी मृत्यु हुई थी ।
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